कर्जमाफी किसानों की समस्या का हल नहीं

डॉ  भरत झुनझुनवाला

आठ साल पहले केंद्र की मनमोहन सिंह सरकार ने राष्ट्रीय स्तर पर किसानों का कर्ज माफ किया था। अब उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने प्रदेश में किसानों की कर्ज माफी की है। दस वर्षों से भी कम अंतराल में किसानों का कर्ज दोबारा माफ करना पड़ा है। यह दर्शाता है कि मौजूदा व्यवस्था में किसान कर्ज लेते रहेंगे और सरकारें उसे माफ करती रहेंगी। कर्ज माफी किसान की समस्या का निदान नहीं है। यह कुछ वैसा है मानो कैंसर के मरीज को सिरदर्द की गोली दी जा रही हो। किसान इसलिए कर्ज अदा नहीं कर पाते, क्योंकि उनकी आमदनी कम है। दूसरी ओर सरकार की आर्थिक समीक्षा के अनुसार किसान की आय बढ़ रही है। समीक्षा के अनुसार 2005 से 2014 के दौरान सभी वस्तुओं के मूल्य का सूचकांक 100 से बढ़कर 180 हो गया। इस दौरान खाद्यान्नों के मूल्य का सूचकांक 100 से चढ़कर 231 हो गया। यानी सभी वस्तुओं की तुलना में खाद्यान्न की कीमतों में अपेक्षाकृत अधिक वृद्धि हुई है। किसान की लागत जरूरी बढ़ी है, लेकिन उसके बनिस्बत आमदनी में ज्यादा इजाफा हुआ है। ऐसे में यह विडंबना ही है कि आय बढ़ने के बावजूद किसान कर्ज के बोझ तले दबते जा रहे हैं। हैरानी की बात है कि किसान पर कर्ज खेती के कारण नहीं बढ़ रहा है। जानकारों के अनुसार किसान बेटी के विवाह, मकान, वाहन और अन्य कई निजी जरूरतों पर कर्ज की राशि खर्च करते हैं। चूंकि आमतौर पर बैंक उन्हें इन जरूरतों के लिए कर्ज नहीं देते तो वे बीज, खाद या फसली कर्ज के नाम पर कर्ज लेकर इन जरूरतों को पूरा करते हैं। आय की तुलना में किसान की जरूरतें ज्यादा तेजी से बढ़ रही हैं। पहले किसान पैदल चलता था। आय बढ़ी तो साइकिल खरीदने में सक्षम हो गया, मगर उसकी जरूरत बाइक खरीदने की हो गई है। इसकी पूर्ति वह कर्ज से करता है। आमदनी के अभाव में कर्ज अदा हो नहीं पाता। साइकिल की हैसियत में बाइक की सवारी उस पर भारी पड़ती है। किसान का कोई दोष नहीं है। वह भी शहरों जैसी आधुनिक जीवनशैली के मोहपाश में फंसा है। शहरी लोग बाइक चलाएं और किसान की बेटी साइकिल से स्कूल जाए, यह उसे गवारा नहीं। होना भी नहीं चाहिए। गांव और शहर के बीच बढ़ती खाई भी किसान पर बढ़ते कर्ज का एक पहलू है।

 

कृषि विशेषज्ञ देविंदर शर्मा के अनुसार 1970 से 2015 के बीच कृषि उत्पादों के समर्थन मूल्य में 20 गुने का इजाफा हुआ है। इसके मुकाबले सरकारी कर्मियों के वेतन में 120 गुना वृद्धि हुई है। आय का यह असंतुलन किसान के कर्ज का कारण है। सरकार की सोच है कि उत्पादन बढ़ाने से किसान की आय बढ़ाई जा सकती है। सरकार द्वारा मृदा स्वास्थ्य कार्ड, फसल बीमा, कर्ज पर सब्सिडी, ड्रिप सिंचाई, सड़कें और कोल्ड स्टोरेज जैसी योजनाएं चलाई जा रही हैं। बीते 70 सालों से यह सिलसिला जारी है, फिर भी उत्पादन बढ़ने से किसान की आमदनी में अपेक्षित वृद्धि का लक्ष्य हासिल नहीं हुआ। ऐसे में मौजूदा सूरतेहाल में भी उत्पादन बढ़ाने से आय में वांछित वृद्धि नहीं हो पाएगी। बढ़े उत्पादन के साथ और भी समस्याएं जुड़ी हैं। मसलन उसकी खपत कहां हो? देश में उनका उपभोग सीमित है। अक्सर सुनने को मिलता है कि बंपर फसल होने के कारण भारतीय खाद्य निगम के गोदाम में भी भंडारण के लिए जगह कम पड़ जाती है और अनाज खुले में सड़ने पर मजबूर होता है। निर्यात से भी इसका हल नहीं हो सकता। संयुक्त राष्ट्र के खाद्य एवं कृषि संगठन के मुताबिक 2011 में खाद्य पदार्थों के मूल्य का वैश्विक सूचकांक 229 था जो 2016 में घटकर 151 रह गया। अंतरराष्ट्रीय बाजार में खाद्यान्न के दाम गिर रहे हैं। इन गिरते मूल्यों के कारण खाद्यान्न का निर्यात करने के लिए सरकार को निर्यात सब्सिडी देनी होगी, लेकिन डब्ल्यूटीओ के नियमों में निर्यात सब्सिडी पर प्रतिबंध है। ऐसे में बढ़े उत्पादन को अंतत: घरेलू बाजार में ही बेचना होगा। इससे दाम गिरेंगे। बढ़ता उत्पादन हमारे किसानों के लिए ही अभिशाप बन गया है जैसा कि बीते दिनों किसानों को मजबूरन आलू सड़कों पर फेंकना पड़ा था।

 

कुल मिलाकर उत्पादन बढ़ाकर किसान की आय नहीं बढ़ाई जा सकती, क्योंकि बढ़े उत्पादन को खपाने का कोई विकल्प उपलब्ध नहीं है। जैसे बाढ़ का पानी नहीं निकल पाने के कारण लोग डूबते हैं उसी तरह कृषि उत्पादन का निस्तारण न होने की वजह से किसान कर्ज में डूब रहे हैं। इस समस्या का हल कृषि के दायरे मे उपलब्ध है ही नहीं। केवल खेती से किसान की आय नहीं बढ़ाई जा सकती है। इस समस्या का एक समाधान यह हो सकता है कि किसान को भूमि के आधार पर सब्सिडी दी जाए। अमेरिका में किसानों को भूमि परती छोड़ने के एवज में सब्सिडी दी जाती है। इससे उन्हें ठीक-ठाक आमदनी हो जाती है। ऐसे में शेष उत्पादन को औने-पौने दाम पर बेच कर भी वे बाइक खरीद पाते हैं। इस पद्धति को हम भी अपना सकते हैं। देश में लगभग दस करोड़ किसान हैं जिनमें सात करोड़ के पास एक एकड़ से कम भूमि है। प्रारंभ मे इन्हे 6,000 रुपये प्रतिवर्ष की सब्सिडी दी जा सकती है। सरकार को इस पर 42,000 करोड़ रुपये सालाना खर्च करने होंगे जो वर्तमान में मनरेगा पर किए जा रहे खर्च के बराबर है। इस सब्सिडी से किसान को सीधे राहत मिलेगी। वह किस्त पर बाइक खरीद सकेगा। इसमें खास बात यही है कि उसके उत्पादन कम करने से बाजार में कृषि उत्पादों के दाम बढ़ेंगे और परिणामस्वरूप किसान की आय बढ़ेगी। इसके उलट हमने यही देखा कि उत्पादन बढ़ने से दाम घटते हैं और किसान की आय कम होती है। वहीं उत्पादन कम होने से बाजार में वस्तुओं की आपूर्ति कम होती है तो दाम बढ़ते हैं जिससे किसानों की आय बढ़ सकती है। आय बढ़ाने के लिए उत्पादन का एक विशेष स्तर कारगर होता है जैसे स्वास्थ सुधार के लिए घी की एक निश्चित मात्रा उपयुक्त होती है। इस विशेष स्तर से अधिक उत्पादन और इस स्तर से कम उत्पादन दोनों ही किसान के लिए नुकसानदेह होते हैं। फिलहाल तो सरकार पर दबाव यही है कि उत्पादन बढ़ाकर ही किसानों का कल्याण किया जाए, लेकिन असल में उत्पादन घटाकर ही किसानों के हित साधे जा सकते हैं।

 

कृषि क्षेत्र में हमारी नीति में मौलिक बदलाव की जरूरत है। किसान की इच्छा है कि वह भी सरकारी-निजी नौकरीपेशा लोगों की तरह बाइक पर घूमे। इस हसरत में कोई बुराई नहीं, लेकिन इसके लिए उसकी आय में वृद्धि जरूरी है, मगर उत्पादन वृद्धि को प्रोत्साहन देकर हम किसान को समाधान के बजाय संकट की ओर ही धकेल रहे हैं। वक्त का तकाजा तो यही कहता है कि किसानों को भूमि पर सीधे सब्सिडी दी जाए ताकि उन पर उत्पादन बढ़ाने का दबाव कम हो। उत्पादन घटेगा तो कृषि उत्पादों के दाम भी बढ़ेंगे। किसान को सीधे सब्सिडी मिलेगी और बढ़े हुए दाम भी। तब वह भी खुशहाल हो सकता है।
[ लेखक वरिष्ठ अर्थशास्त्री एवं आइआइएम बेंगलुरु के पूर्व प्रोफेसर हैं ]
सौजन्य – दैनिक जागरण।

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