किसानों को सहायता देने के लिए निर्मित हुई कृषि उपज मंडियां उनके शोषण, उनके साथ धोखेबाजी तथा बेईमानी की मंडी बन रही है। रक्षक ही भक्षक बन गए हैं। व्यापारियों की मनमानी तथा मंडी प्रशासन की उपेक्षा इसके लिए जिम्मेदार है। व्यापारियों द्वारा किसानों का शोषण मंडी के सारे नियमों को ताक में रखकर किया जाता है।
किसानों से क्रय-मूल्य में माल लेकर उसको इस होशियारी से तौला जाता है कि बोरी में चार-पांच किलो माल एक झटके में ज्यादा तुल सके। उस पर भी माल की कीमत महीनों तक नहीं दी जाती। जल्दी पैसे मांगने पर किसानों को फटकारना व बेइज्जत करना मामूली बात है। माह में दिए गए पैसे का ब्याज भी काटना व्यापारी नहीं भूलते।
यदि किसान माल जल्दी तुलवाकर जल्दी पैसा लेना चाहे तो व्यापारी उस किसान का माल चुपचाप घर पर कम भाव में तुलवा लेता है। फिर ऐसे माल का इंतजाम भी व्यापारी नम्बर दो का ही रखते हैं जिससे व्यापारियों को भाव के साथ ही आयकर, बिक्री कर आदि की खुली बचत हो जाती है। जब किसानों को पैसे की जरूरत रहती है, उनको मजबूरन बार-बार फटकार खाने के बाद भी उसी चैखट पर जाना पड़ता है। मंडी प्रशासन इस सारी अनियमितता के बावजूद व्यापारियों का साथ देता है।
किसानों की सहायता के लिए निर्मित अन्य संस्थाओं का हाल भी व्यक्तिगत स्वार्थों के कारण या राजनीतिक गुटबंदी के कारण खराब ही रहता है। इसका एक ही ज्वलंत उदाहरण देना यहां पर्याप्त होगा। वह है ‘दिल्ली स्टेट कोआपरेटिव मार्केटिंग एंड सप्लाइ फेडरेशन’ का। यह संस्था देहात में बीज, खाद, खेती के औजार और सीमेंट सस्ती दर पर देने के लिए बनाई गई थी। आपसी गुटबंदी के कारण फेडरेशन को लाखों का घाटा उठाना पड़ा।
किसानों को फेडरेशन से न बीज मिलता है, न खाद, न सस्ती दरों पर सीमेंट। फेडरेशन का डेढ़-दो करोड़ रुपये का व्यापार चैपट हो रहा है। इसके अधिकांश गोदाम खाली पड़े हैं। फेडरेशन के पास खाद, बीज, सीमेंट खरीदने के लिए पैसा नहीं रहता। बेचारा किसान बनियों से मिलावटी खाद-बीज खरीदता है। यह बीज-खाद महंगी होती है। साथ में बीज-खाद की कोई गारंटी नहीं होती। किसान-कल्याण के लिए निर्मित विभिन्न संस्थाओं का कम-अधिक मात्रा में चारों ओर यही हाल है।