…जनसत्ता उस अभियान का जरिया नहीं बना जरुरी ख़बरें छपती रहीं। इंडियन एक्सप्रेस का संपादकीय लेख जनसत्ता में नहीं छपता था। अलबत्ता एक्सप्रेस न्यूज़ सर्विस से ख़बरें ली जाती थी। एक्सप्रेस ब्यूरो के लोग इसके लिए उत्सुक भी रहते थे। यह इसलिए संभव हो सका क्योंकि संपादकीय स्वतंत्रता जनसत्ता में थी और इसका पालन होता रहा। पत्रकारी दुनिया में तब यह सवाल लोग पूछते थे कि ऐसा कैसे संभव है और अरुण शौरी को जनसत्ता क्यों नहीं छाप रहा है। जो लोग यह सवाल पूछ रहे थे , वे अब इसका रहस्य समझ गए होंगे जब उन्हें जिन कुछ घटनाओं से जनसत्ता की अपनी अलग पहचान बनी वे थे – अकाली आंदोलन, इंदिरा गांधी की हत्या और उसके बाद सिक्ख विरोधी दंगे, 1984-85 के लोकसभा चुनाव। पहले चरण में इन घटनाओं को जिस तेवर से कवर किया गया। उससे एक साफ फर्क लोगों ने महसूस किया। वहीँ जनसत्ता का चरित्र बना। उससे वह पहचाना गया। इसके मूल में संपादकीय स्वतंत्रता थी। संपादक की लाइन जो भी हो उससे ख़बरें तय नहीं होती थी। किसी को गिराने और उठाने के लिए खबर नहीं लिखी जाती थी। जनसत्ता का डेस्क दूसरे अख़बारों से ज्यादा चुस्त था। उसे ख़बरों को सही महत्व देना आता था। शीर्षकों में आकर्षण था जिससे पाठक खिंचते थे।
प्रभाष जी डेस्क पर खुद भी कॉपी ठीक करने, शीर्षक लगाने और ख़बरें देखने के लिए खुद भी घंटों बैठते थे। खबर, खबर की तरह छपती थी। उसे अख़बार की संपादकीय नीति से नहीं जांचा जाता था। खबर है तो वह छपती थी। इसकी किसी को कोई परवाह करने की जरुरत नहीं थी कि वह किसके लिए नुकसानदेह है और कौन उससे फायदा पा सकता है। संपादक ने रिपोर्टरों को पूरी आज़ादी दी। उन पर भरोसा किया। गलती करने की भी छूट दी। ख़बरों में अपनी पसंद और नापसंद को नहीं चलाया रिपोर्टर पाते थे कि संपादक उनका संरक्षक है। उन्हें किसी से भी दबने की जरुरत नहीं है। वे कहते थे –‘जब मैं संपादक की स्वतंत्रता की बात कर रहा हूं तो इसका सीधा मतलब यह नहीं है कि संपादक पने संवाददाताओं और उप संपादकों को स्वतंत्रता न दे। मैंने यहां यह काम किया और सभी संवाददाताओं को ख़बरें लिखने के मामले में स्वतंत्रता दी। आज तक मैंने कभी भी किसी संवाददाता से यह नहीं कहा कि अमुक रिपोर्ट तुमने क्यों लिखी ? हां, अगर खबर में कुछ तथ्य नहीं है या वह खबर तथ्यों के खिलाफ है तो मैं जरुर पूछता हूं कि ऐसी खबर क्यों छपी।’ इसका प्रमाण देने की जरुरत नहीं है। इसे सभी मानते हैं फिर भी इन दो उदाहरणों से समझा जा सकता है।खबर, विश्लेषण, संपादकीय और लेख लिखने में अलग-अलग दृष्टि और भाषा का इस्तेमाल इसलिए होता है कि वे अलग-अलग हैं। इस खबर में यह ध्यान नहीं रखा गया है कि पहले तथ्य, जानकारी, फिर प्रतिक्रिया और अंत में जरुरी हो तो आंकलन दिया जाये। वैसे आंकलन खबर का काम नहीं है। विश्वास कर रहा हूं कि आगे से आप इन बातों का ध्यान रखेंगें–सस्नेह प्रभाष जोशी।’
यह एक विशेष संवाददाता को दिया गया निर्देश है। यह दूसरा उदाहरण विशेष संवाददाता और डेस्क को 24 दिसंबर, 1994 को दिए गए निर्देश का है। ‘ गोटियां उखाड़ी नहीं जा सकती क्योंकि वे गाड़ी नहीं जाती। गोटियां जमाई या बिछाई जाती हैं इसलिए या तो उन्हें पीटा जा सकता है या समेटा जा सकता है। लोक में कहावतें भी पीटने/पिटने और बिछाने या समेटने की है –प्रभाष जोशी। इस परम्परा का निर्वाह उनके उत्तराधिकारी संपादकों ने नहीं किया। ख़बरें रोकने के तो अनगिनत उदाहरण हैं। एक का जिक्र काफी होगा। जनसत्ता की जिस खबर से रोमेश शर्मा गिरफ्तार हुआ और वह आज भी तिहाड़ जेल में हैं। उसका तत्कालीन मुख्यमंत्री सुषमा स्वराज ने खंडन छपवाया। उसके फ़ॉलोअप की खबर जनसत्ता में कार्यकारी संपादक के निर्देश से रोक दी गई। एक ब्यूरो चीफ को इसलिए हटाया गया क्योंकि केंद्र के एक मंत्री ने अख़बार को धमकाया।
जनसत्ता का उभार इन बातों से हो ही रहा था कि अकाली आंदोलन ने उसमें धार पैदा कर दी। अकाली नेता प्रकाश सिंह बादल संविधान की एक धारा को विरोध स्वरुप जलाने के लिए बंगला साहिब गुरूद्वारे के सेवादार निवास में आकर ठहरे थे। उसे जनसत्ता ने जिस तरह कवर किया उससे सिक्खों का अपनापन बढ़ा। हरबंश सिंह मनचंदा दिल्ली सिक्ख गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी के अध्यक्ष थे। वे आतंकवादियों के हाथों सिकंदर रोड के चौराहे पर तिलक मूर्ति के करीब गोलियों के शिकार हुए। उन्हें लोकनायक जयप्रकाश नारायण अस्पताल में ईलाज के लिए भर्ती कराया गया।रात में करीब 2 .30 बजे उनका निधन हो गया। यह खबर जनसत्ता में ही छपी। रिपोर्टर और डेस्क में पूरे ताल-मेल से ही यह संभव हो सका। उन दिनों मोबाइल फोन नहीं थे। जाहिर है कि अस्पताल से आकर ही वह खबर लिखकर दी गई। वह आतंकियों की दिल्ली में पहली वारदात थी।
ऐसी हर घटना ने जनसत्ता की पत्रकारिता को ललकारा। उसमें वह सफल हुआ। अख़बार को उससे बल मिला। घटनापूर्ण आंदोलन से पत्रकार में उमंग पैदा होती है। उसे बेहतर करने का अवसर मिलता है। जूझने की दीवानगी पैदा होती है। दीवानगी की पत्रकारिता के लिए जैसी परिस्थिति और वातावरण चाहिए वह तब था। यह सब हो और अख़बार में अनुकूलता न हो तो ऐसी पत्रकारिता नहीं हो सकती जो होगी बाँझ पत्रकारिता होगी। अखबार में अनुकूलता की पहली शर्त संपादक से जुडी होती है। दूसरे का संबंध संस्थान से है। प्रभाष जोशी के नेतृत्व में ये दोनों जनसत्ता के पत्रकारों को सहज सुलभ था। इन दो बातों के अलावा पत्रकार की अपनी समझ और उसका जज्बा भी कम महत्वपूर्ण नहीं होता। पर अगर अनुकूलता मिलती है तो आमतौर पर पत्रकार अपने अन्दर वह क्षमता पैदा कर लेता है। जनसत्ता के शुरू होने से बहुत पहले सही-सही कहें तो दस साल पहले अकाली आंदोलन की नींव आनंदपुर साहेब प्रस्ताव से पड़ गई थी। अकालियों ने यह प्रस्ताव 1973 में पारित किया था, लेकिन वे आंदोलन पर तब उतरे जब इंदिरा गांधी दुबारा सत्ता में आई और उनके समानांतर जरनैल सिंह भिंडरावाले को खड़ा कर दिया था। अगस्त 82 से अकालियों का धर्मयुद्ध शुरू हो गया। 1983 में भिंडरावाले ने स्वर्ण मंदिर को अपना ठिकाना बनाकर पंथिक मरजीवड़ों की कमान संभाल ली थी।
जनसत्ता की संपादकीय लाइन और ख़बरें हिंदी के अख़बारों में बेहतर मानी गई। चंडीगढ़ में तीन साल रहने से पंजाब की राजनीतिक समस्याओं को प्रभाष जोशी बेहतर समझते थे। इस वजह से संपादकीय लाइन साफ़ थी। जनसत्ता सिक्खों से संवाद का पक्षधर था लेकिन आतंकवाद के खिलाफ था। इस लाइन को समाज ने स्वीकारा। याद रखना होगा कि तब पंजाब केसरी दिल्ली से छपने लगा था। उसका सरकुलेशन भी ज्यादा था। वह अपनी ख़बरों में एकांगी था। नवभारत टाइम्स उलझन में था। लोगों ने जनसत्ता को नवभारत टाइम्स और पंजाब केसरी की तुलना में देखा।
अकाली आंदोलन केंद्र के एकाधिकार को चुनौती था। उससे राज्यों की स्वायत्तता का मुद्दा फिर से सामने आया।उसके समानांतर भिंडरावाले की राजनीति खड़ी हो रही थी, जिसे कांग्रेस ने हवा दी थी। वह आतंकवाद में बदल गया। नारा खालिस्तान का था जिसे इंदिरा गांधी ने हवा दी थी .उसी को दबाने के लिए इंदिरा गांधी ने स्वर्ण मंदिर में सेना भेजी जिसकी प्रतिक्रिया में वे मारी गई। उनकी हत्या से अनेक सवाल खड़े हुए। जिसकी जांच ठक्कर आयोग ने की। उस दौर में जनसत्ता ने जैसी स्वतंत्र और निष्पक्ष पत्रकारिता की उससे अख़बार को प्रतिष्ठा प्राप्त हुई। कई अख़बारों को उस समय नहीं सूझ रहा था कि क्या लाइन लें। ऐसे अख़बार सत्ता के प्रिय थे। जनसत्ता की कलम पर कोई बोझ नहीं था। न संपादक पर न संवाददाताओं पर । किसी तरह की उलझन का सवाल ही नहीं था। इसी वजह से जनसत्ता पाठकों का प्रिय अख़बार बना।
उसी दौर में अख़बार की बिक्री इतनी बढ़ी कि संपादक को लिखना पड़ा कि ‘हमारे प्रिंटर दिल के मरीज हैं और वे कह रहे हैं कि वे अब और कापियां नहीं छाप सकते। कृपया आप लोग जनसत्ता अब मिल बांट कर पढ़े।’ संपादक ने लिखा –अब बस । जनसत्ता की इस कामयाबी से एक बात साफ हो जाती है कि लोग जनोन्मुखी पत्रकारिता को पसंद करते हैं और इज्जत देते हैं .एक इंटरव्यू में प्रभाष जोशी ने याद किया कि ‘हमने जनसत्ता के पूरे स्टाफ की नियुक्ति कर ली थी, लेकिन उस वक्त तक अख़बार नहीं शुरू हुआ था। उसी दौरान एक दिन ‘एक्सप्रेस’ के लोगों ने हड़ताल कर दी। हमारे संस्थान के लोगों ने मुझसे पूछा कि क्या तुम जनसत्ता की टीम से एक दिन का ‘एक्सप्रेस’ निकाल लोगे। मैंने हां कर दी। आपको जानकर ताज्जुब होगा कि अगले रोज का ‘एक्सप्रेस’ इन्ही लोगों ने निकाला जो प्रशिक्षण पर थे। इस घटना से हमारे ‘जनसत्ता’ के सहकर्मियों में एक आत्मविश्वास पैदा हुआ कि हम हिंदी के लोग अंग्रेजी से बेहतर साबित हो सकते हैं।
इंदिरा गांधी की हत्या के दिन सिक्ख विरोधी दंगे शुरू हो गए। इसका कारण यह बताया गया कि जिन अंगरक्षकों ने प्रधानमंत्री की हत्या की वे सिक्ख थे। सच यह था कि उस दंगे को राजनीतिक फायदे के लिए कांग्रेस ने उकसाया और हवा दी थी। उसी दिन राजीव गांधी प्रधानमंत्री बनाए गए. ज्ञानी जैल सिंह राष्ट्रपति थे। वे यमन की यात्रा पर थे। लौटे और कांग्रेस संसदीय पार्टी की बैठक में नेता के निर्णय का इंतजार किए बगैर शपथ दिला दी।
सिक्ख विरोधी दंगे की कवरेज उसके हर पहलू से जनसत्ता ने की।इससे सिक्खों में जनसत्ता को अकाली पत्रिका जैसा मान मिला, लेकिन इसकी समाज के दूसरे हिस्सों में कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई। अख़बार को उन हिस्सों ने भी अपनाया।राजीव गांधी ने सिक्ख नेताओं से संवाद बनाया जो पंजाब में अमन चैन लाना चाहते थे। संत हरचंद सिंह लोंगोवाल उनके नेता थे। उस बातचीत को जनसत्ता ने बेहतर कवर किया. संत लोंगोवाल का जनसत्ता पर बहुत भरोसा था। वे समझौता वार्ता की पूरी जानकारी देते थे। कई बार देश-विदेश में बैठे अपने लोगों से जनसत्ता संवाददाता के सामने ही बात करते थे। वे पंजाबी बाग़ में सरना परिवार के यहां ठहरते थे।
समझौते के बाद वे आतंकवादियों के हाथों मारे गए। संत लोंगोवाल किसी तरह के मुगालते में नहीं थे। वे अपना अंत भी जानते थे। कौम के लिए मर-मिटने की वे अपने आप में मिसाल थे। पहले ऐसा लगा कि पंजाब समझौते से राजीव गांधी को अमन चैन कायम करने में सफलता मिल जाएगी। पर ऐसा हुआ नहीं। उसी दौर में असम और मिजोरम के समझौते से राजीव गांधी ने एक सराहनीय ख्याति अर्जित की। देश ने महसूस किया कि वे इंदिरा गांधी के टकराव का रास्ता छोड़कर अपनी राह बना रहे हैं।
यह स्थिति ज्यादा दिन नहीं रही। राजीव गांधी को रास्ते से भटकाने वाले लोगों ने घेर लिया। मीडिया में उनपर जब सवाल उठने लगे तो सलाहकारों ने राजीव गांधी से पहली भयानक गलती करवाई। मीडिया को नियंत्रित करने के लिए प्रेस बिल आया। इसका बहुत विरोध हुआ। जिससे सरकार को अपना कदम वापस लेना पड़ा। वह दौर ऐसा थे जिसमें थोड़े समय के लिए रामनाथ गोयनका भी राजीव पर मोहित थे। वे कहीं बोल चुके थे कि देश, राजीव गांधी के हाथों में सुरक्षित है और मैं अब आराम से मर सकता हूं। उनका यह राग-रंग थोड़े दिन ही टिक पाया।
गौर करने की बात यह है कि उस दौरान जनसत्ता ने अपनी विपक्षी भूमिका बनाए रखी। इंडियन एक्सप्रेस से वह पूरी तरह अप्रभावित रहा। इस कारण जो लड़ाई भ्रष्टाचार के खिलाफ छिड़ने जा रही थी उसमें जनसत्ता अपनी सार्थक भूमिका के लिए पहले से तैयार था, जो लड़ाई छिड़ी उसका मुद्दा पहले तो भ्रष्टाचार और कारोबारी नैतिकता का था। जिसमें अंबानी के तौर तरीकों से शासन में फ़ैल रहा भ्रष्टाचार सामने आया। उसे कुछ लोग कारपोरेट घराने की प्रतिद्वंदिता और जंग के रूप में जानते और मानते हैं। यह उसका एक स्वरुप होगा लेकिन उसे बड़े दायरे में देखें तो वह शासन में फैले भ्रष्टाचार के रूप में सामने आत है।
मशहूर किस्सा है कि एक दिन रामनाथ गोयनका ने धीरू भाई अंबानी को बात-चीत के लिए बुलाया। वे जानना चाहते थे कि पी.टी.आई. से जो झूठी खबर चलवाई गई क्या वह उनकी करामात थी। धीरुभाई अंबानी का जवाब सुनकर रामनाथ गोयनका सन्न रह गए। जवाब था कि ‘मेरे पास एक सोने की चप्पल है तो दूसरी चांदी की। किसे किस चप्पल से मारता हूं यह उस व्यक्ति पर निर्भर करता है कि वह है कौन ? इससे उन्होंने कहना चाहा कि हर आदमी बिकाऊ है। रामनाथ गोयनका इसे कहां बर्दाश्त करने वाले थे उन्होंने अंबानी की करतूतों का भंडाफोड़ करने का फैंसला किया। जब राजीव गांधी की सरकार अंबानी की मदद में आई तो उससे उन्हें दो-दो हाथ करने ही थे।
इंडियन एक्सप्रेस में अभियान चला। उसके नतीजे भी आए, लेकिन जो फर्क है वो जनसत्ता में देखा जा सकता है। पता लगा होगा कि अरुण शौरी की तरह प्रभाष जोशी को अंबानी के दरबार में पहुंचकर अपने लिखे पर माफ़ी मांगने की जरुरत नहीं पड़ी। पत्रकारिता की प्रतिबद्धता को लज्जित नहीं होना पड़ा। पी.टी.आई. से खबर 1985 में चलवाई गई थी। तब रामनाथ गोयनका उसके चेयरमैन थे। उस खबर पर नानी पालकीवाला ने रामनाथ गोयनका का ध्यान खींचा था। वह खबर इकोनॉमिक्स टाइम्स की रिपोर्ट का खंडन करवाने के लिए चलाई गई थी…..जारी
कृपया धीरूभाई अंबानी पर प्रभाष जोशी द्वारा लिखे गए आलेखों की प्रति यदि संभव हो तो उपलब्ध करने का कष्ट करें।
rajivrp007@gmail.com