भारत का खाकर पाकिस्तान का गीत गाने वाले अलगाववादी संगठनों पर केंद्र की कार्रवाई से नेकां व पीडीपी में जिस तरह की बौखलाहट है, उससे साफ है कि केंद्र की बदली हुई कश्मीर नीति सही दिशा की ओर अग्रसर है।
कश्मीर घाटी की राजनीति कितनी विषाक्त हो गई है यह नेशनल कांफ्रेंस और पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी के नेताओं के हाल के बयानों से जाना जा सकता है। 14 फरवरी को पुलवामा में सीआरपीएफ पर हुए हमले के बाद केंद्र ने अपना रूख कड़ा किया और कश्मीर घाटी में अलगाववादी तत्वों की नकेल कसी गई। इस क्रम में सौ से अधिक अलगाववादी पकड़े गए, अलगाववादी संगठनों की संपत्तियां जब्त कर ली गईं और पहले 26 फरवरी को जमात-ए-इस्लामी (कश्मीर) पर पाबंदी लगाई गई, उसके कुछ दिन बाद जम्मूकश्मीर लिबरेशन फ्रंट को भी प्रतिबंधित कर दिया गया।
पुलवामा में जैश-ए-मोहम्मद के हमले का हिसाब चुकाने के लिए भारत के लड़ाकू विमानों ने पाकिस्तान की सीमा में घुसकर बालाकोट में जैश-ए-मोहम्मद के एक पांच सितारा प्रशिक्षण शिविर को ध्वस्त कर दिया। उसके बाद से पूरा देश भारतीय सेना की बहादुरी और केंद्र सरकार की दृढ़ता की तारीफ कर रहा है। लेकिन कश्मीर के नेताओं को बालाकोट की कार्रवाई पड़ोसी पाकिस्तान पर हमला नजर आ रही है। फारूक अब्दुल्ला से लगाकर महबूबा मुफ्ती तक बालाकोट की कार्रवाई की आलोचना कर चुके हैं। उन्होंने पुलवामा में किए गए हमले की निंदा में उतनी फुर्ती नहीं दिखाई जितनी बालाकोट की कार्रवाई की आलोचना में। अब महबूबा मुफ्ती ने जमायते इस्लामी पर पाबंदी की आलोचना शुरू की है। वे अपने भाषणों में कह रही हैं कि वे सत्ता में आईं तो जमायते इस्लामी पर प्रतिबंध उठा लिया जाएगा। नेशनल कांफ्रेंस जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट पर प्रतिबंध को राजनैतिक मुद्दा बना रही है। उमर अब्दुल्ला ने कहा है कि उनकी सरकार बनी तो जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट से प्रतिबंध हटा लिया जाएगा।
उल्लेखनीय है कि यह दोनों संगठन विद्रोही गतिविधियों में लिप्त हो लंबे समय से हिंसा का सहारा लेते रहे हैं। बहरहाल, नेशनल कांफ्रेंस और पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी के नेता जिस तरह की राजनीति कर रहे हैं उससे कश्मीर घाटी अशांत बनी रहेगी। इन दोनों दलों के नेता खुलेआम जिस तरह अलगाववादी संगठनों का समर्थन करते हैं, उसकी कोई स्वीकृति देश की राजनीति में नहीं होनी चाहिए। लेकिन कांग्रेस और दूसरे विपक्षी दलों ने देशहित से अधिक मोदी विरोध को अपनी राजनीति का आधार बना लिया है। इसलिए देश की सुरक्षा और अखंडता के मुद्दों पर भी देश में राजनैतिक सर्वानुमति नहीं बन पाती। यह दिलचस्प है कि नेशनल कांफ्रेंस को जमातेइस्लामी पर प्रतिबंध उतना नहीं अखरा, जितना जम्मू-कश्मीर नेशनल फ्रंट पर। उसी तरह महबूबा मुफ्ती जमाते-इस्लामी का जिस तरह पक्ष ले रही हैं, जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट का नहीं।
इसका कारण यह है कि जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट ने महबूबा मुफ्ती की बहन रूबिया सईद का अपहरण करके अपने गिरफ्तार साथियों को छुड़वाया था और सईद परिवार पर सदा के लिए धब्बा लगा दिया था। दरअसल विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार में गृह मंत्री बनाये गये मुफ्ती मोहम्मद सईद देश के पहले मुस्लिम गृहमंत्री थे। चार दिन बाद ही जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट ने रूबिया सईद का अपहरण कर लिया। उनकी मांगों के सामने विश्वनाथ प्रताप सिंह सरकार झुक गई और गृहमंत्री की बेटी को बचाने के लिए आतंकवादियों को छोड़ दिया गया। उन दिनों जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट को पाकिस्तान की आईएसआई से प्रेरणा और प्रशिक्षण मिल रहा था। बाद में पाकिस्तान ने लिबरेशन फ्रंट से अपने हाथ खींच लिए। क्योंकि फ्रंट कश्मीर के पाकिस्तान में विलय की नहीं, स्वतंत्र होने की मांग कर रहा था। तब तक पाकिस्तान दूसरे आतंकवादी संगठन खड़े कर चुका था।
उसके बाद भी जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट के मुखिया यासीन मलिक पाकिस्तान के नेताओं की परिक्रमा करते रहे। लश्कर-ए-तैयबा के मुखिया हाफिज सईद के साथ एक मंच पर भी दिखाई दिए। दुनियाभर में घूमकर वे कश्मीर को आजाद करने की मुहिम चलाते रहे और भारत की पिछली सरकारें यह सब देखती रहीं। जमाते-इस्लामी तो शुरू से खुलकर कश्मीर के पाकिस्तान में विलय की वकालत करती रही है। 1953 में जमात के कश्मीरी नेताओं ने पाकिस्तान के सवाल पर अपने राष्ट्रीय नेताओं से मतभेद होने के कारण अपने संगठन को राष्ट्रीय संगठन से अलग कर लिया। तब से जमाते-इस्लामी (कश्मीर) अपनी अलगाववादी मुहिम में लगा रहा है। कश्मीर घाटी में वहाबी विचारधारा फैलाने का श्रेय काफी कुछ जमाते-इस्लामी को जाता है। 1947 में जब पाकिस्तान ने कबाइली और अपने सैनिक भेजकर कश्मीर को भारत से अलग करने की कोशिश की थी तो पाकिस्तान को यह देखकर आश्चर्य हुआ था कि मुस्लिम बहुल कश्मीर घाटी में नाम मात्र को भी पाकिस्तान समर्थक उबाल पैदा नहीं हुआ। दरअसल कश्मीर घाटी के मुसलमानों में सदा बरेलवियों की प्रधानता रही है। बरेलवी सूफी परंपरा को मान्यता देते हैं और वे पीर औलिया आदि के मजार पर जाने को इस्लाम के विरुद्ध नहीं समझते। जमात के नेता बरेलवी मत को इस्लाम विरुद्ध मानते थे। उन्होंने मुसलमानों को सलाफी इस्लाम की ओर धकेला। जमात के नेता मौलाना मौदूदी से प्रभावित थे और वे मानते थे कि पाकिस्तान में ही एक इस्लामी राज्य कायम हो सकता है।
शिक्षा आदि के जरिये अपना तंत्र खड़ा करने के लिए उन्होंने फलाह-ए-आम ट्रस्ट बनाया था। वे एक तरफ हिंसा और दूसरी तरफ चुनाव सब तरीकों का इस्तेमाल करते रहे। लेकिन घाटी के आम लोगों पर उनका अधिक असर नहीं था। 1979 में सत्ता में आने पर जिया उल हक ने जब जुल्फिकार अली भुट्टो को फांसी पर चढ़वाया था तो कश्मीर घाटी में जमात के दμतर और संस्थानों पर कश्मीरी मुसलमानों के द्वारा खूब हमले हुए थे। तीन दिन तक यह हमले होते रहे और जमात की संपत्ति को व्यापक नुकसान पहुंचा। घाटी के मुसलमानों को लगता था कि जमात-ए-इस्लामी पाकिस्तान के प्रभाव में जिया उल हक ने भुट्टो को फांसी पर चढ़ाया है। इससे स्पष्ट है कि कश्मीर घाटी में वहाबी मत के लिए अधिक समर्थन नहीं था और लोग बरेलवी मत को ही प्रधानता देते थे। ेंद्र सरकार के ढुलमुल रवैये के कारण कश्मीर घाटी में अलगाववादी ऐसा माहौल बनाने में सफल रहे हैं कि आज कश्मीर घाटी देश की मुख्य धारा से कट सी गई दिखाई देती है। कश्मीर से जिस तरह कश्मीरी पंडितों का पलायन करवाया गया उससे ही पूरे देश की आंख खुल जानी चाहिए थी। लेकिन दिल्ली में बैठे नेता और अफसर दृढ़ता दिखाने से बचते रहे और पाकिस्तान द्वारा भेजे जाने वाले आतंकवादी यह डर फैलाने में सफल रहे कि घाटी में वही सुरक्षित रह सकता है जो जेहादियों की तरफदारी करे। इसका श्रेय जम्मू-कश्मीर की पुलिस और भारतीय सेना को जाता है कि उसने घाटी में आतंकवादियों का मंसूबा पूरा नहीं होने दिया।
जमाते-इस्लामी पर पहले भी पाबंदी लग चुकी है लेकिन अलगाववाद के प्रति जो सख्ती दिखाई जानी चाहिए वह पिछली केंद्र या राज्य सरकारों ने नहीं दिखाई। इसलिए जमात और लिबरेशन फ्रंट के नेता जेल के भीतर और बाहर होते रहे। इस बार केंद्र सरकार का रूख कड़ा दिखाई देता है। वह अलगाववादी और आतंकवादी शक्तियों को अनेक तरह से घेरने में लगी है। इस नीति में फिर से ढील देने की गलती अब नहीं होनी चाहिए। यह चुनाव का समय है और चुनाव में सभी दल और नेता पक्ष-विपक्ष में बंटे रहते हैं। जब तक चुनाव संपन्न नहीं हो जाते और एक नई तथा मजबूत सरकार नहीं बन जाती, तब तक देश में कश्मीर संबंधी नीति को लेकर कोई सर्वानुमति नहीं बनाई जा सकती। लेकिन आम चुनाव संपन्न हो जाने के बाद हमारी राजनीति की कुछ मर्यादाएं तय होनी चाहिए। देश की सुरक्षा और अखंडता को लेकर यह मर्यादा रहनी चाहिए कि किसी दल या नेता को ऐसी कोई बात कहने की छूट नहीं होगी जो देशहित के विपरीत जाती हो। कश्मीर पर किसी को पाकिस्तान की भाषा बोलने की इजाजत नहीं दी जा सकती। इस तरह की मर्यादाएं जनमत को जगाकर ही तय की जा सकती है। देश के लोगों में यह जागरूकता होनी चाहिए कि वे विद्रोह की भाषा बोलने वाले लोगों, नेताओं और संगठनों को बर्दाश्त नहीं करेंगे और राज्य को उनके खिलाफ कार्रवाई के लिए मजबूर करेंगे।
नेशनल कांफ्रेंस और पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी के नेता जिस तरह खुलेआम अलगाववादी संगठनों का समर्थन करते हैं, उसकी कोई स्वीकृति देश की राजनीति में नहीं होनी चाहिए। लेकिन कांग्रेस और दूसरे विपक्षी दलों ने देशहित से अधिक मोदी विरोध को अपनी राजनीति का आधार बना लिया है।
यह कितना बड़ा मजाक है कि इस्लामी राज्य की वकालत करने वाले जमाते-इस्लामी और जम्मू-कश्मीर नेशनल फ्रंट के पक्ष में तथाकथित सेक्यूलर दल और नेता अक्सर खड़े दिखाई देते हैं। इस तरह की राजनीति पर विराम लगना चाहिए। केंद्र सरकार की बदली हुई कश्मीर नीति सही दिशा में उठाया गया कदम है। कश्मीर घाटी के राजनीतिक खलयनायकों को यह नीति अखर रही है। उन्हें इसकी बाधा बनने का अवसर नहीं मिलना चाहिए।