जब गांधी ने कांग्रेस को छोड़ दिया

 

रामबहादुर राय

स्वाधीनता संग्राम में 1934 का साल हर तरह से मील का पत्थर है। उसी साल महात्मा गांधी ने हिन्दू समाज में छुआछूत और ऊंच-नीच के भेदभाव को दूर करने के लिए अपनी राष्ट्रव्यापी यात्रा पूरी की। वर्धा को नया ठिकाना बनाया। साबरमती आश्रम नहीं लौटे। वर्धा में सेवाग्राम बसाया। कांग्रेस छोड़ दी। उससे पहले सरदार पटेल को लंबा पत्र लिखा। पत्र में बताया कि ‘कांग्रेस और भारत राष्ट्र के हित चिंतन से वे यह समझ सके हैं कि कांग्रेस से हर तरह का संबंध तोड़ लेना ही उचित है।’ उन्होंने यह भी लिखा ‘मैं नाराज होकर, तैश में आकर या निराशा के कारण पृथक नहीं हो रहा हूं।’ वह कांग्रेस को आजाद कर रहे थे और अपनी इच्छानुसार काम करने के लिए खुद आजाद हो रहे थे। उसके बाद के तीन वर्ष उन्होंने राजनैतिक कार्यों में नहीं, ग्रामीण अर्थव्यवस्था के अध्ययन, मनन और ग्रामोद्धार के काम में लगाए। गांधीजी ने कांग्रेस क्यों छोड़ी? क्या उससे वे विमुख हो गए? ये प्रश्न ऐतिहासिक संदर्भ के हैं। इन प्रश्नों का संबंध कांग्रेस के संविधानवाद से भी है, लेकिन सिर्फ उससे ही नहीं है।

गांधीजी के कांग्रेस छोड़ने की अनेक व्याख्याएं हुई हैं। आचार्य जे.बी. कृपलानी इस निर्णय का संबंध सत्याग्रह के स्थगन में देखते हैं। क्या सत्याग्रह इसलिए उन्होंने स्थगित किया कि कांग्रेस के कुछ नेताओं को संसदीय राजनीति में भेजना चाहते थे? यह सच है कि 4 अगस्त, 1934 को गांधीजी पटना में थे। भूकंप के भयानक विनाश- लीला के बाद राहत कार्यों को देखने पहुंचे थे। वहीं डॉ. मुख्तार अंसारी, भूला भाई देसाई और डॉ. विधान चंद्र राय उनसे मिलने पहुंचे। वे विधान परिषद में प्रवेश पर उन्हें सहमत कराना चाहते थे। गांधीजी ने तब अपना विचार नहीं बदला। वे परिषद प्रवेश के विरोध में थे। उस भेंट के बाद गांधीजी ने सत्याग्रह, जो व्यक्तिगत स्तर पर चल रहा था, उसे स्थगित किया। इस बारे में आचार्य कृपलानी ने सत्याग्रह स्थगन का यह कारण बताया है, ‘कभी-कभी ऐसा होता था कि गांधीजी सही कार्य करते थे मगर वे उसके ऐसे कारण गिनाते थे, जो अतार्किक लगते थे। सत्याग्रह की ताकत चुक गई थी। तब शायद ही कोई गिरμतारी दे रहा था।

गांधीजी ने जो कारण बताया, वह अजीबोगरीब था। उन्हें यह पता चला कि उनके आश्रम के महत्वपूर्ण सदस्यों में से एक ने जेल अधिकारियों द्वारा दिया गया कार्य करने से इंकार कर दिया था। इसलिए उन्होंने व्यक्तिगत सत्याग्रह भी स्थगित कर दिया। अपने आप तक वे सीमित हो गए।’ बी.आर. नंदा ने इसका वर्णन पूरे संदर्भ सहित किया है, ‘सविनय अवज्ञा के चार वर्ष बाद भी अंग्रेजों का हृदय परिवर्तन नहीं हो पाया था, उनकी कटुता, कठोरता और कांग्रेस के प्रति संदेहशीलता पहले से ही थी, और हिंसक प्रतिरोध अब भी जहां-तहां घटित हो रहा था। इसलिए गांधीजी इस नतीजे पर पहुंचे कि साधारणजन अहिंसा के उनके संदेश को ठीक तरह से आत्मसात नहीं कर पाया है। उन्होंने जरूरी समझा कि अहिंसा व्रत को पूरी तरह लोग आत्मसात करें, इसके लिए उन्हें सविनय अवज्ञा कार्यक्रम के व्यक्तिगत सत्याग्रह को स्थगित कर रचनात्मक कार्यक्रम आरंभ करना चाहिए।’ इसे ही नंदा ने इन शब्दों में विस्तार से समझाया है- ‘गांधीजी का यह विश्वास भी दृढ़ होता गया कि उनके कुछ अनुयायियों को उनके तरीकों और विचारों से अरुचि हो गई है और उनसे सहमत न होते हुए भी वे उनकी नीतियों को स्वीकार करने का बहाना करते हैं। उनका ऐसा ख्याल भी होता जा रहा था कि कांग्रेस पर उनका व्यक्तित्व इस कदर छा गया है, जिससे उसके लोकतांत्रिक ढंग से काम करने में बाधा पहुंचती है। अनुयायियों की ऐसी श्रद्धा-भक्ति को न वह उचित समझते थे और न सहन ही कर सकते थे। और फिर अकेला सविनय अवज्ञा का स्थगन ही मतभेद का कारण नहीं था।

दृष्टिकोण संबंधी मतभेद तो और भी कई थे, लेकिन जब तक सरकार से संघर्ष चलता रहा, वे दबे पड़े रहे, तीव्रता से उभरकर ऊपर नहीं आए। आंदोलन के शिथिल होते ही मतभेदों ने उग्र रूप धारण कर लिया। अस्पृश्यता-निवारण के संबंध में गांधीजी के नैतिक और धार्मिक दृष्टिकोण को उनके बहुत से अनुयायी सही नहीं मानते थे। जब गांधीजी ने चरखा चलाने पर फिर से जोर देना शुरू किया और उसे ‘राष्ट्र का दूसरा फेफड़ा’ कहा तो उनके अनेक सहयोगियों को उनकी यह बात भी उचित नहीं लगी। उदयीमान समाजवादी गुट को वह स्वयं अविश्वास की दृष्टि से देखते थे और उसे ‘जल्दबाजों’ की टोली कहते थे।’ ‘लेकिन कांग्रेस के बुद्धिजीवी वर्ग और उनके विचारों में सबसे अधिक अंतर था अहिंसा के प्रश्न को लेकर। उन्हें यह देखकर बड़ी पीड़ा होती थी कि लगातार पंद्रह वर्ष तक सिखाने और आचरण करने के बाद भी अपने को गांधी- मतावलंबी कहने वाले लोग अहिंसा को न तो ठीक से समझ पाए थे और न अपना ही सके थे।

सामूहिक सविनय अवज्ञा आम कांग्रेस जन को जरूर पसंद आई थी, लेकिन वह तो गांधीजी की अहिंसात्मक कार्यप्रणाली का सिर्फ एक अंग थी। रचनात्मक कार्यक्रम उसका दूसरा पहलू था, जिसे अधिकांश कांग्रेसजन अराजनैतिक समझते थे। इन मतभेदों के ही कारण गांधीजी अक्टूबर, 1934 में कांग्रेस से अलग हो गए।’ उन्होंने 17 सितंबर, 1934 को कांग्रेस छोड़ने की घोषणा की थी। जिसे 29 अक्टूबर, 1934 को अपनाया। घोषणा पर अमल में करीब डेढ़ महीने का अंतराल आया। कारण कि कांग्रेस का अधिवेशन होने वाला था। जिसमें डॉ. राजेंद्र प्रसाद अध्यक्ष बनाए गए और आचार्य जे.बी. कृपलानी पहली बार कांग्रेस के महासचिव हुए। इन दोनों नेताओं के हाथ में कांग्रेस को सौंप कर गांधीजी उस रास्ते पर बढ़े जो उनके सपने के भारत के लिए जरूरी प्रयोग थे। कांग्रेस के उस अधिवेशन ने गांधीजी का इस्तीफा मंजूर किया। साथ ही, अखिल भारतीय ग्रामोद्योग संघ की स्थापना का प्रस्ताव पारित किया।

गांधीजी कांग्रेस को आजाद कर रहे थे और अपनी इच्छानुसार काम करने के लिए खुद आजाद हो रहे थे। उसके बाद के तीन वर्ष उन्होंने राजनैतिक कार्यों में नहीं, ग्रामीण अर्थव्यवस्था के अध्ययन, मनन और ग्रामोद्धार के काम में लगाए।

गांधीजी ने कांग्रेस क्यों छोड़ी? यह प्रश्न स्वाधीनता संग्राम का अब भी एक अनुत्तरित प्रश्न बना हुआ है। इस अर्थ में यह यक्ष प्रश्न भी है। कोई युधिष्ठिर ही इसका उत्तर दे सकेगा। लेकिन ऐसा भी नहीं है कि इसके कारणों की मीमांशा न हुई हो। स्वाधीनता संग्राम का संबंध स्वतंत्र भारत की राज्य व्यवस्था की कल्पना से अविच्छिन्न रूप से संबद्ध रहा। इसलिए एक गुत्थी बनी हुई है। जिन लोगों ने इसे समझने और फिर सुलझाने के प्रयास किए, उनमें एक प्रोफेसर देवेंद्र स्वरूप भी थे। उन्होंने इस प्रश्न को एक संदर्भ प्रदान किया। यह रेखांकित किया कि ‘26 जनवरी, 1931 की सायंकाल जब गांधीजी यरवदा जेल से बाहर आए, तब वे अपनी लोकप्रियता के चरम शिखर पर थे। नमक सत्याग्रह के अखिल भारतीय विराट रूप और उसमें नारी शक्ति के साहस भरे भारी योगदान ने पूरे विश्व को चमत्कृत कर दिया था। पर तीन वर्ष से भी कम समय में 29 अक्टूबर, 1934 को गांधीजी ने अपने द्वारा गढ़ी गई कांग्रेस की प्राथमिक सदस्यता से त्यागपत्र की सार्वजनिक घोषणा करके भारत और विश्व को चौंका दिया। इन तीन वर्षों में ऐसा क्या हुआ कि गांधीजी को इतना बड़ा निर्णय लेना पड़ा?’ महात्मा गांधी ने अपने निर्णय के कारण बताए थे।

एक बयान जारी किया था। कारणों का पूरा वर्णन उसमें है। उससे भिन्न एक दृष्टिकोण प्रो. देवेंद्र स्वरूप का है। वह यह कि गांधीजी के इस निर्णय को ‘एक प्रकार से अंग्रेजों की कूटनीतिक विजय कहना होगा।’ कैसे वह अंग्रेजों की कूटनीतिक विजय थी? इसे यह अंश समझाता है-‘सन 1857 की महाक्रांति की विफलता के साथ भारत में अंग्रेजों की सैनिक और राजनीतिक विजय अपनी पूर्णता पर पहुंच गई थी। वे अपनी इस विजय को बौद्धिक और सांस्कृतिक विजय का रूप देने के लिए सक्रिय हो गए थे। भारतीय समाज को उन्होंने नि:शस्त्र कर दिया था। भारत सन 1857 की विफलता से कुछ समय के लिए सुन्न पड़ा था। भारत के भावी राजनीतिक एजेंडे की दशा-दिशा का निर्धारण अंग्रेजी सभ्यता एवं संस्थाओं से अभिभूत, अंग्रेजी शिक्षित भारतीयों के हाथों में चला गया था। 9 जनवरी, 1915 को भारत वापसी के बाद गांधीजी ने वह राजनीतिक पहल अंग्रेजों से छीनकर अपने हाथ में ले ली थी। उन्होंने ब्रिटेन के साथ भारत के संघर्ष को राजनीतिक धरातल से उठाकर दो सभ्यताओं के संघर्ष के धरातल पर पहुंचा दिया था।

सन 1909 में उन्होंने ‘हिन्द स्वराज’ में यह लिखकर कि पाश्चात्य सभ्यता स्वीकार नहीं है, क्योंकि उसमें लेने लायक कुछ नहीं है, वह मनुष्य को अच्छा मनुष्य बनाने की क्षमता नहीं रखती। गांधीजी ने मशीनचालित शहरी सभ्यता को पूरी तरह ठुकरा दिया था। नेहरू के साथ उनका अक्टूबर, 1945 का पत्राचार इसका प्रमाण है कि स्वतंत्रता के प्रवेश द्वार पर खड़े होकर भी वे स्वाधीन भारत के इस कल्पना चित्र पर अडिग थे। स्वराज के अपने चित्र का साधन बनाने के लिए ही उन्होंने सन 1920 में कांग्रेस का नया संविधान बनाया, उसकी प्राथमिक सदस्यता के नए नियम निर्धारित किए, सामूहिक सत्याग्रहों एवं रचनात्मक कार्यक्रमों के माध्यम से अपनी कल्पना के भारत की आधारभूमि तैयार करने की कोशिश की।’ ‘सत्य, अहिंसा, ब्रहा्रचर्य, अपरिग्रह और सादगी जैसे उदात्त नैतिक मूल्यों पर आधारित समाज की रचना का अधिष्ठान केवल खोखला शब्दाचार राजनीतिक कार्यक्रम नहीं हो सकता था, इसलिए उन्होंने अपने स्वयं के जीवन को उदाहरण के रूप में प्रस्तुत करने की कठोर साधना की। वस्तुत: सन 1915 में वे एक आध्यात्मिक शक्तिपुंज बनकर भारत वापस लौटे थे।

भारत आने से पूर्व ही उनकी ख्याति भारत पहुंच चुकी थी। सन 1909 की लाहौर कांग्रेस में गोपाल कृष्ण गोखले द्वारा उनका स्तुतिगान और सन 1915 में उनकी भारत वापसी का स्वागत करते हुए उस समय समाचार पत्रों के संपादकीय व अनेक सांस्कृतिक संस्थाओं के प्रस्ताव इस बात के प्रमाण हैं कि भारतीय समाज ने उनके आगमन को किसी देवदूत के अवतरण के रूप में देखा था। अपनी जीवन-शैली, अपनी शब्दावली और लंबे उपवासों व सत्याग्रह की संघर्ष विधि से उन्होंने राजनीतिक एजेंडा की पहल अंग्रेजों से छीन ली थी। उनकी जीवन-शैली का भारतीय समाज पर नैतिक प्रभाव, उनकी शब्दावली से भारतीय मानस में जागृत स्पंदन और उनके संघर्ष की भावी रूपरेखा को समझने में अंग्रेज स्वयं को असमर्थ पा रहे थे। तभी से गांधीजी और अंग्रेजों के बीच एक कूटनीतिक युद्ध छिड़ गया था। अंग्रेज अपनी तथाकथित संवैधानिक सुधार प्रक्रिया के माध्यम से भारतीय स्वाधीनता आंदोलन को राजनीतिक परिधि में सीमित रखने के लिए प्रयत्नशील थे, जबकि गांधीजी पूरे समाज को उससे जोड़ने की कोशिश में लगे थे। उसे एक व्यापक सामाजिक आधार देने में लगे हुए थे। अत: ब्रिटिश कूटनीति का एकमात्र लक्ष्य इस सामाजिक आधार को विखंडित करना बन गया था।’

 

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