अधिक चुनौती भरी पत्रकारिता
स्वतंत्र पत्रकारिता दिनोंदिन चुनौतीपूर्ण होती जा रही है। इसे हाल में घटी तीन घटनाओं से समझा जा सकता है। अमेरिका को स्वतंत्र पत्रकारिता का एक मानक समझा जाता है। वहां अभिव्यक्ति पर किसी तरह की रोक-टोक नहीं है। उस अमेरिका में ‘केपिटल गजट’ के न्यूज रूम में पत्रकारों की हत्या ऐसी घटना है जो न केवल चौंकाती है बल्कि एक चेतावनी बनकर भी उभरती है।
किसी सिरफिरे ने उन हत्याओं को अंजाम नहीं दिया। उसने दिया जो ‘केपिटल गजट’ का पाठक था। उसे हत्या का ही मार्ग क्यों सूझा? एक पाठक अपने अखबार के पत्रकारों को मौत के घाट उतारे तो यह समझते देर नहीं लगती कि संकट किस प्रकार है।
इस घटना से लोकतंत्र कैद होता जाएगा। ऐसे हालात में अखबार सार्वजनिक जगह नहीं रह जाएंगे। कोई पाठक आसानी से अखबार के दफ्तर में प्रवेश नहीं कर पाएगा। इसके लक्षण बहुत पहले से दिखने लगे थे। अब कहां कोई अखबार अपने पाठकों के लिए उस तरह सुलभ है, जैसा कि पहले होता था!
दूसरी घटना चेन्नई की है। वहां पत्रकार तमिलनाडु सरकार की अलोकतांत्रिक नीतियों के विरोध में सड़क पर उतरे। आवाज दी। अपने अधिकारों के लिए लड़ने का संकल्प दिखाया। भारत के संविधान ने पत्रकारों को उस तरह अलग से कोई अधिकार नहीं दे रखा है, जैसा अमेरिका में है।
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“पिछली सदी के आठवें दशक में अनेक राज्यों ने नागरिक अधिकारों में कटौती इसलिए करना चाहा जिससे पत्रकारों को अपने धौंस में लिया जा सके।”
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यहां नागरिक अधिकार में ही पत्रकार का अधिकार शामिल है। उसके लिए अनेक प्रावधान हैं। पिछली सदी के आठवें दशक में अनेक राज्यों ने नागरिक अधिकारों में कटौती इसलिए करना चाहा जिससे पत्रकारों को अपने धौंस में लिया जा सके। बिहार में डा. जगन्नाथ मिश्र की सरकार एक प्रेस विधेयक लाई थी।
उसका इतना जबर्दस्त विरोध हुआ कि बिहार सरकार को अपने फैसले बदलने पड़े। जब राजीव गांधी आरोपों से घिरने लगे तो उन्होंने भी प्रेस पर पाबंदी के लिए कदम उठाए। उसका भी विरोध हुआ। राजीव गांधी को वह विरोध समझ में आया।
उन्होंने अपना विचार बदला। पाबंदी लगाने के निर्णय को ठंडे बस्ते में डाल दिया। क्या ये बातें आज की तमिलनाडु सरकार को पता नहीं है? उसने एक टीवी चैनल पर भारतीय दंड संहिता की धारा 153ए थोप दी।
इसी का विरोध वहां हो रहा है। यह सेंसरशिप से कम नहीं है। तमिलनाडु सरकार का यह कदम हमें आगाह कर रहा है कि राज्यतंत्र कभी भी निरंकुश हो सकता है। क्या यह लोकतांत्रिक अधिकारों पर हमला नहीं है?
तीसरी घटना कई सवाल उठाती है। पहला यह कि ‘राइजिंग कश्मीर’ के संपादक डा. सैयद सुजात बुखारी की हत्या के पीछे कौन है? उनकी हत्या क्यों की गई? क्या यह राज कभी खुल सकेगा? इन सवालों के अलावा यह बड़ा सवाल तो अपनी जगह है ही कि सुजात बुखारी ऐसे पत्रकार थे जो निर्भय रहकर अपना स्वधर्म पूरा कर रहे थे।
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“’राइजिंग कश्मीर’ के संपादक डा. सैयद सुजात बुखारी की हत्या के पीछे कौन है? उनकी हत्या क्यों की गई? क्या यह राज कभी खुल सकेगा?”
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उनकी हत्या पत्रकारिता के स्वधर्म पर निर्मम हमले की घटना है। जम्मू कश्मीर पुलिस की विशेष जांच टीम अंधी गलियों में भटक रही है। उसे नहीं सूझ रहा है कि हत्यारे कौन थे, कहां से आए? ऐसा भी नहीं है कि विशेष जांच टीम खोजने में न लगी हो।
वह लगी है फिर भी उसके हाथ अब तक कुछ भी नहीं लगा। जम्मू कश्मीर में जब से आतंकवाद छाया, तब से ही कई नामी-गिरामी नेता उसके शिकार हुए हैं। मीरवाइज मौलवी फारूक और अब्दुल गनी लोन की हत्याओं से तब भी एक सनसनी फैली थी।
मौलवी फारूक आतंकवाद के पहले चरण में मारे गए। करीब 12 साल बाद अब्दुल गनी लोन को आतंकवादियों ने निशाना बनाया और उन्हें मार डाला। ये दोनों जम्मू कश्मीर में प्रभावशाली सामाजिक नेता थे। मध्यमार्गी थे। लोकतंत्र में उनका यकीन था। उस कड़ी में ही सुजात बुखारी की हत्या को देखना चाहिए।
एक फर्क भी है। वह फर्क बड़ा है। मौलवी फारूक और गनी लोन की हत्या में जो हथियार इस्तेमाल किए गए वे कम मारक थे। पुराने थे। लेकिन सुजात बुखारी की हत्या में जो हथियार इस्तेमाल किए गए हैं, वे अत्याधुनिक हैं।
उनका इस्तेमाल प्रशिक्षित हत्यारा ही कर सकता है। सुजात बुखारी की हत्या सचमुच निर्मम थी। यह इस्तेमाल किए गए हथियार से भी पता चलता है। पुलिस मानती है कि ऐसे हथियार पाकिस्तान में प्रशिक्षित आतंकवादी ही इस्तेमाल कर सकते हैं। यह स्थानीय और नौसिखुवे नहीं कर सकते।
हत्या में जो शामिल थे, वे सुजात बुखारी को न जानते थे और न पहचानते थे। तभी तो रुककर अपने आकाओं से मालूम किया और तस्वीर की फिर से जांच की और तब वे दो तरफा हमले के लिए बढ़े। ये तीनों घटनाएं एक ही प्रवृत्ति की तीन अभिव्यक्तियां हैं। इन्हें अलग-अलग न देखें ।