हिन्द-प्रशांत क्षेत्र में नया ध्रुवीकरण

बनवारी

हिंद-प्रशांत क्षेत्र तेजी से अंतरराष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा का नया केंद्र बनता जा रहा है। इसका प्रमाण इस क्षेत्र की चार बड़ी शक्तियों के विदेश मंत्रियों की छह अक्टूबर को तोक्यो में हुई बैठक थी। इस बैठक में भारत, अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया के विदेश मंत्री उपस्थित थे। कोविड-19 के कारण पैदा हुई आवाजाही की कठिनाइयों के बावजूद इस बैठक में चारों देशों के विदेश मंत्रियों ने स्वयं उपस्थित होकर विचार-विमर्श करने का फैसला किया था। अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पंपियो के लिए बैठक में उपस्थित होना निश्चय ही कठिन निर्णय था। अमेरिका में राष्ट्रपति पद के आसन्न चुनाव को देखते हुए उनकी अमेरिका में उपस्थित आवश्यक थी।

विशेषकर इसलिए भी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के कोरोना संक्रमण से ग्रस्त होकर अस्पताल में भर्ती हो जाने के बाद उनकी टीम के अन्य सदस्यों का चुनाव की कमान संभालना महत्वपूर्ण हो गया था। लेकिन चीन की बढ़ती हुई आक्रामकता ने तोक्यो की इस बैठक को महत्वपूर्ण बना दिया था। इसलिए चारों देशों के विदेश मंत्री न केवल बैठक में उपस्थित हुए, बल्कि उन्होंने आगे संवाद को और अधिक गंभीर तथा विस्तृत बनाने का निर्णय भी कर लिया। अब तक यह चार देशों का एक अनौपचारिक समूह बताया जाता रहा है। उसे समीक्षकों ने क्वाड अर्थात चतुष्कोणीय संवाद की संज्ञा देने की कोशिश की है। पर अब तक इस संवाद में शामिल होने वाले देश उसे कोई नाम देने से बचते रहे थे। इस बार अमेरिका और भारत दोनों ने उसे क्वाड नाम से संबोधित किया और उसे सामरिक और आर्थिक सभी क्षेत्रों में एक गंभीर सुरक्षा-संवाद का स्वरूप देने का फैसला किया। इस नाते इस बार की यह बैठक अब तक सबसे महत्वपूर्ण बैठक थी।

हिन्द-प्रशांत क्षेत्र की सुरक्षा को लेकर इस क्षेत्र की चार बड़ी शक्तियों का समूह बनाने की मूल कल्पना जापान के पूर्व प्रधानमंत्री शिंजो अबे की थी। शिंजो अबे सितंबर 2006 में जापान के प्रधानमंत्री बने थे। 2007 में वे भारत की यात्रा पर आए और भारतीय संसद को संबोधित करते हुए उन्होंने भारत और जापान की निकटता को दो महासागरों-हिन्द और प्रशांत के मिलन की संज्ञा दी थी। उन्होंने सबसे प्रभावी ढंग से इस क्षेत्र की सुरक्षा व्यवस्था में भारत को भागीदार बनाने की पहल की थी। 2007 में ही इस चतुष्कोणीय संवाद की नींव डाली गई। 2008 में इन चार देशों के साथ सिंगापुर को जोड़कर सिंगापुर में ही इस संवाद का आयोजन हुआ। चीन ने इसका तीखा विरोध किया और आरोप लगाया कि यह समूह उसे निशाना बनाने के लिए बनाया जा रहा है। उस समय इन चारों देशों में से कोई चीन को सीधे नाराज नहीं करना चाहता था।

सबसे पहले ऑस्ट्रेलिया ने अपने आपको इस समूह से अलग किया। चीन उस समय ऑस्ट्रेलिया में बड़े पैमाने पर निवेश कर रहा था। अपने सुरक्षा कारणों से भी ऑस्ट्रेलिया चीन को अधिक नाराज नहीं करना चाहता था। इसलिए चारों देश¨ं के बीच शुरू हुआ यह संवाद उस समय आगे नहीं बढ़ सका। शिंजो अबे ने 2007 में ही स्वास्थ्य कारणों से प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया था। इस संवाद के आगे न बढ़ पाने का यह भी एक कारण था। 2012 में शी जिनपिंग चीन की सत्ता के शिखर पर पहुंचे और उन्होंने चीन की नीतियों को आक्रामक रूप देना शुरू किया। 2012 में ही शिंजो अबे फिर से जापान के प्रधानमंत्री बने और उनके नेतृत्व में जापान ने चीन को लेकर सख्ती बरतना शुरू किया। जनवरी 2017 में डोनाल्ड ट्रम्प अमेरिका के राष्ट्रपति बने और उन्होंने हिन्द-प्रशांत की सुरक्षा की ओर विशेष ध्यान देना शुरू किया। इस बीच ऑस्ट्रेलिया के नेतृत्व में भी परिवर्तन हो गया था और नए नेतृत्व ने चीन की आक्रामकता को गंभीरता से लेना शुरू कर दिया था। भारत में नरेंद्र मोदी सरकार अपनी सुरक्षा के प्रति गंभीरता दिखा रही थी।

इन बदली हुई परिस्थितियों में चारों देशों को 2007 में शुरू किए गए चतुष्कोणीय सुरक्षा संवाद का महत्व नए सिरे से समझ में आया और 2017 से यह सुरक्षा संवाद फिर शुरू हो गया। चीन जिस तरह इस क्षेत्र के छोटे-छोटे निर्जन द्वीपों पर कब्जा करके वहां अपना सामरिक तंत्र विकसित करने में लगा हुआ था, उसने उसकी महत्वाकांक्षाओं को स्पष्ट कर दिया था। चीन काफी समय से अपनी नौसैनिक शक्ति को बढ़ाने में लगा हुआ है। इस समय उसके पास संसार में सबसे अधिक युद्धपोत हैं। इन युद्धपोतों को तैनात करने के लिए वह दुनियाभर में सैनिक अड्डे बनाने की कोशिश कर रहा है। वह इस पूरे दौर में अपने पूर्वी समुद्र तथा अपने दक्षिणी समुद्र को एक के बाद एक विवाद का केंद्र बनाता रहा है। लेकिन भारत ने अपने आपको दक्षिणी चीन सागर के विवाद से दूर रखने की कोशिश की।

वह यह अवश्य घोषित करता रहा कि सामुद्रिक व्यापारिक मार्गों को खुला और सबके लिए सुलभ होना चाहिए। लेकिन विभिन्न देशों के साथ चीन ने इस क्षेत्र के द्वीपों को लेकर जो टकराव शुरू किया था, उससे भारत ने अपने आपको यथासंभव अलग रखने की कोशिश की। भारत को हिन्द-प्रशांत क्षेत्र की सुरक्षा व्यवस्था का भागीदार बनाने के लिए ही अमेरिका ने एशिया प्रशांत क्षेत्र का नया नामकरण करते हुए उसे हिन्द-प्रशांत क्षेत्र कहना शुरू किया था। भारत कीे इस तटस्थता के बावजूद चीन भारत को चारों ओर से घेरने में लगा हुआ था। उसने मालदीव को अपनी वित्तीय शक्ति से प्रभावित करके उसके कुछ द्वीपों को अपना सैनिक अड्डा बनाने की कोशिश की। श्रीलंका और पाकिस्तान के दो बंदरगाह भी उसके नियंत्रण में चले गए। चीन की इन सब कोशिशों को देखते हुए अंततः भारत चतुष्कोणीय सुरक्षा-संवाद को गंभीरता से लेने के लिए विवश हुआ।

हिन्द-प्रशांत क्षेत्र की सुरक्षा के सामने यह संकट चीन ने ही पैदा किया है। इसलिए इस चतुष्कोणीय सुरक्षा-संवाद का मुख्य निशाना वही रहने वाला है। चीन अपनी आक्रामकता दिखाकर पिछली बार इस संवाद को रुकवाने में सफल हो गया था। लेकिन वह इस बार ऐसा करने की स्थिति में नहीं है। उसने हिन्द-प्रशांत क्षेत्र की चार शक्तियों के इस समूह को मिनी नाटो की संज्ञा दी है। अभी इस सुरक्षा संवाद ने नाटो जैसा स्वरूप नहीं लिया है। पर अगर चीन अपनी अतिक्रमणकारी नीतियों पर चलता रहा तो इस समूह को नाटो जैसा सामरिक गठबंधन बनने में देर नहीं लगेगी। इन चारों देशों के बीच जो सुरक्षा-संवाद हो रहा है, वह इन देशों के बीच सभी क्षेत्रों में सहयोग के लिए है। इन देशों के बीच पहले से ही द्विपक्षीय या बहुपक्षीय सहयोग होता रहा है। उसका एक नमूना मालाबार युद्धाभ्यास है, इस वर्ष के अंत में वह होना है और इस बार भारत उसमें अमेरिका और जापान के अलावा ऑस्ट्रेलिया को भी आमंत्रित करने का मन बना चुका है।

तोक्यो में हुई बैठक के समय भारत और जापान में पांच जी प्रौद्योगिकी को लेकर एक समझौता किया है, इसके दूरगामी परिणाम होने वाले हैं। भारत और अमेरिका के बीच आतंकवाद और अंतरिक्ष की सुरक्षा को लेकर हाल ही कई समझौते हुए हैं। इस माह के अंत में भारत और अमेरिका के बीच मंत्रिस्तर की बातचीत होनी है और ट्रम्प प्रशासन राष्ट्रपति चुनाव से पहले दोनों देशों के बीच परस्पर महत्व के कुछ समझौतों को अंतिम रूप देना चाहता है। भारत और ऑस्ट्रेलिया के बीच भी आर्थिक और सामरिक सहयोग बढ़ा है। चीन को लगता है कि अमेरिका के चुनाव में डोनाल्ड ट्रम्प पराजित हुए तो स्थिति बदल जाएगी। पर कम से कम चीन को लेकर अमेरिका की नीति में कोई परिवर्तन नहीं होने वाला। चीन को शिंजो अबे की जगह जापान का प्रधानमंत्री बने योशिहिदा सुगा से भी यही अपेक्षा थी। लेकिन छह अक्टूबर की बैठक से साफ हो गया कि जापान की नीति में कोई परिवर्तन नहीं होने वाला। लद्दाख में अनावश्यक तनाव पैदा करके चीन ने भारत को तो अपना रुख कड़ा करने के लिए विवश कर ही दिया है।

चीन अमेरिका पर यह आरोप लगा रहा है कि वह दुनियाभर को उसके खिलाफ लामबंद करने में लगा हुआ है। पर अब तक चीन भी दुनिया को अमेरिका के खिलाफ लामबंद करने में लगा हुआ था। उसने शंघाई सहयोग संगठन का विस्तार करते हुए उसे एशिया का नाटो बनाने की कोशिश की थी। हालांकि उसकी यह कोशिश उस संगठन में रूस और भारत की उपस्थिति के कारण सफल नहीं हुई। इसी तरह वह ब्रिक्स को पश्चिमी देशों के समानांतर एक आर्थिक प्रतिष्ठान का स्वरूप देने की कोशिश करता रहा है। शुरू में वह अपनी वित्तीय स्थिति के बल पर ब्रिक्स डेवलपमेंट बैंक का नियंत्रण अपने हाथ में रखना चाहता था। उसने प्रस्ताव किया था कि वह बैंक की मूल निधि के लिए 41 अरब डॉलर देगा, भारत, रूस और ब्राजील 18 अरब डॉलर दें और दक्षिण अफ्रीका पांच अरब डॉलर। उसके अधिक योगदान के कारण बैंक पर उसका उतना ही अधिक नियंत्रण हो। पर अन्य सभी देशों ने उसका यह प्रस्ताव ठुकरा दिया और अब पांचों देशों के बराबर योगदान से 50 अरब डॉलर की मूल निधि बनाई गई है। चीन ब्रिक्स के माध्यम से डॉलर के समानांतर एक अंतरराष्ट्रीय मुद्रा विकसित करना चाहता था, पर उसमें भी उसे सफलता नहीं मिली।

दुनिया बहुत बड़ी है और वह किसी एक देश के पीछे लामबंद होने वाली नहीं है। इस समय चीन के विरुद्ध जो अंतरराष्ट्रीय वातावरण दिखाई दे रहा है, वह उसकी नीतियों का ही परिणाम है। उसने भारत की उत्तरी सीमाओं पर तनाव पैदा करके अपनी विस्तारवादी नीति के प्रति इस क्षेत्र के सभी देशों को आगाह कर दिया है। उसे सबक सिखाने के लिए भारत ने अंडमान निकोबार द्वीप समूह को एक बड़े सैनिक अड्डे के रूप में विकसित करने का फैसला कर लिया है। आने वाले समय में यह चीन के लिए सबसे बड़ी चुनौती बनने वाला है। वह दक्षिणी चीन सागर पर नियंत्रण करके उसे अन्य देशों की पहुंच से बाहर करना चाहता था। पर अब यह खतरा पैदा हो गया है कि आने वाले समय में मलक्का जलसंधि उसके व्यापारिक जहाजों के लिए बंद कर दी जाए। अंडमान निकोबार को एक बड़े सैनिक अड्डे के रूप में विकसित करके भारत उसके सामने यह चुनौती पैदा करने जा रहा है। भारतीय नौसेना मलक्का जलसंधि के सामने दीवार बनकर खड़ी हो सकती है। अब यह स्पष्ट है कि इस क्षेत्र में अमेरिका, जापान, ऑस्ट्रेलिया और भारत को जितना समर्थन प्राप्त है, उतना चीन को नहीं है। कम्युनिस्ट देश होने के बावजूद वियतनाम तक चीन के विरोध में खड़ा हो रहा है। चारों देशों में यह धारणा बन रही है कि इस समूह के साथ इस क्षेत्र के अन्य देशों को भी जोड़ने की कोशिश की जाए। इस तरह हिन्द-प्रशांत क्षेत्र में एक नया ध्रुवीकरण हो सकता है और वह चीन के लिए बहुत बड़ी चुनौती बन सकता है।

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