गांधी मूलरूप से संवादी पत्रकार थे – ‘गांधी की पत्रकारिता’ पुस्तक अंश

जवाहरलाल कौल

‘गांधी की पत्रकारिता’ पुस्तक अंश

इंगलैंड जाने से पहले गांधी एक सामान्य जिज्ञासु विद्यार्थी थे। इंगलैंड वे पत्राकारिता करने नहीं, बल्कि अपनी पढ़ाई, कैरियर या व्यावसायिक प्रगति के लिए गए थे। और फिर इंगलैंड का पाठक उनका पाठक नहीं था। उसके साथ कोई रागात्मक या भावनात्मक संबंध वो नहीं जोड़ सकते थे। इसलिए इंगलैंड जाकर उनको पत्रकारिता का सहारा लेना सांकेतिक हो सकता है, लेकिन वह उनकी मूल आवश्यकताएं पूरी नहीं कर सकता। तब तक गांधी, गांधी नहीं थे। उस समय वे चीजों को समझ रहे थे। उन्हें जानने की कोशिश कर रहे थे। वे अंग्रेजों  द्वारा निर्मित उसी व्यवस्था में काम कर रहे थे, उसका विरोध नहीं कर रहे थे। विरोध करने के लिए उसकी समझ बनाना जरूरी होता है। जब वे दक्षिण अफ्रीका गए, तो वहां की परिस्थितियां बिलकुल अलग थी। वहां अचानक उन्हें महसूस हुआ कि वो जनता के बीच में हैं और उन्हें इसी जनता के बीच रहना है। वे शासकों का हिस्सा नहीं थे। शासक उन्हें उसी नजर से देखते थे, जैसे अफ्रीकियों या अन्य भारतीय मजदूरों को देखते हैं।

गांधी भी ऐसे ही आदमी थे। अफ्रीका में पहली बार उन्होंने यह महसूस किया और पहचाना कि मेरे लोग कौन हैं? दूसरे शब्दों में कहें तो अफ्रीका ने उन्हें यह पहचान कराई कि उनके अपने कौन हैं और उनका दायित्व या कर्तव्य किनके प्रति है? जब व्यक्ति को यह अहसास हो जाता है, तब उसमें एक मिशनरी की भावना या एक लक्ष्य पैदा होता है कि मुझे यह करना ही चाहिए। दक्षिण अफ्रीका में यह लक्ष्य गांधी से सामने आने लगा। शुरूआत उन्होंने उन्हीं लोगों से की, जो वहां रह रहे थे। जो दक्षिण अफ्रीका के मूलनिवासी नहीं थे। जो वहां तीसरी दुनिया के अन्य देशों से मजदूरी या अन्य दूसरे कामों के लिए लाए गए थे और विदेशी सत्ता की अधीनता या गुलामी में काम करते थे। उस गुलामी का अहसास गांधीजी को दक्षिण अफ्रीका में हुआ। दक्षिण अफ्रीका में उनके साथ जो घटनाएं घटी, उन घटनाओं ने उन्हें यह अहसास कराया कि गुलामी क्या होती है? आधिनायकवाद या उपनिवेशवाद का महत्त्व क्या है? जब यह सब उनके समझ में आ गया तो वे गांधीजी बदलने लगे।

इस तरह गांधी का दूसरा संस्करण या दूसरा अवतार दक्षिण अफ्रीका में पैदा हुआ। इसी के चलते उन्होंने ‘द ओपीनियन’ के माध्यम से वहां उन लोगों की बातें रखनी शुरू की। उस वक्त उन्हें यह अहसास था कि पत्राकारिता के माध्यम से वो केवल उस वर्ग तक पहुंच सकते हैं, जो पढ़ा-लिखा है और किसी-न-किसी रूप में सत्ता से जुड़ा है। चाहे वह उनका छोटा कर्मचारी, क्लर्क वगैरह ही क्यों न हो! जो सत्ता के साथ है। इसीलिए ‘इंडियन ओपीनियन’ या उस तरह के दूसरे प्रयासों के माध्यम से ऐसी सांकेतिक बातें सामने आती थी। वास्तविक रूप से उनकी पत्राकारिता की शुरूआत तब होती है, जब वे भारत आते हैं क्योंकि यहां उन्हें अपनी बोली, अपनी भाषा में बात करने का मौका मिला। तब उन्हें महसूस हुआ कि सीधे बात कैसे की जाए? जनता से सीध संवाद कैसे किया जाए? दोटूक बात कैसे की जाए? दिन-प्रतिदिन की बात कैसे की जाए? असल में गांधीजी की पत्रकारिता मूल रूप से एक संवाद है। अपने पाठकों के साथ, अपने साथ काम करने वाले कार्यकर्ताओं के साथ और आम जनता के साथ संवाद। उस संवाद में शायद पत्राकारिता के शास्त्रीय नियम लागू होते हैं कि नहीं, यह स्पष्टतः नहीं कहा जा सकता। कभी होते होगें तो कभी नहीं होते होंगे। पत्राकारिता के शास्त्रीय नियमों पर शायद ही उन्होंने कभी ध्यान दिया हो।

गांधीजी ने पत्राकारिता के लिए पत्राकारिता नहीं की या फिर उन्होंने ऐसा पत्राकारिता के लिए नहीं किया। गांधी द्वारा निर्मित परिपाटी के लिए हम यह कह सकते हैं कि ऐसा उन्होंने खुद अपने ऊपर एक अनुशासन लागू करने के लिए किया। इस तरह से उन्होंने पत्रकारिता की भारतीय परिपाटी तैयार की। उस अनुशासन के अनुसार उन्हें क्या कहना चाहिए, क्या नहीं कहना चाहिए, यह उन्होंने खुद तय किया। उन्होंने अपने लिए एक नैतिक आचरण तैयार किया और वह उनकी कथनी, करनी और लेखनी पर भी लागू होता है। उन्होंने न तो पत्रकारिता के लिए कोई नियम बनाया और न ही पत्रकारिता के किसी नियम का अनुसरण किया। उन्होंने अपनी भाषा में, अपनी बात लोगों तक पहुंचाने का काम किया। इसके लिए उन्होंने उस माध्यम का, उस वक्त की तकनीक का उपयोग किया।

अपनी आत्मकथा में गांधीजी अपने जीवन को सत्य के साथ किए गए प्रयोग के रूप में देखते हैं। ऐसा ही उनकी पत्रकारिता के साथ भी नजर आता है, जिसकी शुरूआत उन्होंने दक्षिण अफ्रीका से की थी, लेकिन जब वे भारत आए तो चुनौतियां बदल गयी। भारतीय परिस्थितियां दक्षिण अफ्रीका से अलग थी। दक्षिण अफ्रीका के अनुभवों से वे अपने लोगों और उनकी समस्याओं को पहचान चुके थे। लेकिन उस समय की सबसे बड़ी उपनिवेशवादी ताकत से लोहा लेने के लिए उन्होंने शुरूआती स्तर पर पत्रकारिता को चुना। शुरूआत उन्होंने अंग्रेजी पत्राकारिता से की और बाद में वे भारतीय भाषाओं में पत्रकारिता की ओर मुड़े। गांधीजी के लेखन को एक तरह से प्रतिरोध कहा जा सकता है। उनका शुरूआती लेखन ‘संपादक को पत्र’; लैटर टू एडिटर के रूप में हमारे सामने आता है। जब पाठक क्षुब्ध होता है, उसे गुस्सा आता है या वो असहमत होता है तो वह कुछ लिख देता है और वह छप जाता है।

उस तरह का प्रतिरोध गांधीजी के शुरुआती लेखन में मिलता है। लेकिन धीरे-धीरे जब उन्हें यह महसूस हुआ कि उस वर्ग में उन्हें एक ऐसा पाठकवर्ग मिल सकता है, जो पहले से है और शायद वह उनकी बात सुन सकता है। जो सत्तारूढ़ वर्ग का हिस्सा नहीं है, वह उस जाति या समुदाय या राष्ट्र का हिस्सा हो सकता है। सत्तारूढ़ वर्ग के विचारों से वह असहमत है। अपने घर में भी वह उनसे असहमत है। यानी इंग्लैंड में रहकर भी वह अपनी सरकार, अपनी पार्टी और अपने लोगों के खिलाफ लिखता भी है। ऐसे में गांध्ीजी को लगा कि यहां भी ऐसे लोग हैं, जो अपनी ही सरकार की ज्यादतियों को गलत मानते हैं, उन तक पहुंचना चाहिए। इसलिए जब उन्होंने भाषा को मांजने की बात शुरू की तो स्वाभाविक है किख वे गुजराती थे। भले ही उन्होंने अंग्रेजी से बेरिस्टरी की हो, लेकिन बोलने-चालने का जो तरीका होता है, वह हमारा अपना ही होता है। उसे हम अपनी कहावतें, लोकोत्तिफयां और मुहावरों में ही आसानी से व्यत्तफ कर पाते हैं।

हिंदुस्तानी मुहावरे में अगर आप अंग्रेजी लिख भी दें तो उसे हम भारतीय भले ही आपस में समझ लें, लेकिन अंग्रेज शायद नहीं समझ पाएगा कि क्या बात कही जा रही है। यह गांधी का अपना प्रशिक्षण था। मुझे लगता है कि उन दिनों गांध्ीजी ने भाषा के लिहाज से अपने आपको बहुत कुछ सिखाया होगा। इसे उन्होंने अंग्रेजी लेखन में भी अवश्य आजमाया होगा, जिसे हम अंग्रेजी लेऽन की तकनीक कहते हैं, उसे मांजने की कोशिश की होगी। एक दौर उनका यह भी रहा होगा। ऐसा करना उनके लिए बाद में इसलिए भी उपयोगी सि( हुआ क्योंकि आगे चलकर उनका संवाद बहुत से ऐसे लोगों से भी शुरू हुआ, जो भारतीय नहीं थे, जो अंग्रेज थे या पिफर अंग्रेजों से भी अलग कोई अन्य, रशियन, जर्मन, अमरीकरन थे। ऐसे बहुत सारे लोगों से उनका संवाद शुरू हुआ। उस समय इन लोगों से मिलने का, संवाद करने का सबसे प्रचलित माध्यम अंग्रेजी पत्राकारिता ही था और आज भी है। उसे समझना और एक तरह से उसमें सि(हस्त हो जाना गांधी को जरूरी लगा होगा।

 

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Name *