अंग्रेजी हुकूमत ने अवध इलाके पर अपना बर्चस्व कायम की। वह साल था 1856 का। अवध पर अंग्रेजी हुकूमत स्थापित होने के बाद अपने शासन शैली के हिसाब से काम भी शुरू किया। किसानो के शोषण की शुरूआत हुई। अंग्रेजों ने किसानों के शोषण के लिए स्थानीय ताल्लुकेदारों को अपना मोहरा बनाया। ये तालुकेदार और जमींदार अंग्रेजी शासन की पैदाइस थे। विदेशी हुकूमत का हित जमींदारों और तल्लुकेदारों के माध्यम से किसानो से अधिक से अधिक कर वसूलने में था। ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ अवध के किसान 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में ही कसमसाने लगे थे। लेकिन किसानो का जमींदारों और ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ संगठित प्रतिरोध 20वीं सदी के दूसरे दशक में अधिक प्रभावी दिखा।
गौरतलब है कि भारत में ब्रिटिश हुकूमत स्थापित होने के बाद कई आधारभूत परिवर्तन हुए। अंग्रेजों ने भारतीय कृषि व्यवस्था में भी व्यापक परिवर्तन किया। इससे देश के कृषि जगत में हलचल पैदा हुई। भारतीय कृषि व्यवस्था में परिवर्तन का परिणाम रहा कि किसान दिनो दिन कमजोर होता गया। उपनिवेशवादी आर्थिक नीतियों, परंपरागत भारतीय हस्तशिल्प के विनाश से भूमि पर अत्यधिक दबाव, नयी भू-राजस्व व्यवस्था तथा उपनिवेशवादी प्रशासनिक एवं न्यायिक व्यवस्था ने किसानों के साथ खोतिहर मजदूरों की भी कमर तोड दी। इस नई व्यवस्था में किसान लगान की ऊंची दरों, अवैध करों, भेदभावपूर्ण बेदखली एवं जमीदारी क्षेत्रों में बेगार जैसी बुराइयों से त्रस्त थे। रैयतवाड़ी क्षेत्रों में सरकार ने स्वयं किसानों पर भारी कर आरोपित कर दिये। इन तमाम कठिनाइयों के बोझ से दबे किसान अपनी जीविका के एकमात्र साधन को बचाने के लिये महाजनों से ऋण लेने हेतु विवश हो जाते थे। महाजन उन्हें ऊंची दरों पर कर्ज देकरं उसके जाल में फंसा लेते थे। अनेक अवसरों पर तो किसानों को अपनी भूमि एवं पशु भी गिरवी रखनी पड़ती थी। कभी-कभी ये सूदखोर या महाजन किसानों की गिरवी रखी गयी सम्पति को भी जब्त कर लेते थे।
शोषण की इस प्रक्रिया के चलते किसान धीरे-धीरे निर्धन लगानदाता तथा मजदूर बन कर रह गये। बडी तादाद में किसानों ने कृषि कार्य छोड़ दिया, कृषि भूमि रिक्त पड़ी रहने लगी। परिणामस्वरूप कृषि उत्पादन कम होने लगा। 1857 के विद्रोह के बाद अवध के तालुकदारों को उनकी भूमि लौटा दी गयी। इससे प्रांतों में कृषि व्यवस्था पर तालुकदारों या बड़े जमींदारों का नियंत्रण और बढ़ गया। किसानों का एक बड़ा वर्ग इन तालुकदारों या जमींदारों के मनमाने अत्याचारों से पीड़ित था।
जिनमें – लगान की ऊंची दरें, भूमि से बेदखली, अवैध कर तथा नजराना इत्यादि सम्मिलित थे। पहले विश्व युद्ध के बाद अनाज तथा अन्य आवश्यक चीजों के दाम अत्यधिक बढ़ गये। इससे उत्तर प्रदेश के किसानों की दशा अत्यंत दयनीय हो गयी।
इस दौरान यदा-कदा किसानों ने अपने ऊपर हो रहे अत्याचारों का सामान्य प्रतिरोध भी किया। अन्ततः वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि उनका मुख्य शत्रु उपनिवेशवादी शासन है। इस विदेशी हुकूमत का अंत किए बगैर उनकी मुक्ति संभव नहीं। इस क्रांतिकारी सोच के साथ किसान अंगडाई लेने लगे। उत्तर भारत में कई स्थानों पर किसानों का आक्रोश दिखा। लेकिन ब्रिटिश हुकूमत और जमींदारों की शोषण के खिलाफ किसानों का संगठित प्रतिरोध 20वीं शताब्दी के शुरूआत में ही देखने को मिलता है। इस प्रतिरोध की सबसे असरदार अभिव्यक्ति अवध में देखने को मिली।
20वीं शताब्दी का दूसरा दशक राजनीतिक एवं आर्थिक दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण माना जाता है। उस समय अन्तर्राष्ट्रीय व राष्ट्रीय एवं स्थानीय परिस्थितियों ने ऐसी पृष्ठभूमि तैयार कर दी कि अवध का काश्तकार समाज अपनी दुर्दशा के सुधार के लिए व्यग्र हो उठा। चूंकि तत्कालीन समय में भूमि ही सामाजिक स्तर का निर्धारक था, रोजगार का आधार था तथा लोगों में अपनी बचत निवेश करने का महत्वपूर्ण साधन था। ऐसी स्थिति में भूमि की मांग में तेज वृद्धि हुई थी। पहले विश्वयुद्ध के बाद औद्योगिक क्षेत्र एवं सैन्य क्षेत्र से बहुत सारे लोग निष्कासित हुए। ये लोग भी भूमि प्राप्त करने में लग गए। इस स्थिति में भूमि की मांग में हुई वृद्धि का अवध के ताल्लुकेदार वर्ग ने खूब भुनाया तथा काश्तकार वर्ग का खूब आर्थिक शोषण हुआ।
साल 1918 में मानसून की गड़बड़ी के कारण किसान अत्यन्त दयनीय स्थिति में पहुंच गया। किसान आन्दोलन की नींव सर्वप्रथम अवध क्षेत्र में इसलिए दिखती है क्योंकि अवध का क्षेत्र दबे कुचले काश्तकारों एवं सर्वशक्तिशाली ताल्लुकेदारों का क्षेत्र था। ऐसे में काश्तकारों के शोषण का कोई अन्त नहीं था। चूंकि अवध के क्षेत्र में अधिकांश काश्तकार गैर दाखिलकारी काश्तकार थे और इन्हें इस बात का भय सदा बना रहता था कि कहीं उन्हें बेदखल न होना पड़े। इसी बेदखली के भय ने तमाम बुराइयों को जन्म दिया।
अवध का किसान इतना दबा कुचला था कि अपने ताल्लुकेदारों से अपने अधिकारों की कौन कहे? बात-चीत करने तक की हिम्मत नहीं जुटा पाता था। ताल्लुकेदारी व सरकारी कर्मचारियों के गठबंधन के साथ बेवश काश्तकार एक फसल से दूसरी फसल तक सदा असुरक्षा और कर्ज का शिकार हो गया था। काश्तकारों पर बेदखली की तलवार लटकती रहती थी। सरकारी अमला भी जमींदारों व ताल्लुकेदारों का ही भक्त था। पटवारी होता तो था सरकारी कर्मचारी, परन्तु वो जमींदारों व ताल्लुकेदारों के लिए मोहर्रिर का भी कार्य करता था। गलत इन्दराज करना, दस्तावेजों को ताल्लुकेदारों के अनुकूल बनाए रखना ही मानो इनका मूल मकसद हो। काश्तकारों को ताल्लुकेदारों की तमाम उचित अनुचित सुख-सुविधाओं का ख्याल रखना होता था। मोटरवान, घोड़ावान, हथियावान, बाजावान आदि जैसे न जाने कितनी अदायगियां करनी होती थी। ताल्लुकेदार के यहां बच्चा हो, शादी हो या मृत्यु हो काश्तकार को अदायगी करनी होती थी। 7 बेगार तो करना ही था। चाहे जो मजबूरी हो अन्यथा तुरंत न्याय के नाम पर ताल्लुकेदारों के कारिन्दे काश्तकारों की धुनाई शुरू कर देते थे।
अपने को बेदखली से बचाने के लिए गैर दाखिलकारी काश्तकार हर संभव प्रयास करता था। रकम सेवई के नाम पर सस्ते दाम पर घी उपलब्ध कराता तथा फल, सब्जी, अनाज, भूसा पत्ती जैसी अदायगियां करता रहता था। इनके अतिरिक्त नजर शुल्क के नाम पर विभिन्न वसूलियां होती थी, जैसे मकान या पशु का बाड़ा बनाने पर, कोई वृक्ष लगाने पर, बाग लगाने पर या कुआं, तालाब खुदवाने पर बिना अनुमति ऐसा करने पर ताल्लुकेदार व जमींदार के जरिए जुर्माना वसूला जाता था। वीएन मेहता (तत्कालीन डिप्टी कमिश्नर) – अपनी रिपोर्ट में इस बात का उल्लेख किया कि काश्तकारों की स्थिति इतनी खराब थी कि वो बेटी बेचने जैसी जघन्य सामाजिक एवं धार्मिक अपराध करने को बाध्य था। प्राचीनकाल में तालाब व जंगल आदि का प्रयोग स्वतंत्र रूप से होता था परन्तु अब ये जमींदार की सम्पत्ति हो गए। इनके प्रयोग के लिए नजराने वसूले जाते। तालाबों को पाटकर खेत बना दिए गए जिससे सूखे की स्थिति में काश्तकार के पास सिंचाई का कोई साधन न था।
इस प्रकार अंग्रेजी हुकूमत ने जमींदारों के जरिए किसानो के अन्तहीन शोषण ने इनका जीवन अत्यन्त दुःखद बना दिया था। इसी अन्तहीन शोषण ने इन गैर दाखिलकारी काश्तकारों में वर्गचेतना भरी व मूक किसान अपने अधिकारों के लिए उठ खड़ा हुआ। बिहार प्रान्त के चम्पारन में गांधी जी द्वारा किए गए सत्याग्रह ने भी अवध क्षेत्र के किसानो में अपनी समस्याओं से निजात पाने के लिए एकजुट होने के लिए प्रेरित किया। किसानों के लिए गांधी किसी मसीहा से कम नही थे। इन विपरीत परिस्थितियों में किसान एकजुट हुए और प्रतापगढ़ जिले के रूरे गांव में बैठक की। इस बैठक में झिंगुरी सिंह, ठाकुरदीन, सूरज प्रसाद, वृजपाल सिंह व मादारी पासी थे। बैठक में किसान नेताओं ने सर्वसम्मति से किसानों के हित में निम्न कार्यक्रम तय किया –
- निर्धारित समय से पूर्व लगान अदायगी।
- जंगली इलाकों को मवेशियों के चारागाह के लिए आरक्षित किया जाए।
- राहत की व्यवस्था एवं कुएं की खुदाई का अधिकार प्राप्त हो।
- बगीचे की व्यवस्था हो।
- आधी जमीन में अनाज वाली फसले और आधी में कपास की खेती हों, तहसील में मिलें खोली जायें जिससे निष्कासित लोगों को काम मिल सके।
- हर तीन कोस पर बीज या अनाज डीपों खोले जाय।
- उपदेशिकाओं के माध्यम से स्त्री शिक्षा को बढ़ावा दिया जाए।