मुथुवेल करुणानिधि जब पहली बार विधायक बने थे तो उस वक़्त जवाहरलाल नेहरू भारत के प्रधानमंत्री थे.
जब वे पहली बार तमिलनाडु के मुख्यमंत्री बने तो उस समय भारत की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी थीं.
जब वे तीसरी बार मुख्यमंत्री बने तो प्रधानमंत्री की कुर्सी पर राजीव गांधी विराजमान थे.
जब वे चौथी बार मुख्यमंत्री बने तो देश में पीवी नरसिम्हा राव की सरकार थी.
और जब करुणानिधि जब पांचवीं बार मुख्यमंत्री बने तो मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री थे.
डीएमके यानी द्रविड़ मुनेत्र कड़गम के पितृपुरुष करुणानिधि के लिए राजनीति का उतार-चढ़ाव छह दशकों में बच्चों का खेल बन चुका था.
पेरियार के समर्थक
यहां तक कि 90 साल की उम्र में भी पार्टी कामकाज के लिए उनमें जितना जोश दिखा, वैसा भारत के राजनीतिक आकाश में किसी और में नहीं दिखता.
सत्ता के लिए गणित बैठाने की रणनीति का लोहा तो उनसे आधी उम्र के लोग भी मानते थे.
जीवन के नौ दशक बिताने के बाद साल 2016 में जब उन्होंने तमिलनाडु विधानसभा के चुनाव प्रचार की कमान संभाली तो उनके विरोधी दंग रह गए.
करुणानिधि जातिवाद और सामाजिक भेदभाव के ख़िलाफ़ संघर्ष करने वाले सामाजिक सुधारवादी पेरियार के पक्के समर्थक थे.
वो सामाजिक बदलाव को बढ़ावा देने वाली ऐतिहासिक और सामाजिक कथाएं लिखने के लिए लोकप्रिय हो रहे थे.
और अपनी इसी कहानी कथन प्रतिभा का इस्तेमाल उन्होंने तमिल सिनेमा में किया.
तमिल फ़िल्म ‘पराशक्ति’
साल 1952 में तमिल फ़िल्म ‘पराशक्ति’ आई. इस फ़िल्म में शिवाजी गणेशन पर्दे पर पहली बार उतरे और ये बेहद कामयाब रही.
इस फ़िल्म का एक सीन मिसाल बन गया जिसके जरिए वो समाज में फैले अंधविश्वास को चुनौती दे रहे थे.
‘पराशक्ति’ तमिल सिनेमा के साथ-साथ करुणानिधि की ज़िंदगी का भी एक अहम मोड़ साबित हुई.
इस फ़िल्म ने द्रविड़ आंदोलन की विचारधारा का समर्थन किया और तमिल सिनेमा के दो प्रमुख अभिनेताओं शिवाजी गणेशन और एसएस राजेंद्रन से दुनिया को परिचित करवाया.
तमिल फ़िल्मों में काम करने की वजह से ही वो एमजी रामचंद्रन के नज़दीक आए जिन्हें एमजीआर के नाम से जाना जाता था.
तो तमिल सिनेमा के सफल पटकथा लेखक करुणानिधि के राजनीति में आने की कहानी क्या है?
राजनीति में आने की कहानी
इंडिया टुडे की पूर्व पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक वासंती कहती हैं, “वे फ़िल्मों के माध्यम से डीएमके की फिलॉसफ़ी लोगों तक पहुंचाते थे. डीएमके की लोकप्रियता भी बढ़ी. पराशक्ति के साथ बतौर पटकथा लेखक करुणानिधि को भी शोहरत मिली.
करुणानिधि की फ़िल्मों में एमजी रामचंद्रन ने काफी काम किया था. ये दोनों एक साथ काम करते थे लेकिन अन्नादुरैई के मरने के बाद करुणानिधि मुख्यमंत्री बन गए. उन्हें मुख्यमंत्री बनाने में एमजीआर ने भी मदद की थी. लेकिन बाद में दोनों के बीच कुछ मतभेद पैदा हो गए.
एमजीआर और करुणानिधि के बीच सियासी तल्खियां बढ़ी. एमजीआर ने करुणानिधि पर भ्रष्टाचार का आरोप लगाया और सवाल उठाए जिससे करुणानिधि नाराज़ हो गए और उन्हें पार्टी से निकाल दिया. उस ज़माने में एमजीआर एक बेहद लोकप्रिय अभिनेता थे.
उन्होंने अन्नाद्रमुक नाम से दूसरी पार्टी बना ली. इसके बाद हुए चुनाव में एमजीआर ने जीत हासिल की. एमजीआर की लोकप्रियता कुछ ऐसी थी कि करुणानिधि अगले 13 साल तक दोबारा मुख्यमंत्री नहीं बन सके. एमजीआर की मौत के बाद ही करुणानिधि फिर सत्ता में आ पाए.”
पेरियार के समाज सुधार आंदोलन का समर्थन, हिंदी विरोध का झंडा और श्रीलंकाई तमिलों के मुद्दे को लेकर चले करुणानिधि तमिलनाडु की राजनीति करते रहे.
तमिलनाडु की राजनीति पर नज़र रखने वाले वरिष्ठ पत्रकार एमआर नारायणस्वामी कहते हैं, “एक ज़माना था जब वे तमिलनाडु के अलगाववादी गुटों से संबंध बनाने की कोशिश कर रहे थे लेकिन एमजीआर से प्रभावित प्रभाकरण उनके क़रीब आने के लिए तैयार नहीं हुए. करुणानिधि इससे नाराज़ भी हुए लेकिन वे कुछ कर नहीं पाए.”
“एक समय ऐसा भी आया जब प्रभाकरण ने बाक़ी सभी तमिल गुटों को खत्म कर डाला जिनमें करुणानिधि के क़रीबी गुट के लोग भी शामिल थे. लेकिन करुणानिधि ने इस ख़ूनख़राबे का कभी कोई खंडन नहीं किया. उसके बाद जब एमजीआर का निधन हो गया और श्रीलंका में लिट्टे और भारत की शांति सेना के बीच लड़ाई शुरू होने के बाद करुणानिधि का प्रभाकरण की तरफ़ झुकाव हुआ. ये वो वक्त था जब हिंदुस्तान प्रभाकरण के ख़िलाफ़ हो चुका था.”
“एमजीआर प्रभाकरण के साथ उस समय खड़े थे जब ऐसा लगता था कि पूरा भारत प्रभाकरण के पक्ष में है. ये एमजीआर और करुणानिधि के बीच भारी फर्क था. इसी वजह से जब करुणानिधि की सरकार जनवरी, 1991 में बर्खास्त की गई तो यही दलील दी गई थी कि द्रमुक सरकार में लिट्टे के लोग तमिलनाडु में बहुत सक्रिय हो गए थे. ये बात काफी हद तक सही भी निकली क्योंकि इसी दौरान राजीव गांधी की तमिलनाडु में हत्या हो गई.”