वैसे तो हर अख़बार की अपनी शैली होती है। उसके लिए शैली पुस्तिका बनाई जाती है, जिसमें वर्तनी का विवरण रहता है। 1980 में आनंद जैन ने नवभारत टाइम्स के लिए एक लम्बी चौड़ी शैली पुस्तिका बनवाई थी। राजेन्द्र माथुर ने शैली परिपत्र जारी करने का सिलसिला चलाया। जनसत्ता ने अपनी वर्तनी बनाई। वह काम-काजी थी। भारी भरकम नहीं थी, जिसे बार-बार पढ़ना आसान था। जिसमें प्रेस की सुविधा और पाठकों का ख्याल रखा गया था। संपादक का आग्रह बार-बार होता था कि उस वर्तनी को हम अपनाये। जब वे देखते थे कि ढिलाई बरती जा रही है तो लिखकर निर्देश देते थे।
उसका ही यह एक नमूना है – साथियों… एक औपचारिक और अनुवाद की जिस भाषा को छोड़ने की कोशिश हमने पिछली अगस्त से की है। वह फिर हमारे अख़बार में आ रही है। पिछले 26 दिनों में हमारी एक पहचान बनी है और हमारी भाषा का असर हुआ है। इसे ख़त्म होने में दो दिन नहीं लगेंगे । इसलिए अनुवाद छोड़िए, घिसे-घिसाए शब्द छोड़िए, पहली लाइन में खबर दीजिए, वाक्य छोटे बनाइये और शीर्षकों में एक अनौपचारिक और घरेलू रंग लाइए। दो-वर्तनी की एक प्रति आपके पास होगी और उसे निकालकर फिर पढ़िए और जरा सख्ती से अमल कीजिये।
तीन – लम्बी और गैर जरुरी ख़बरें कम नहीं हो रही हैं । हमारी छह कालमों के कारण यों भी खबरें कम दिखती हैं। जब तक हम बेकार के शब्द और अनुवादी लम्बाई से छुटकारा नहीं पाएंगे पाठकों के साथ न्याय नहीं होगा। खबर लिखने के लिए कापी पूरी पढ़ लीजिये और बोल-चल की सधी भाषा में लिखिए। चार – सस्ता और फ़िल्मी हुए बिना भी ख़बरें अच्छी लिखी जा सकती हैं। इसके कुछ नमूने हमने खुद पेश किए हैं। हमें वापस नहीं होना है। मजेदार और मानवीय रूचि की ख़बरें ज्यादा लीजिए।
उन्हीं दिनों अख़बार के प्रचार के लिए नारे की जरुरत महसूस हुई। कुमार आनंद ने 5-6 लाइन की एक कविता बनाई। उसमें से ही वे दो लाइनें जनसत्ता की पहचान बन गईं। उसे पसंद किया गया। सबको खबर दे- सबकी खबर ले। अख़बार 17 नवम्बर, 1983 को निकला । उस समय 5 रिपोर्टर थे। जनसत्ता के संपादक ने रिपोर्टिंग की नई पद्धति बनाई। दूसरे अखबार सिर्फ दिल्ली की हलचलों पर ध्यान देते थे। जनसत्ता ने नया रिवाज़ शुरू किया। गाजियाबाद, फरीदाबाद और दिल्ली देहात को अलग-अलग बीट बनाया गया। जहां रहकर जनसत्ता के संवाददाता खबर भेजते थे। इससे राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र को कवर करने का सिलसिला शुरू हुआ।
इसकी तो काफी चर्चा हुई है कि प्रभाष जोशी 17-18 घंटे अख़बार के काम-काज में लगाते थे, लेकिन उन दिनों शायद ही किसी को इसकी भनक लगी कि वे मधुमेह की पकड़ में आ गए थे। 1 जून, 1983 को उन्हें जांच के बाद डॉक्टर ने खून में बढ़े शुगर की सुचना दी। उसपर उन्हें यकीन नहीं आया। एक हफ्ते जब ब्लड प्रेशर नॉर्मल नहीं हुआ तो डॉक्टर ने खून की जांच कराने के लिए कहा जिससे यह जानकारी निकली। उस दिन मैंने रामनाथ गोयनका को पत्र लिखा कि मुझे जीवन में पहली बार ब्लड प्रेशर रहने लगा है।
रामनाथ जी ने मुंबई से दूसरे ही दिन चार लाइन का जवाब भेजा – ‘मुझे जानकर ख़ुशी हुई कि तुम्हे ब्लड प्रेशर रहने लगा है। इसका मतलब यही है कि अब तुम कड़ी मेहनत कर रहे हो। बधाई, लगकर काम करते रहो। मेरी शुभकामनायें।’ यह पत्र प्रभाष जी के पास हमेशा रहता था। उन्हें उस समय जनसत्ता निकालने की धुन सवार थी। कोशिश कर दवा और परहेज से इस व्याधि पर काबू पाया. लेकिन रोग तो लग ही गया।
जनसत्ता की अपनी टीम को चलाने और चलाये रखने के लिए जो तरीका प्रभाष जोशी ने अपनाया वह चंडीगढ़ का आजमाया हुआ था। जो बढ़िया काम कर रहा है। उसकी सबके सामने वे तारीफ करते थे और जिन्हें प्रेरित करना होता था या चेतावनी देनी होती थी तो उसे बुलाकर बात करते थे। समझाते थे। लगातार समझाना और सुधरने का इंतजार करना उनके स्वभाव का हिस्सा था, जो नहीं सुधरे उन्हें जाना पड़ा।
ऐसी स्थिति में वे निर्मम होकर निर्णय करते थे। काम-काज में वे अपने उदाहरण को सामने नहीं रखते थे। उसे तो लोग ही देखते थे और उसका असर होता था। जनसत्ता ने हिंदी पत्रकारिता में कई नए प्रयोग किए । पत्रकारिता का नजरिया बदला, जो रिवाज बन गया था उसे मोड़ा। सत्ता से लोहा लेने की हिम्मत दिखाई। स्वतंत्र रहने और बने रहने के तरीके अपनाये। निर्भीक पत्रकारिता का उदहारण पेश किया सत्यान्वेषी नज़र रखी।
गरीब और वंचित की आवाज़ बना. उनके अधिकारों को अख़बार में जगह दी जो तब असंभव माना जाता था। नैतिक सत्ता के साथ खड़े रहने की गन्थ बांधी। इस प्रकार अख़बार ने विपक्ष की भूमिका अपने लिए चुनी। सत्ता प्रतिष्ठान का विरोध उसका मूल स्वर था। सरकार दिल्ली की हो या केंद्र की हो, उसे ही सिर्फ सत्ता मानकर विरोध का मकसद नहीं पूरा होता था। संस्था, दल और सरकार में जो सत्ताधारी थे वे सब विरोध के निशाने पर थे। उनके खिलाफ ख़बरें छपती थी।
जनसत्ता की इस मुहीम से कांग्रेस नेता एच.के.एल. भगत जितने दुखी रहते थे उससे कम नाराजगी भाजपा नेता मदन लाल खुराना को नहीं थी। इस बात की सख्त हिदायत थी कि कोई सिफारिशी खबर नहीं छपनी चाहिए। इसका पूरा ख्याल रखा जाता था। डी.डी.ए. के भ्रष्टाचार और अपराध की ख़बरों पर लीक से हटकर रिपोर्टिंग जनसत्ता में हुई। इससे उन समूहों को आवाज़ मिली जिन्हें दूसरे अख़बारों ने बे-जुबान बना रखा था। इससे जनसत्ता अख़बार से बढ़कर जन-सेवा का केंद्र बन गया था। गरीब, झुग्गी-झोपड़ी वाले, मजदूर और गांव के लोग जनसत्ता को अपना अख़बार मानते थे।
मई 1985 में भगवान दास गोयनका पुरस्कार नई दिल्ली में दिए गए अंग्रेजी के लिए प्रेम भाटिया को और हिंदी के लिए राजकुमार केसरवानी को जिन्होंने जनसत्ता में पहली बार चेतावनी दी थी कि भोपाल मौत के कगार पर बैठा है।’ इससे रामनाथ गोयनका को गर्व की अनुभूति हुई कि जनसत्ता के स्ट्रिंगर ने इतनी बड़ी चेतावनी दी। इससे पहले जनसत्ता की साफ सुथरी छपाई का पुरस्कार मिल था। वह भारत सरकार का था। शुरुआती दिनों में ही जनसत्ता सफल भी हुआ और अपने नाम को सार्थक भी किया……जारी