पी. साईनाथ
मैं हिन्दी में बात करने की कोशिश करता हूँ। मैं तीन दिन पहले आंध्र प्रदेश के काकीनाडा में था, वहाँ लोगों ने मुझसे कहाकि आप इतनी दूर से आएँ हैं आप तेलुगु में बात करें। मैंने कहा देखो आंध्र प्रदेश की एक खास बात है यहां कोई भाषाई दंगा नहीं हुआ। लेकिन अभी तेलुगु में बात करूँ तो हंगामा हो जाएगा, लेकिन मैने वहां तेलगू में भाषण दिया। आज हिन्दी में कोशिश करता हूँ। अंग्रेजी हिन्दी मेलजोल। 17 साल पहले जुलाई महीने में हमारी किताब का हिन्दी संस्करण आया था। जिसका टाइटल था तीसरी फसल। इस टाइटल की भी एक काहानी है। इसमें प्रभाष जोशी का कनेक्शन क्या है ये भी मै आपको बताता हूं। मैं और मेरे मित्र अनिल चौधरी एक बार राँची जा रहे थे । मेरी किताब उस समय बहुत सफल हुई थी। मैने सोचा इस किताब की रायल्टी नहीं लेने वाला हूं। ये किताब गरीबी के ऊपर है। हमसब हर साल दो पुरस्कार सिर्फ ग्रामीण पत्रकारों को देते हैं। ऐसे ग्रामीण पत्रकार जो अंग्रेजी मे नही लिखते। भारतीय भाषाओं में लिखते हैं। उसका पहला पुरस्कार पत्रकार प्रभात खबर अखबार के पत्रकार दयामनि उरांव को गया था। उस समय प्रभात खबर के संपादक हरिबंश जी थे। हम सोच रहे थे कि किसको यह पुरस्कार देने के लिए बुलाऊं। मैने अनिल भाई से कहाकि मै तो अंग्रेजी पत्रकार हूं तो अनिल भाई ने कहाकि वो देखो तीन सीट पहले कौन बैठे हैं। वो प्रभाष जोशी थे। मेरी समस्या का समाधान हो गया। मैने उनसे प्रार्थना किया। उनका कोई दूसरा प्रोग्राम था। वो उसके एडजेस्ट करके आ गए। प्रभाष जोशी ऐसे आदमी थे। उन्हें पता था कि यह किसी ग्रामीण पत्रकार को पुरस्कार मिलने वाला है। इसीलिए वो अपने पूरे प्रोग्राम को चेंज करके आए। एक छोटे से स्कूल में प्रोग्राम किया। पूरा स्कूल भर गया। पूरा उरांव कम्युनिटी रांची का उस प्रोग्राम में आ गया था। प्रभाष जोशी ने मेरे लिए ऐसा काम किया कि मै कभी नहीं भूलूंगा। किताब का नाम बार-बार लोग पूछते हैं कि किताब का नाम एवरी बडी लव्स से गुड ड्राउट मैने नही दिया। एक छोटा किसान एक्टिविस्ट ने दिया। पलामू में। उसका नाम था रामलखन। जब मै बीडीओ के आफिस लातेहार गया। मै तो बंबई से आया था। किसी से बात करने का कोई चांस नही मिल रहा था। आफिस में कोई नही था। मैने रामलखन से पूंछा सब कहां गए हैं। उसका चेहरा देखने लायक था। मुस्कराते हुए उसने कहाकि तीसरी फसल लेने गया है। मै चौंक गया। मैने कहाकि रामलखन जी मै मानता हूं कि मै किसान नहीं हूं मै शहरी हूं लेकिन मै जानता हूं कि रबी फसल और खरीब फसल। ये तीसरी फसल क्या क्या है। छूटते ही उसने कहाकि ड्राउट रिलीफ। वो सब तीसरी फसल लेने गया है।
बीडीओ, सीओ सै बीडीओ कहता हूं। वो कह रहा था बीटीडीओ। मैने बीटीडीओ क्यों कह रहे हो। उसने कहा ब्लाक द डेवेलपमेंट आफिसर। जब तक उसको 25 फीसदी कमीशन नहीं मिलता है, तब तक कोई काम नहीं करता है। इसीलिए उसको बीटीडीओ कहते हैं।
1997 के बाद देश में ऐसी स्थिति हुई जिसको कहते हैं कृषि संकट। यह एक दो साल में नहीं हुआ। यह तो 20 साल से चल रहा। इसके बारे में सीरियस रिपोर्टिंग हुआ 2000 से। मै पहले मीडिया और जर्नलिज्म के बारे में बात करना चाहता हूं। इसमें मै अंतर भी बताना चाहता हूं। दोनो अलग चीज है। जब मै मीडिया शब्द यूज करता हूं तो इसका मतलब होता है इंस्टीट्यूशन, मालिक न्यूज पेपर चैनल। जर्नलिज्म का मतलब होता है पत्रकार। ये आपका ट्रेजडी है कि मीडिया और जर्नलिज्म इतनी बदल गई है कि तीन चार कारणों से कृषि संकट की व्याख्या नही कर सकते हैं। क्योंकि इसमें कोई एस्पस्लाइजेशन नही है। जिसको हम एग्रीकल्चर संवाददाता कहते हैं वह किसान से बात नहीं करता है वह एग्रीकल्चर मिनिस्टर से और एग्रीकल्चर सेक्रेटरी से बात करता है। तो किसान से बात कौन करेगा। कहता है कि दिल्ली मे बैठकर मंत्री और सचिव से बात करेंगें। किसान से बात क्यों करेंगे। आपको कुछ नंबर देता हूं जो नया नंबर निकला है। मैने सीएमएस दिल्ली जो कि डा. भास्कर राव का संस्था है मैने उनसे बोला मुझे ये डाटा भेजिए। और देखिए एक ट्रेजडी है। मै आपको कहना चाहता हं कि ये सारे नंबर एक जैसे हैं। अंग्रेजी और हिन्दी के। इसीलिए कि पिछले बीस साल में आप जो भी अखबरा देखेंगे चाहे वो हिन्दी में या अंग्रेजी में या तेलगू में सभी के मालिक एक ही है।
इंडिया टूडे तो अंग्रेजी में हैं क्या इंडिया टूडे मलयालम का कंटेंट अलग होगा। वही होगा जो इंडिया टूडे अंग्रेजी का होगा। लेकिन उसमें एक लोकल स्टोरी होगा। रीजनल मीडिया में भी उस बहुत वेरायटी थी जो कि अब कम हो गया है। सीएमएस ने हमे यह एनलिसिस करके दिया।
हम कहते है नेशनल डेली। दिस इज ए वेरी फनी वर्ड। नेशनल डेली का मतलब होता है जिसका मिनिमम दो एडिशन हो एक दिल्ली से निकलता है इसलिए वह नेशनल बन जाता है। औसत नेशनल डेली का एक दिन का नही एक साल का नही पांच साल का औसत देता हूं। 67 फीसदी न्यूज न्यू डेल्ही से है। वह भी साउथ दिल्ली और लुटियन से है। बाकी दिल्ली, कोलकता, बंबई केवल 9 फीसदी है। भारत मे और 42 शहर है। जिसका पापुलेशन 10 लाख से ज्यादा है। 53 अर्बन शहर है। जिसमें जैसे कि पटना, इनमे से 35 से 40 शहर का न्यूज पेपर के फ्रंट पेज पर नहीं देखता हूं। कंप्लेन ये है कि अखबार वाले चैनल वाले ग्रामीण भारत को कवर नहीं करते हैं। मै कहता हूं कि मै भी अर्बन इंडिया को नही कवर नहीं करूंगा। 46 शहर 10 लाख से अधिक आबादी वाले शहर हैं। इन शहरों को कितना स्पेश मिलता है। ग्रामीण कंटेंट केवल 0.26 फीसदी है। ये 2015 का डाटा है। 5 साल का औसत 0.67 फीसदी है। कभी कभी ग्रामीण कवरेज बढ़ जाता है। जब देश में आम चुनाव का समय होता है। लेकिन फिर भी 1 फीसदी से ज्यादा नहीं होता है। लेकिन 67 फीसदी जनसंख्या ग्रामीण भारत में रहती है। ये बढ़िया अन्याय है।
दूसरा कारण, इट बैड फार डेमोक्रेसी। तीसरा गैप आ गया। नई पीढ़ी कुछ नही जानती है। क्योंकि मैने उसे कुछ नहीं समझाया। कितना एस्पेशलाइजेशन है हमारे अखबार में। इसी टाइम के अंदर अखबर न्यूज चैनल कार्पोरेट आनरशिप के अंदर आ गया। हर दिन हमें फोन आता रहता है, दिल्ली मुंबई कोलकाता से। पत्रकार आम पत्रकार फोन करके बताते हैं। तीन चार कारणों से फोन करते हैं। कहते कि हमे एसाइनमेंट दिया है कि कावेरी डेल्टा में जो दंगा चल रहा है कि इसे कृषि संकट के रूप में देखना है। मै कभी गांव में नहीं गया हूं सर कुछ बताइएगा। जो रिपोर्टर बहुत जानता है वो कहता है सर ये बड़ा रिपोर्ट है मै करना चाहता हूं लेकिन अखबार मालिक और संपादक उसे लेना नही चाहता है। सर आप कुछ कर सकते हैं। कहीं और पब्लिस कर सकते हैं। इस तरह का काल मुझे प्रत्येक दिन आता है। जिनके पास जानकारी है उसका पब्लिस नही होता है। क्योंकि मालिक को रेवेन्यू नहीं मिलेगा। वो तो बालीवुड को कवर करेगा क्योंकि बालीवुड में रेवेन्यू है। किसान से क्या रेवेन्यू मिलेगा। आज एक भी बड़े चैनल या बड़े अखबार में फुल टाइम कृषि संवाददाता नही है। लेबर संवाददाता नहीं है। इतना बडा देश है, इतने लोग रहते हैं इस देश में। जब मै 1980 में पत्रकारिता में आया था, सितंबर में मै पत्रकार बन गया उस समय हर अखबार लेबर करेस्पांडेंट और कृषि करेस्पांडेट रहा करता था। कृषि करेस्पांडेट के बारे में मै बता रहा हूं कि पिछले बीस वर्षों से वो कृषि को कवर नहीं करता है वो तो मंत्री को कवर करता है। वह बड़े बड़े कारपोरेट से प्रेस रिलीज ले लेता है। कभी गांव नहीं जाता है, मंडी में नही जाता है फील्ड में नही जाता है, मंत्रालय से प्रेस रिलीज ले लेता है। वह न्यूज में एग्रीकल्चर न्यूज बन जाता है। लेबर करेस्पांडेट और इंपल्इमेंट करेस्पांडेट 1980 हर न्यूज पेपर में था। आज लेबर करेस्पांडेट है ही नही। विजिनेश करवर करने के लिए तो आज हर अखबार में 8-10 करेस्पांडेट होगा। एक तो मर्चेंट बैंकिंग ही कवर करेगा। एक इन्वेस्टमेंट बैंकिंग को कवर करेगा। मुंबई में हर एक अखबार में 10-12 करेस्पांडेट केवर बिजिनेश कवर करने के लिए होगा। देयर इज नो बडी टू कवर लेबर। अखबार वाले कहते हैं कि फुल टाइन कृषि करेस्पांडेट नही रखूगां. लेबर करेस्पांडेट नहीं रखूंगा। आई एम मेकिंग द स्टेटमेंट दैट 75 परसेंट आफ पापुलेश डू नाट बी एक्यूज। अगर मै लेबर और कृषि करेस्पांडेट नहीं रखूंगा तो 75 प्रतिशत पापूलेशन में मेरा इंटरेस्ट नहीं है। जब दो तीन हजार लोग मर जाएंगे तो कोई एक रिपोर्ट लगा देंगे।
जब ये बीट खत्म हो गई तो उसमें एक्सपर्टाइज नालेज खत्म हो गई। हमे लोग पूंछते हैं कि हमे एसाइनमेंट दिया है कोल्हापुर में चप्पल इंडस्ट्री में कुछ हो गया है आप कुछ कह सकते हैं। 5 मिनट फोन पर बात करते हैं और वह 5 मिनट की बातचीत न्यूजपेपर में खबर बन जाती है। यह कहीं से सही नही है। 75 प्रतिशत जनसंख्या इससे प्रभावित होती है। लेकिन 5 साल का मै आपको औसत बता रहा हूं कि 0.67 प्रतिशत अखबार के फ्रंट पेज पर और 0.82 चैनल के प्राइम टाइम में 70 प्रतिशत जनसंख्या का खबर है। यही तस्वीर है। हम डेटा को कवर नहीं करते हैं। क्योंकि हम डेटा को कवर नहीं करते है। कारण डेटा एनलाइज करने का कंपीटेंसी हमारे पास नही है। मै पत्रकार पर आरोप नहीं लगा रहा। अगर अखबार मालिक या प्रबंधन को इसमे इंटरेस्ट नही है कि ये कोई बड़ा मुद्दा नही है कि इसको सही से कवर करना है। तो वह कैसे एक्सपर्टाइज कैसे बनेगां। जब आप स्पोर्ट कवर करेंगे तो मैच तक पत्रकार भेजोगे न। लेकिन जब आप अकाल कवर करेंगे तो उसको भेंजेंगे जो अकाल के बारे में कुछ नही जानता है। वो जाएगा कलेक्टर से पूछेगा एक बोगस किसान का इंटरव्यू लेगा, उसका फोटो लगाएगा, और अखबार में आकाश की तरफ देखते हुए हाथ उठाकर दीन हीन की तहर ऊपर देखते हुए। आप तो उसके दरिद्रता को दिखा रहे हैं। ऐसी स्थिति गलत है। अभी कोई एडिटर कृषि संकट के बारे में बात नहीं करना चाहता है। उसको यह पता ही नही है कि किसान कौन है। आपके नीति आयोग में एक साहब बैठे हैं। उनका नाम अरविंद पनगड़िया। उनको ये नही पता कि किसान कौन है। उनका दोस्त जगदीश भगवती और अरविंद पनगड़िया ने मिलकर एक किताब लिखा है। जिसमे कहा है कि भारत में 53 प्रतिशत किसान है। किसान का आत्महत्या कम हो गया है। वह नहीं जानता है कि किसान कौन है। क्योंकि उसके पास नालेज नहीं है। सेंशस नही पढता है। उसके किताब में ये लिखा है कि अदर सोशायटी की अपेक्षा किसान की आत्महत्या का अनुपात कम है। मैने उनके किताब को पढकर जवाब भी दिया है कि किसान कौन है। 53 प्रतिशत किसान ये गलत है। मैने कहा 53 प्रतिशत इंगेज इन एग्रीकल्चर सेक्टर। उसमे फिशरी, फारेस्ट्री, एनिमल हस्बेंड्री फार्मिंग भी आता है।
किसान कौन है किसान का प्रतिशत क्या है। आज हम इस पर चर्चा करते हैं। क्या फर्क पड़ता है 53 प्रतिशत है या 5 प्रतिशत। बहुत फर्क पड़ता ये राष्ट्रीय त्रासदी है। किसानों की संख्या बहुत तेजी से गिर रही है।
अब मै बताता हूं कि किसान कौन है और पनगढिया क्यों नहीं जानते हैं। सेंशस में परिभाषा है किसान कौन है, सेंशस विभाजित करता है वर्कर्स और ननवर्कर्स। और वर्कर्स को विभाजित करते हैं मेन वर्कर्स और मार्जिनल वर्कस। मेन वर्कस ऐसा आदमी और औरत होता है जो एक साल में उस पेशा में 180 दिन रहता है मतलब वो 180 दिन कृष कार्य से जुड़ा हुआ है। सेंशस में इसीलिए यह व्यवस्था है नही तो इस देश में बड़े बड़े कारपोरेट घराना। जिसके पास अंगूर का बाग है। साल में एक बार घूमने जाता है और देखकर आ जाता है और कहेगा कि मै भी किसान हूं। अमिताभ बच्चन भी कहते हैं कि मै भी किसान हूं। उत्तर प्रदेश के बाराबंकी में तहसीलदार को दस्तावेज दिखाया कि मै भी खेती करता हूं। मेरे पास भी एग्रीकल्चर लैंड है। इसी बेस पर महाराष्ट्र में भी एग्रीकल्चर लैंड की मांग करता है। जिस देश में अमिताभ बच्चन को किसान सेटटस दे सकते हैं, कोई एक सही परिभाषा तो होना चाहिए कि किसान कौन है।
कोई ये सिर्फ किसानी के लिए ही नही अदर पेशा में भी मेन वर्कर के लिए 180 दिन ही होगा। अगर 180 दिन से कम काम करेगा तो उसको मार्जिनल कल्टीवेटर कहेंगे। 3 से 6 महीना तक काम करेगा तो वो मार्जिनल कल्टीवेटर ही होगा।
180 दिन की परिभाषा लेंगे तो कितने लोग भारत में हैं जो किसान कहलाएंगे। 8 प्रतिशत से कम 98 मिलियन 2011 के सेंशस में है। अगर हम मार्जिनल किसान को भी जोड़ देंगे तो 10 प्रतिशत से ज्यादा नहीं होंगे। अगर सभी को मार्जिनल, वर्कर, लेबर, कल्टीवेटर तब भी 24 प्रतिशत ही होगा। मै आपको इसलिए कम्यूनीकेट कर रहा हूं कि सभी को इसके बारे में अवेयरनेश होना चाहिए। ये मीडिया आपको कम्यूनीकेट नहीं करता है। पनगढिया कहते हैं कि 53 प्रतिशत किसान हैं। लेकिन मै उनको कहता हूं कि 53 प्रतिशत किसान नही हैं 53 प्रतिशत निर्भर हैं कृषि क्षेत्र पर निर्भर है न कि किसान है। तो मै कैसे समझाऊं एवरीबडी इन बालीवुड नाट ए एक्टर। एक्टर तो सबसे छोटा संख्या है बालीवुड में। उसमे कैमरामैन है, लाइट मैन, चायवाला है और लोग होते होंगे। जैसे ऐजुकेशन सेक्टर बहुत बड़ा है। उसमे स्टूडेंट एक चैप्टर टीचर दूसरा चैप्टर है और कर्मचारी भी है। इसका मतलब हम नहीं कह सकते हैं कि उसमें 53 प्रतिशत या 100 प्रतिशत स्टूडेंट हैं। उसमें हम ये कहेंगे कि स्टूडेंट एजूकेशन सेक्टर का एक पार्ट है न कि पूरा सेक्टर स्टूडेंट को रिप्रजेंट करता है। वैसे भी 53 डिपेंडेट आऩ एग्रीकल्चर सेक्टर उसमें सभी किसान नही होगा। लेकिन उन पर 53 प्रतिशत का जीवन चलता है। ये उनको कौन समझएगा। मै आपको ये भी बता रहा हूं कि किसानों कि जनसंख्या लगातार गिर रहा। आप 1991 ,2001 और 2011 का सेंशस देख लीजिए। 1991 से 2001 के बीच में फूड कल्टीवेटर की जनसंख्या 72 लाख कम हो गया। 2001 से 2011 की जनगणना में 77 लाख कम हो गया।
इसका मतलब 20 साल के अंदर आपके किसान का जनसंख्या 150 लाख कम हो गया। इसका मतलब आप हर दिन 2000 किसाना खो रहे हैं। कहाँ जा रहे हैं लोग, आपको दिखाता हूँ एक तो माइग्रेशन पर जा रहे हैं उसी सेंशस में आप देख सकते हैं सेंशस में एक कालम है जिसमें ।एग्रीकल्चर सेक्टर का डिटेल है। अलग-अलग सबका डिटेल है। लेकिन एग्रीकल्चर सेक्टर में दिखता है किसानों की संख्या घट रही है। जबकि खेत मजदूर की संख्या बढ़ रही। इसका मतलब है लाखों किसान का खेती गया, जमीन गया, खेत मजदूर तक गिर गया। हमारा अपना राज्य आंध्र-प्रदेश है उस समय जो सेंशस किया आंध्र प्रदेश और तेलांगना एक ही था। 2001 से 2011 सेंसस में आंध्र प्रदेश में किसानों की संख्या 13 लाख गिर गया खेत मजदूर की जनसंख्या 34 लाख बढ़ गया। इसका मतलब है किसान ही परेशान नहीं है और लोग परेशान हैं। ग्रामीण इलाकों में, जो मिस्त्री है आप लोग किसानो के आत्महत्या के बारे में पढ़ा है लेकिन मिस्त्री ग्रामीण इलाकों में रहते हैं, भूखों मर रहे है क्योंकि औसत मिस्त्री का इनकम 70 प्रतिशत काइंड में मिलता है। समझ लो आप लोग किसान हो। मैं मिस्त्री हूँ। 20 परसेंट पेमेंट कैस में मिलता है बाकि चावल, गेहूँ, टमाटर ऐसा मैं अपना घर चलता हूँ। अगर आप कृषि संकट में दिवालिया हो गए तो मैं तो भूखे मरने वाला हूँ। अगर किसान दिवालिया होता है तो जुलाहा प्रभावित होता है, वह भूखा मरता है इस देश में कोई गिनती की है कितना जुलाहा आत्महत्या किया है आप पोच्चमपल्ली सारी के बारे में जानते है वहां पिछले दस साल में 200 से अधिक जुलाहा ने आत्महत्या किया है। लोग समझते हैं कि किसानों का एक ही इश्यू है वह है लोन वेवर जिसका एक ही इश्यू नहीं है दो इश्यू है दूसरा मानसून का। पेपर के अनुसार पहले समझ लीजिए जो देश में उधार से चलता है वह अकाल नहीं है। मैंने कहा वह जल संकट है, अगर आपको दस अच्छा मानसून मिलेगा तभी भी आपका जलसंकट घटेगा नहीं। अभी देखो दक्षिण भारत में कावेरी का दंगा चल रहा है, लेकिन मैं कहना चाहूँगा कि कावेरी से आपको कोई सल्यूशन नहीं आने वाला है। इसलिए कि वहाँ आप 60 प्रतिशत से अध्कि सिंचाई का पानी भूमिगत जल से लेते है, नदी से नहीं। दूसरा जब हम ड्राउट शब्द का इस्तेमाल करते है यह मिसलीडिंग शब्द है। अखबार में चैनल में जब ड्राउट ;सूखाड़ कहते है तो उसका मन में है बारिश फेल हो गयी है मतलब बारिश पेफल्योर मतलब मिट्योलोजिकल पेफल्योर ये ड्राउट का एक शक्ल है। आपका पीने का 4/5 पानी आ रहा है भूमिगत जलस्रोत से नदी से नहीं। अभी 20 साल से ज्यादा देश में चल रहा है हाइडोलोजिकल ड्राउट के बारे में आपका भूमिगत जलस्रोत भी काफी नीचे गिर गया है ये सब कंबाइन होकर। एग्रीकल्चरल ड्राउट हो गया उसमें हमको देखना है कि कैसे पानी का उपयोग किया जाए।
अभी महाराष्ट्र में आरटीआई किया शहर और ग्रामीण में क्या फर्क है। टाइस्स आफ इंडिया ने यह आरटीआई किया था। उसमें जवाब भी मिला। महाराष्ट्रा के तीन बड़े शहर को 400 फीसदी से ज्यादा पानी मिलता है गांव की अपेक्षा, जहां से पानी आता है। देखिये मैं मुंबई के बांद्रा में रहता हूँ, प्रिविलेज एरिया है। 24 घंटे पानी मिलता है। मुंबई का पानी पूरी तरह से पाँच लेक से आता है, वो सब आदिवासी इलाका है। मुझे 24 घंटे पानी मिलता है लेकिन उनके एक घर में भी पानी का पाइप नहीं है, लेकिन पानी वहीं से आता है। पानी उनका है, लाभ मुझे है। मुंबई में अभी, बोरीवली, गोरेगाँव में नया निर्माण हुए हैं। 30 मंजिल 40 मंजिल के मकान बने हैं जिसमें हरेक फ्लोह पर स्वीमिंग पूल है,। एप्रूव्ड भी हो गया। मैं बोरीवली में गया, बिल्डर का इंटरव्यु करने नहीं, मैंने मजदूरों का इंटरव्यु किया। पूछा कहाँ से आए हैं, बोला गाँव से, गाँव से क्यों आया है, बोला गाँव में पानी नहीं होने के कारण खेती नहीं हो पाता है। वे गाँव से आए है, पानी नही होने के कारण, क्योंकि उनका खेती नहीं होता है लेकिन शहर आए हैं हमारा स्वीमिंग पूल बनाने।
साहब, हम सब सेतकड़ी हैं। मराठी में किसान को सेतकड़ी कहते हैं? किसान और खेत मजदूर होकर आप स्वीमिंग पुल निर्माण में क्या कर रहे? सर, गाँव में पानी नहीं है। क्या खेती करूँ! यह पिछले 25 साल में बनाई गई पालिसी का नतीजा है।
एक और नई बात बताता हूँ। हमारे पास नाबार्ड नाम की एक महान संस्था है। इसका निर्माण 1982 में हुआ था। इसका स्थापना नियम आप पढ़िए। इसमें खेती, किसानी, छोटे किसान को बढ़ावा देने संबंधी सारी बातें लिखी गई है। 2016 का महाराष्ट्र का नाबार्ड कृषि पोटैंशियल क्रेडिट प्लान देखिए। उसमें 53 प्रतिशत बजट मुंबई शहर के लिए है। आप सोच सकते हैं कि मुंबई में कितनी खेती चल रही है। मुंबई में कानट्रैक्ट फार्मिन नहीं, कांट्रैक्ट आफ फार्मिग चल रहा। मैंने पढ़कर चेक किया। सेड्यूल सरकारी बैंक का पैसा 49 प्रतिशत के करीब दो शहरों में ;मुंबई और पूणे को दिया गया। कहाँ बाँटा गया यह पैसा, यह छुपा नहीं है। अर्बन और मैट्रो ब्रांच। अर्थात् कनाट प्लेस की तरह की ब्रांचों में या फिर ग्रेटर वैफलाश के माल में जो ब्रांच होगी। अब आप खुद सोच सकते हैं कि इस तरह की जगह पर कितने किसान पहुँचते हैं।
और यह भी है कि लोन का साइज देख लीजिए आप इसके लिए पिछले 10 साल का आरबीआई का डेटा देख सकते हैं। यदि लोन 50 हजार रुपये से कम है तो इसका मतलब यह है कि जिसने लिया वह छोटा किसान है। यदि 2 लाख से कम है तो वह मझोला किसान है। और यह कटेगरी बढ़ती जाती है। लेकिन 2 लाख से नीचे जो किसान लोन लेते है वह पिछले 15 साल से कोलैप्स हो गया है। इसका मतलब छोटे किसान को वह लोन नहीं मिल रहा है। सवाल यह है कि वह किसको मिल रहा है? आप जानते है कि आज वहाँ लोन 1 करोड़ से उपर और 10 करोड़ से उपर का रहा है। अब आप खुद सोचिए कि 10 करोड़ का लोन खेती में कितने किसानों को मिलता है? मुझे 2 नाम पता है एक का नाम मुकेश है और दूसरा अनिल है। आरबीआई के डेटा में यह प्रमाण है कि मैट्रो ब्रांच में इस तरह के लोन दिए गए हैं।
जब नाबार्ड अपना 53 प्रतिशत मैट्रो ब्रांच में दे रहा है तब इसका निष्कर्ष एक है – वी हैव सिफ्टेड एग्रीकल्चर क्रेडिट फ्राम द फारमर टू एग्रीविजेनेश। साथ ही हम खेती करने वाले को भी वयापार में सिफ्ट कर रहे हैं। इस कारण से लोन का सबसे बड़ा लाभार्थी रिलायंस फ्रेस गोदरेज नेचुरल मोनसेंटो आदि। यहां पूरी तरह से रिसोर्स का डायवर्जन हो रहा है। यह 1997 के आखिरी में शुरू हुआ है। 2001-02 से आगे ही बढ़ रहा है।
दूसरा, पानी के कारण पलायन, गाँव से नगर, कृषि से उद्योग। लाइवलीहुड से लाइफस्टाइ अर्थात् खेती से स्वीमिंग पूल। पिछले 20 सालों में पानी की समस्या के कारण यह सब बढ़ा है। इसको सूखे का नतीजा बताना, ईश्वर पर आरोप लगाना उचित नहीं। इसमें कोई दो राय नहीं कि सूखा बढ़ा है, लेकिन वह जानवरों को ज्यादा प्रभावित करता है। किसान तो अन्य कारणों से अध्कि परेशान हैं। हर नदी का पानी का स्तर गिर रहा है। इस पर मीडिया में कभी बहस नहीं होती। उसका कारण यह है कि इस समस्या के बारे में मीडिया में कोई समझ नहीं है।
अभी आप किसानों के आत्महत्या का मुद्दा देखिए। हर राज्य में अलग-अलग आँकड़े हैं। विभिन्न माध्यम, एक ही राज्य के अलग-अलग आँकड़े देते हैं। मान लीजिए 3 स्रोत से यह आँकड़ा आया तो उसमें नेशनल क्राइम रिपोर्ट ब्यरो का डेटा जरूर विश्वसनीय मान सकते हैं। देश में जितनी भी घटनाएँ होती है उसका आँकड़ा यहाँ मिलता है। छोटे से छोटे थाने का भी आँकड़ा जिले और राज्य से होते हुए नेशनल क्राइम रिपोर्ट ब्यूरों तक पहुँचता है। लेकिन 5 या 6 साल के अंदर राजनीतिक दबाव बहुत बढ़ गया है। इस कारण से आने वाले आँकड़े बहुत असंतुलित हो गए हैं।
जिसका मैं एक उदाहरण देता हूँ। 2011 से 6 राज्यों ने यह कह दिया है कि हमारे राज्यों में किसानों की आत्महत्या बिल्कुल नहीं हो रही है। जिस राज्य में वार्षिक औसत 1560 ;(छत्तीसगढ़) था। वह 4 साल में 0 हो गया। इसे सिर्फ ममता दीदी ने देखा। पश्चिम बंगाल में 0 हो गया। फिर 2014 में बारह राज्य ओर 6 केन्द्र शासित राज्यों में भी इसे 0 दिखाया इसका मतलब यह है कि पूरे देश में किसानों के लिए कोई समस्या नहीं है। औसत आत्महत्याएँ भी रूक गई है, जो अन्य कारणों से भी रूक गई है। इससे 2014 में पूरी मैथोडालाजी यानी सिद्धां ही बदल गई।
मैं सिर्फ यह कहना चाहता हूँ कि 2012 का एनसीआरबी का डेटा तो फिर भी विश्वसनीय है। फिर भी उसमें बहुत सारी गलतियाँ हैं। सामाजिक गलतियाँ उदाहरण के लिए महिला किसान को हम किसान ही नहीं मानते हैं। इसलिए पंजाब और हरियाणा का आँकड़ा देखिए, स्त्री किसान के आत्महत्या का मामला ही नहीं मिलेगा। क्योंकि हम मानते ही नहीं कि स्त्रिायाँ भी किसान होती है जबकि स्त्रिायों के आत्महत्या का आँकड़ा इन राज्यों में काफी ज्यादा है। व्यवहारिक तौर पर आत्महत्या करने वाली महिलाओं में भी काफी महिलाएँ किसान है।
देशमें खेतीबाड़ी 60प्रतिशत से ज्यादा काम महिलाएँ करती है। अभी उनका काम और बढ़ गया है। क्योंकि गाँव से युवाओं का पलायन हो रहा है। उसमें ज्यादातर पुरुष हैं। ऐसे में महिलाएँ खेती से लेकर पशुपालन तक का काम खुद करती हैं। वहीं बच्चे को लेकर स्कूल जा रही है, फीस भर रही हैं, वहीं साहुकार से बात कर रही हैं, वहीं पड़ोसी की समस्याओं से जूझ रही हैं। इन सबके बाद भी उनकी जिन्दगी अनिश्चितता की स्थिति से गुजर रही है। लेकिन मीडिया में आम लोगों से मिलने की, बात करने की संस्कृति अब नहीं है। इसलिए उसकी समस्याओं को कोई प्रस्तुत नहीं कर पा रहा है।
कर्नाटक और आंध्रप्रदेश में 15-20 स्कूल की लड़कियों ने आत्महत्या की। उस आत्महत्या को सरकार ने विद्यार्थी आत्महत्या के तौर पर लिख लिया। जब हम लोगों ने समस्या की जानकारी निकाली तो पता चला कि उसमें 6-7 लड़कियाँ पढ़ने में बहुत अच्छी थी। उनका आत्महत्या करना इस कारण से नहीं हुआ कि वह परीक्षा में फेल हुई थी। प्रश्न यह उठता है कि फिर उन्हेंने आत्महत्या क्यों की? जब वहाँ कृषि संकट शुरू हुआ, शिक्षा का निजीकरण तेजी से बढ़ गया, ऐसे में लड़कियों को पढ़ाने के लिए उनके अभिभावक के पास पैसा नहीं है। एक लड़का और एक लड़की पढ़ रहे हैं तो अभिभावक अभाव में लड़की को पढ़ाई छुड़ाकर घर बैठा देते हैं। यह भी एक प्रकार का कृषि आत्महत्या है। जबकि सरकार इसे नहीं मानती है। 2011-12 के बाद इस प्रकार के मामले बढ़े हैं। इसका एक उदाहरण और है। 2014 का आँकड़ा जो 2015 में प्रकाशित है। आधे से ज्यादा गिर गया। हमें यह देख कर बहुत अच्छा लगा। लेकिन जब वार्षिक आँकड़ा प्रस्तुत हुआ तो उसमें देखा गया कि स्त्री, पुरुष, किसान के साथ एक और कालम बना हुआ था – ‘अन्य’। एक उदाहरण कर्नाटक का है। आत्महत्या तो 36 प्रतिशत घट गई है लेकिन अतिरिक्त कालम में 245 प्रतिशत की वृद्धि हो गई है। जिन पाँच राज्यों में अध्कितम आत्महत्या के मामले थे।
आंध्रप्रदेश, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, तेलांगना भी उसमें था का सुसाइड 2/3 होता है उसका रेशियो 50 प्रतिशत घट गया है और अतिरिक्त कालम 132 प्रतिशत बढ़ गया है। आपके डाटा की विश्वसनियाता क्या हूई। मै जो कह रहा हूं उसमें आनरेबल पीपुल है वो आपको ठग नही रहे। ये इन राज्यों के थाना से मिला थ। सबसे ज्यादा शुरू हुआ विलासराव देशमुख के समय में महाराष्ट्र में। मैं रोज इसके बारे में लिखता था, तो विलासराव जी बहुत गुस्सा हो गया, उसका मिटिंग हुआ और उसमें एक नई कैटेगरी बना दी गर्ह। फारमर्स सुसायड का एक नया कालम आ गया। फारमर्स रिलेटिव सुसायड। यह कार्य मूल आत्महत्या की संख्या कम करने के लिए किया गया। मैंने विलाशराव जी से पूछा कि आप इसमें किसानों की दोस्तों की आत्महत्या नाम से एक और कालम क्यों नहीं जोड़ देते?
उस साल संसद सत्र में महाराष्ट्र में किसानों की आत्महत्या, जब शरद पवार कृषि मंत्री थे। यहीं से किसानों की आत्महत्या की संख्या में छेड़छाड़ की शुरूआत हुआ। इसके बाद इस प्रक्रिया को हर राज्य ने अपना लिया। सही ये है कि टोटल आत्महत्या बढ़ रही है, और इनके आंकड़ों में संख्या घट रही है। 2014-15 एक नया आँकड़ा सामने आया, बटाइदार किसान। इसमें एक बड़ी समस्या है, 99 प्रतिशत बटाइदार किसान का कोई लिखित समझौता नहीं होता। यह तो पूरी तरह विश्वास पर आधरित होता है, सरकार ने इस क्षेत्र में अभी तक कोई पहल नहीं किया है, उनको लोन मिलना बहुत मुश्किल है इसी प्रकार खेती में नुकसान होने पर, पैसा जमीन मालिक के नाम से आता है, बटाईदार किसान को कुछ नहीं मिलता है।
आंध्रप्रदेश में जब तुफान आया था, तब ऐसा देखा जा चुका है। इसी प्रकार के किसान सबसे ज्यादा बुरी स्थिति में है और आत्महत्या कर रहे हैं। साहुकारों से कर्जा लेने के लिए बाध्य है। जहाँ इनको बहुत ज्यादा ब्याज देना पड़ता है। कोई भी सरकारी मशीनरी आत्महत्या के मामले में जब जाँच पड़ताल होती है तो पुलिस सबसे पहले कागज मांगती है, किसान जब कहता है कि हम तो बटाई करते हैं, हमारे पास खेत का कोई कागज नहीं है तो उसका नाम कृषि मजदूर की कालम में डाल दिया जाता है। एनसीआरबी के डाटा में खेत मजदूर किसानों का आंकड़ा खेती करने वाले किसानों से ज्यादा है। यह डाटा डराने वालें है। मैं आप सबसे गुजारिश कर रहा हूँ, खासकर राजनीतिक लोगों से की कम से कम 10 दिन का संसद का विशेष सत्र कृषि समस्या पर बुलाया जाए, उनके पास अन्य मामलों पर बहस करने के लिए काफी समय है क्या वे देश के किसानों के लिए दस दिन दे सकते हैं? ये वे किसान हैं जो पूरे देश को जीवन देने का काम करते हैं, आप उनको दस दिन दीजिए।
उसमें आप दो दिन बात करिए, स्वामीनाथन कमेटी की रिपोर्ट पर, और मैं यह मानता हूँ कि उसकी पहली मांग सही है, मैं उसका संसद समर्थन करता हूँ। मैं ये मानता हूँ कि दो दिन उन किसानों को बुलाया जाए जो पीड़ित है वो खुद आयें और अपनी समस्या बताएँ। दो दिन क्रेडिट सिस्टम और बाजार पर बात होनी चाहिए। जैसे बाजार को जानने वहाँ तक पहुँचने मीडिया को संचालित करने, और एमएसपी पर बात होनी चाहिए।
अनेक प्रकार की समस्याएँ हैं किसानों से संबंधित दस दिन आप दीजिए। शायद समाधन निकल जाए। यह इतिहास में किसानों का सबसे बुरा दौर है। हमें अपनी संसद पर विश्वास है, उन्हें दलगत राजनीति से उपर उठकर इस समस्या पर बात करनी चाहिए। यह मेरी माँग है।
दूसरी बात मैं यह कहना चाहता हूँ कि जो किसान लोग है उनमें काफी महिलाएँ है उनको पट्टे में बराबरी का अध्किार दिया जाए। उनकी समस्या को भी सामने लाना चाहिए। उन्हींके प्रयास से आपके टेबल पर खाना आता है। ये कौन लोग हैं जो अच्छी फसलें पैदा करते है, हमें खाना उपलब्ध् करवाते हैं उसमें ज्यादातर महिलाएँ हैं, इस मुद्दे पर भी हमें बात करनी चाहिए।
आँकड़ इक्ट्ठे करने के तरीके पर भी बात होनी चाहिए। दस साल पहले मनमोहन सरकार ने अनेक जगहों से सबसे बढ़िया डाक्टर की टीम यवतमाल भेजे थे। उन्होंने बहुत अच्छा सर्वे किया, किसानों से बहुत सवाल पूछे, एक दिन उनके साथ मैं भी था। उसी समय छठा वेतन आयोग आया था। जो डाक्टर गए थे, उनमें योग्यता बहुत है, लेकिन सामाजिक समझ बिल्कुल नहीं है। खेती किसानी के बारे में वे कुछ नहीं जानते है। उदाहरण के लिए वे सवाल पूछ रहे थे और उसे लिख रहे थे, यवतमाल के गाँव में एक बूढ़ा किसान खरा हो गया और उनसे पूछा कि साहेब आप लोग इतना बड़ा काम किया हमारे लिए, दो दिन से हमारे गाँव में है, हमारे लिए इतना सर्वे किया, सवाल पूछा और सुझाव भी दिया, पारिवारिक और शराब पीने संबंधी समस्याओं पर भी आपने बात की हमें जागरूक करने का प्रायस किया इसके लिए हम आपके आभारी हैं। अभी हमसे एक सवाल और पूछ लीजिए कि जो किसान आपके मेज पर खाना रखते हैं, उनके बच्चे क्यों भूखे रहते है।
उसका सवाल सुनकर चारों तरपफ खामोशी छा गयी। एक भी डाक्टर कुछ भी नहीं बोल पाया। उसके टीम लीडर ने कहा कि हम लोग क्यों चुप हैं, इसका सवाल सही है, मेरे पास सभी सवालों का जवाब है, इसी क्रम में हम लेाग एक गाँव में पहुँचे, जहाँ एक किसान शराब पीकर आ गया, वहाँ सरकार ने एक कार्यक्रम किया था। बताया गया था कि हम लोग इतना गाय, इतना भैंस बाँटेंगे।
मैंने सरकार से यह अपील किया था कि आप यह काम मत करना आप नहीं जानते कि, कौन सा किसान पशु पाल सकता है, और कौन नहीं, आपने एक जर्सी गाय एक किसान को दे दिया जो उसके पूरे परिवार के सदस्यों से भी ज्यादा खाना खाती है। कमलाबाई गूड़े को एक भैंस मिली थी, उसे लेकर वह दिनभर अपने गाँव में घूमती रही कि इसे किसी तरह बेच देना है। कोई खरीदार मिला, मैंने पूछा कि कमला जी ये भैंस आप क्यों बेच रही हो, प्रधनमंत्री ने दिया है, आपको, उन्होंने कहा कि साहेस नहीं, भूत है,