भारत का प्रथम स्वाधीनता संग्राम सन् 1857 में लड़ा गया। अंगे्रजों के औपनिवेशिक शासन के विरुद्ध यह पहला संगठित महासमर था। इसका वेग प्रबल था, स्वरूप व्यापक और स्वतंत्रता प्राप्ति के लक्ष्य के अनुरूप ही इसके बलिदान भी महान् थे। भारतीय समाज के विभिन्न वर्गों ने कंधे-से-कंधा मिलाकर औपनिवेशिक दासता का जबरदस्त प्रतिरोध किया था। किसानों, सैनिकों, मध्यवर्गीय तबकों तथा कुछ देशी रियासतें ने एकजुट होकर से स्वाधीनता संग्राम में ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा किए जा रहे शोषण व अत्याचार के विरुद्ध स्वाधीनता संघर्ष की मशाल प्रज्जवलित की थी। अपनी इन्हीं विशेषताओं के कारण 1857 का प्रथम स्वाधीनता संग्राम हमारे इतिहास की एक युगांतरकारी परिघटना बन गया।इस महासमर के नायकों में अजीमुल्ला, तात्यां टोपे, नाना साहब, मंगल पांडे, बहादुरशाह जफर तथा झांसी की रानी लक्ष्मीबाई जैसे कुछ नाम भारत के इतिहास में स्वर्णाक्षरों मे अंकित हैं।
जैसाकि हमने कहा औपनिवेशिक शासन के विरुद्ध यह पहला संगठित महासमर था, लेकिन विदेशी दासता से मुक्ति के लिए लड़े गए इस महासमर की शुरुआत 1773 में हुए ‘संन्यासी विद्रोह’ के साथ ही हो चुकी थी। उसके बाद अनेक छोटे-मोटे सशस्त्र संघर्ष हुए। यह इतिहास की विडंबना ही है कि 1857 के पहले लड़े संग्रामों के देशभक्त नायकों व बलिदानी वीरांगनाओं का उल्लेख हमारे इतिहास में महत्वपूर्ण ढंग से नहीं हो पाया।भारत के स्वाधीनता संग्राम की ऐसी ही एक बलिदानी वीरांगना थी कित्तूर की रानी चेनम्मा; जिसकी शौर्यगाथा के ओजस्वी स्वरों की झनकार आज भी कन्नड़ भाषा की लोककथाओं और लोकगीतों में गूंजती है।
कर्नाटक राज्य में बेलगांव के दक्षिण तथा धारवाड़ के उत्तर में कित्तूर एक छोटी सी रियासत थी। चेनम्मा इसी रियासत की महरानी थी। चेनम्मा का जन्म बेलगांव के उत्तर में दस किलोमीटर दूर बसे काकती नामक एक गांव में सन् 1788 में हुआ। उनका परिवार एक प्रतिष्ठित देसाई परिवार था, एक छोटा-मोटा जमींदार घराना पिता का नाम धुकप्पा गौडा तथा माता का नाम पद्मावती था। गौडा दंपत्ति की पुत्री जन्म से ही बहुत सुंदर थी। कन्नड़ भाषा में ‘चन्ना’ का अर्थ होता है सुंदर, इसीलिए सका नाम चेनम्मा रखा गया।
अठारहवीं शताब्दी का उत्तरार्ध दक्षिण भारत में राजनीतिक उथल-पुथल का दौर था। अंग्रेज, फ्रेंच और पुर्तगाली भारत में अपना प्रभुत्व स्थापित करने का प्रयत्न कर रहे थे। जिसको जहां अवसर मिलता, वह वहीं भारतीय रियासतों को हथियाने के कुचक्र में लग जाता। मुगल शासन धीरे-धीरे कमजोर होता जा रहा था। देशी शासकों में मैसूर के हैदर अली और टीपू सुल्तान, महाराष्ट्र के पेशवा, बीजापुर के आदिलशाह तथा हैदराबाद के निजाम भी अपनी सत्ता के विस्तार में लगे थे। इस प्रक्रिया में छोटी रियासतें अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए कभी किसी एक तो कभी किसी दूसरे से मित्रता कर लेती। राजनीतिक उथल-पुथल के इसी दौर में सन् 1782 में राजा मल्लसर्ज ने कित्तूर जैसी छोटी सी रियासत का शासन संभाला।
कित्तूर उस समय पुणे के प्रतापी मराठा शासक पेशवा के समग्र अधिकार में था। सन् 1809 में मललर्स ने पेशवा के साथ एक करार किया, जिसके अनुसार उसे पेशवा को प्रतिवर्ष एक लाख पचहत्तर हजार रुपये का ‘नजराना’ चुका कर कित्तूर पर अपना शासन बनाए रखने तथा अपनी सेवा रखने का अधिकार मिल गया था। मल्लसर्ज एक बहादुर, देशभक्त, स्वाभिमानी, प्रजापालक और कला-प्रेमी शासक था। मल्लसर्ज के शासन में कित्तूर उद्योग, खनिज और व्यापार के क्षेत्र में एक प्रगतिशील एवं संपन्न राज्य बनता जा रहा था। बेलहोंगल, संपगांव, देसनूर तथा कित्तूर जैेसे शहर प्रमुख व्यापारिक केंद्र के रूप में उभर रहे थे। कित्तूर ने अपनी एक टकसाल भी स्थापित कर ली थी। उद्योगो के साथ ही नृत्य-संगीत व ललित कलाओं का भी विकास हुआ। कित्तूर रियासत की बढ़ती संपन्नता के साथ ही अंग्रेजों और बड़े देशी रजवाड़ों की लोलुप निगाहें भी कित्तूर पर लगी हुई थीं।इसी दौरान जंगल में शिकार करते हुए मल्लसर्ज क मुलाकात चेनम्मा से हुई। मल्लसर्ज पहली ही नजर में चेनम्मा पर मोहित हो गया और उसके पिता धुकप्पा गौडा के पास विवाह का प्रस्ताव भिजवा दिया।
धुकप्पा के लिए इससे अधिक प्रसन्नता की बात क्या हो सकती थी कि उसकी बेटी मल्लसर्ज जैसे वीर एवं प्रजापालक शासक की पत्नी बने! उसने सहर्ष स्वीकृति दे दी। मल्लसर्ज की पहले भी एक शादी हो चुकी थी। पहली पत्नी रुद्रम्मा कित्तूर के पास ही तल्लूर गांव के एक संपन्न घराने की बेटी थी। रुद्रम्मा पारिवारिक रुझान की एक अत्यंत शालीन महिला थी। उसने बड़ी बहन की तरह चेनम्मा का स्वागत किया। दोनों में सौतिया डाह या बैर-विद्वेष की कोई भावना नहीं थी। रानी रुद्रम्मा घर-परिवार का ध्यान रखतीं और चेनम्मा प्रशासन, सैन्य संचालन तथा राज्य के कल्याण की योजनाओं में मल्लसर्ज को सहयोग देती थी।
सत्रहवीं सदी के अंत में कर्नाटक, आंध्र, मैसूर तथा महाराष्ट्र में अभूतपूर्व राजनीतिक उथल-पुथल के बीच बीजापुर की आदिलशाही और हैदराबाद की निजामशाही के पराभव तथा सन् 1799 में टीपू की पराजय व मृत्यु के बाद पूरे क्षेत्र में ईस्ट इंडिया कंपनी का दबदबा काफी बढ़ गया। अब राजनीतिक परिदृश्य पर दो प्रमुख शक्तियां आमने-सामने थीं-ईस्ट इंडिया कंपनी और मराठा शासक पेशवा। छोटी-छोटी रियासतें इन्हीं दो प्रमुख शक्तियों के बीच अपने अस्तित्व की रक्षा करने में लगी थीं।
बदले राजनीतिक समीकरणों के बीच पूणे के पेशवा और कित्तूर राजघराने के बीच विरोध पैदा हुआ और पेशवा ने मल्लसर्ज को पूर्ण बुलाकर धोखे से कैद कर लिया। मल्लसर्ज दुर्ग में कैदखाने में रखा गया था। तीन वर्ष तक कैद में रहने पर मल्लसर्ज का स्वास्थ्य काफी बिगड़ गया। कैद में यदि मल्लसर्ज की मृत्यु हो गई तो बड़ी बदनामी होगी और अन्य छोटे राजघराने नाराज भी हो सकते हैं, इसी भय से पेशवा ने उसे छोड़ दिया। अस्वस्थ मल्लसर्ज कित्तूर पहुंचा। वहां उसका भव्य स्वागत किया गया। प्रजा अपने प्रिय राजा को देखकर बहुत खुश थी। दुर्भाग्य से कुछ ही दिनों बाद मल्लसर्ज की मृत्यु हो गई। उसकी मृत्यु के बाद पहली पत्नी रुद्रम्मा का बेटा शिवलिंग रुद्रसर्ज कित्तूर का शासक बना। रुद्रसर्ज की मृत्यु भी अल्पायु में ही हो गई। राज्य का शासन चलाने के लिए दूर के एक रिश्तेदार के बेट शिवलिंगप्पा उर्फ सवाई मल्लसर्ज को 1 सितंबर, 1924 को गोद लिया गया, पर शासन के संपूर्ण सूत्र-संचालन का कार्य रानी चेनम्मा के हाथों में ही था। कित्तूर पर नजर गड़ाए अंग्रेज अफसरों को लगा कि एक महिला क्या शासन संभालेगी। अतः अब कित्तूर को हथियाया जा सकता है।
धारवाड़ को उन दिनों अंग्रेजअुसरों ने अपना मुख्यालय बना रखा था। धारवाड़ के कलेक्टर सेंट जाॅन थेकरे की गिद्ध-दृष्टि कित्तूर पर लगी हुई थी। उसने सुन रखा था कि कित्तूर के खजाने में अथाह धनराशि है। उसे कित्तूर पर आक्रमण करने के लिए किसी उचित अवसर की तलाश थी। रानी चेनम्मा द्वारा शिवलिंगप्पा को गोद लेने से थेकरे को एक बहाना मिल गया। उसने फरमान जारी कर दिया कि यह दत्तक-विधि कंपनी सरकार को मंजर नहीं है। उस समय गोद लेने से पहले कलेक्टर की अनुमति लेने का कानून नहीं था। यह कानून बहुत बाद में लाॅर्ड डलहौजी ने 1854 में बनाया था। रानी ने थेकरे के इस फरमान की अवहेलना कर दी। थेकरे तिलमिला गया। उसने अपने सहयोगी स्टिफंस और इलियट को वार्ता के लिए भेजा, पर कित्तूर का कोई अधिकारी वार्ता के लिए नहीं आय। थेकरे ने स्वयं रानी से मिलना चाहा पर रानी चेनम्मा ने उससे मिलने से इनकार कर दिया। इस अपमान पर क्रोधित होकर थेकरे ने युद्ध की घोषणा कर दी। रानी ने भी युद्ध की तैयारी की तथा संगोली रायण्णा और गुरु सिंहप्पा जैसे विश्वस्त सेनानायकों के सााथ परामर्श करके किले की सुरक्षा की व्यवस्था की। युद्ध-संचालन का दायित्व स्वयं रानी ने संभाला।
युद्ध से पूर्व सैनिक वेश में रानी चेनम्मा ने अपने सैनिकों को संबोधित किया और कहा कि ‘हमें अपना कित्तूर फिरंगियों को नहीं सौंपना है। कित्तूर के स्वाभिमान की रक्षा के लिए हम अंतिम सांस तक लड़ेंगे।’ रानी के ओजस्वी संबोधन के साथ ही ‘हर-हर महादेव’ की गर्जना करते हुए सैनिकों ने तलवारें भांज लीं।दूसरे दिन थेकरे ने किले के मुख्य द्वार पर तोप से हमला कर दिया। घनघोर युद्ध हुआ। एक सरदार की गोली से कलेक्टर थेकरे ढेर हो गया। इस युद्ध में अंग्रेजी सेना पराजित हुई।
23 अक्तूबर, 1824 को रानी चेनम्मा की इस विजय ने एक नया इतिहास रच दिया। अंग्रेजी फौज को भी पराजित किया जा सकता है, इस विश्वास के साथ प्रजा ने अपनी रानी का अभूतपूर्व स्वागत-अभिनंदन किया। रानी जानती थी कि अंग्रेज अपनी इस पराजय का बदला लेने के लिए दोबारा आक्रमण जरूर करेंगे, इसलिए वह हमेशासजग रहती और घूूम-घूमकर युद्ध की तैयारियों को देखती रहती थी।
इस पराजय का बदला लेने के लिए अंग्रेजों ने लेफ्टिनेंट कर्नल डिकन के नेतृत्व में कित्तूर पर आक्रमण की पूरी तैयारी कर ली। फौज के अगले दस्ते में तोपखाना, पीछे अरब सैनिकों की कतार और उसके पीछे घुड़सवर दस्ते थे। अंत में गोरी पल्टन थी। एक छोटी सी रियासत पर आक्रमण के लिए इतनी भारी तैयारियों से जाहिर था कि कंपनी सरकार रानी चेनम्मा के शौर्य से काफी आतंकित थी।
1 व 2 दिसंबर 1824 को घमासान युद्ध हुआ, इन दो दिनों के युद्ध में किसी को निर्णायक विजय नहीं मिली। 3 दिसंबर को कित्तूर के किले पर तोपखाने से हमला शुरू हुआ। किले के पश्चिमी भाग की दीवार ढह गई। अंग्रेजी फौज की टुकड़ियां किले मंे घुसने लगीं। रानी के सैनिक जान लड़ाकर युद्ध करने लगे। रानी स्वयं सैनिक वेश में घोड़े पर सवार होकर रणभूमि में थी। तलवारों की झंकार के बीच शौर्य और तेज से दमकता रानी चेनम्मा का चेहरा उसके सैनिकों में अपूर्व जोश भर रहा था। रानी बिजली की तेजी से तलवार भांज रही थी। रानी के विश्वसीय सेनानायक गुरु सिंहप्पा ने भांप लिया कि विजय मुश्किल है। वह पलक झपकते ही शत्रु सैनिकों से जूझती रानी की सहायता के लिए पहुंच गया और कुछ सरदरों की सहायता से किले के पूर्वी द्वार से रानी को निकाल ले जाने का प्रयास करने लगा। अचानक बाहर की ओर से अंग्रेजी फौज की बड़ी टुकड़ी किले में घुस आईं रानी दोनों ओर से घिर गई। उसने अप्रतिम साहस से युद्ध किया पर अंत में गिरफ्तार कर ली गई। गुरु सिंहप्पा तथा अन्य सेनानायक भी पकड़ लिए गए। रानी चेनम्मा तथा उसके सौतेले बेटे शिवलिंग रुद्रसर्ज की विधवा पत्नी वीरप्पा को गिरफ्तारी के बाद बेलगांव के किले में कैद कर लिया गया। गुरु सिंहप्पा तथा अन्य सेनानायकों को फांसी पर लटका दिया गया। अंग्रेजी फौज ने कित्तूर में लूटमार शुरू कर दी। किले का खजाना और संपत्ति को अंग्रेजों ने लूट लिया। थेकरे की मृत्यु का बदला लेकर लेफ्टिनेंट कर्नल डिकन बहुत खुश था।
अंग्रेजों ने रानी के सामने क्षमा याचना करने तथा कंपनी सरकार की शरा में आने की पेशकश की। स्वाभिमानी और प्रचंड देशभक्त वीरांगना चेनम्मा ने अंग्रेजों की पेशकश ठुकरा दी।बैलहोंगल के किले में रानी चेनम्मा को कड़ी सुरक्षा व्यवस्था में कैद में रखा गया। कैदखाने में रानी को अपनी चिंता नहीं थी। उसे दुःख इस बात का था कि कित्तूर की प्रजा को अब अंग्रेजो के जुल्म और शोषण की यातना झेलन पड़ेगी।
रानी ने पांच वर्ष बैलहोंगल के कैदखाने में कष्ट सहते हुए काट दिए। इस बीच अंग्रेजों ने कई बार क्षमा याचना और शरणागत होने का प्रस्ताव रखा, जिसे रानी ने स्वीकार नहीं किया। कैदखाने के लंबे जीवन में रानी का स्वास्थ्य दिनोदिन बिगड़ता गया। अंत में शनिवार 2 फरवरी, 1829 को इस वीरांगना की जीवन-यात्रा समाप्त हो गई। किले के पास ही उनका अंतिम संस्कार कर दिया गया।
भारत के स्वाधीनता संघर्ष में कित्तूर की रानी चेनम्मा ने जो मशाल जलाई थी, उसकी लपटें कुछ दिनों के लिए धीमी अवश्य हो गईं, लेकिन धधकती रहीं और तब प्रज्ज्वलित रहीं जब तक देश विदेशी दासता से मुक्त नहीं हो गया।