अपनी राजनीतिक जरूरत को महसूस कर विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार ने उडुपि के पेजावर स्वामी से संपर्क स्थापित किया। यह बात 1990 की है। प्रधानमंत्री वीपी सिंह के प्रतिनिधि के तौर पर राज्यपाल कृष्णकांत उडुपि पहुंचे थे, जहां उन्होंने स्वामीजी से भेंट की। दरअसल, संत समाज में स्वामीजी की ऊंची प्रतिष्ठा थी। राम मंदिर आंदोलन को सुलझाने के लिए सरकार उनकी भूमिका देख रही थी।
स्वामी विश्वेश्वर तीर्थ इस बात के पक्षधर थे कि भगवान राम का भव्य मंदिर बनना चाहिए। बहरहाल, कृष्णकांत ने वीपी सिंह सरकार की ओर से तीन सुझाव स्वामीजी के सामने रखे। पहला- कांची शंकराचार्य जयेंद्र सरस्वती जी के नेतृत्व में एक ट्रस्ट का गठन किया जाए और विवादित स्थल उन्हें सौंप दिया जाए। दो- विवादित ढांचे को जैसा का तैसा छोड़कर मंदिर का निर्माण किया जाए। तीन- मंदिर और विवादित ढांचे के बीच में एक दीवार का निर्माण किया जाए।
सुझाव सुनकर स्वामीजी ने कहा कि उन्हें विहिप के दूसरे लोगों से भी सलाह मशविरा करना होगा। उसके बाद ही कोई फैसला लिया जा सकता है। वे एक विशेष विमान से दिल्ली पहुंचे। वहां किसी बैठक में जाने से पहले अशोक सिंघल और विहिप के अन्य लोगों से मुलाकात की, जहां यह राय बनी कि सरकार द्वारा अधिग्रहीत जमीन राम जन्मभूमि न्यास को मिले।
इस विचार-विमर्श के बाद स्वामीजी ने सरकार को चार सुझाव दिए। एक- विवादित ढांचे को राम जन्मभूमि न्यास को सौंप दिया जाए। और किसी नए ट्रस्ट का गठन न हो। दो- पुनर्निर्माण की योजना में कुछ मामूली बदलाव किए जाएं। तीन- विवादित ढांचे को जस-का-तस रखा जाए। चार- ढांचे के चारों ओर बनाए गए खंभों पर मंदिर का निर्माण किया जाए। स्वामीजी के इन सुझावों को सरकार ने स्वीकार किया और बात आगे बढ़ी।
इस बातचीत को सरकार की ओर से कृष्णकांत, केंद्रीय मंत्री सुबोध कांत सहाय और बिहार के राज्यपाल यूनुस सलीम ने आगे बढ़ाया। लेकिन, होनी को यह मंजूर नहीं था। सो बातचीत राजनीति में उलझकर रह गई। केंद्र में नरसिंह राव की सरकार आई, तो बातचीत का सिलसिला फिर से शुरू हुआ। नरसिंह राव सरकार की नीयत साफ नहीं थी।
बातचीत में तमाम ऐसे लोगों से संपर्क किया गया, जो इस मामले में सिर्फ बहस करें। किसी समाधान तक न पहुंचें। जबकि दूसरी तरफ से गंभीर कोशिश हो रही थी। पेजावर स्वामी और पूर्व राष्ट्रपति आर. वेंकटरमण जैसी विशिष्ट शख्सियतें बातचीत में शामिल हुईं।
उस संदर्भ में स्वामीजी ने एक बार स्वयं कहा था- ‘चातुर्मास के बाद, सितंबर में मेरी प्रधानमंत्री से एक मुलाकात हुई थी। उस बैठक में प्रधानमंत्री ने मुझे सारी स्थितियों से अवगत कराया और सुझाव दिया कि मंदिर का निर्माण विवादित ढांचे से 20 फीट की दूरी पर किया जा सकता है।’ इसके जवाब में स्वामीजी ने कहा कि आपके इस प्रस्ताव को कोई मंजूर नहीं करेगा। इसी संदर्भ में आर. वेंकटरमण और स्वामीजी की भेंट चेन्नई (मद्रास) में हुई। वहीं वेंकटरमण का सुझाव था कि तीन में से दो गुंबदों को विश्व हिन्दू परिषद को मंदिर निर्माण के लिए दिया जा सकता है और तीसरा गुंबद एक राष्ट्रीय स्मारक के तौर पर ज्यों का त्यों छोड़ा जा सकता है। स्वामीजी ने प्रधानमंत्री के निजी सचिव पीवीआरके प्रसाद को इस प्रस्ताव की जानकारी दी और कहा- अगर सरकार कारसेवा की अनुमति देती है तो इस प्रस्ताव पर विचार किया जा सकता है।
स्मरण रहे कि उडुपि के पेजावर स्वामी विश्वेश्वर तीर्थ राम मंदिर आंदोलन के साथ शुरू से ही जुड़े हुए थे। प्रसाद का उनसे निजी परिचय था और उस परिचय का उपयोग प्रधानमंत्री नरसिंह राव करना चाहते थे। मई 1992 में संतों की एक बैठक उज्जैन में हुई थी। उसी बैठक में 9 जुलाई 1992 से अगले चरण की कारसेवा शुरू होने का निर्णय लिया गया था। इससे सरकार की परेशानी बढ़ गई थी। प्रधानमंत्री नरसिंह राव ने स्वयं संतों के एक प्रतिनिधि मंडल से भेंट की। उस भेंटवार्ता में स्वामी विश्वेश्वर तीर्थ भी थे।