। लेकिन पत्रकारिता मिशन तो तब थी जब देश के सामने स्वाधीनता का मर मिटने वाला लक्ष्य था। एक स्वाधीन लोकतान्त्रिक देश की पत्रकारिता का वह मिशन कभी नहीं हो सकता जो स्वाधीनता के लिए संघर्षरत देश का था। इसलिए हिंदी पत्रकारिता से इसी तरह के मिशन हो जाने की अपेक्षा रखना इसे अपने प्राप्त कर्तव्य से विमुख कर के अतीत जीवी बनाना है। लेकिन यह सही भी है कि देश व्यवसाय नहीं ही और किसी भी प्रगतिशील आधुनिक लोकतान्त्रिक देश की पत्रकारिता सिर्फ व्यवसाय नहीं हो सकती। हुनर को या कौशल को व्यवसाय नहीं कहा जा सकता। कौशल को वृहतर लोकतांत्रिक समाज के लक्ष्यों की प्राप्ति में लगा कर लगभग मिशन में बदला जा सकता है। धंधे में, उद्योग में, और कौशल में बुनियादी फर्क है। जब तक कौशल के साथ पत्रकारिता सही और तथ्यपरक जानकारी देने और निर्भीकता से अपना दृष्टिकोण रखने का माध्यम बनी रहेगी तब तक वह सिर्फ व्यवसाय के लेन – देन वाले धंधे में नहीं बदल सकती। राजनैतिक और आर्थिक धंधेबाजी के बोलबाले वाले इस ज़माने में भी पत्रकारिता को अपने धर्म पर टिकाये रखने वाले लोगों की कमी नहीं रही है। अगर ये लोग और ऐसी पत्रकारिता नहीं होती तो प्रेस आज इस देश में स्वतंत्र और इतनी शक्तिशाली नहीं होती।’
‘इसलिए पत्रकारिता अगर मिशन से कौशल हो जाये तो इसे पतन नहीं मानना चाहिए .कौशल से किया गया कर्म योग माना गया है। कौशल से पत्रकारिता की जाये और उसका धर्म सही जानकारी और निष्पक्ष राय मानी जाये तो वह नए भारत में मिशन जैसा काम ही करेगी। जनसत्ता कलकत्ता में इसलिए भी आया है कि बंगाल और पूर्वोत्तर में बसे लाखों लाख हिंदी भाषियों को उनके घर, गांव और प्रदेश की जानकारी दे सके। राजस्थान, बिहार और उत्तर प्रदेश में ही नहीं हरियाणा, पंजाब, हिमाचल और मध्यप्रदेश में भी जनसत्ता और इंडियन एक्सप्रेस का जानकारी बटोरने का व्यापक और सघन जाल है। ये ख़बरें हैं, जिन्हें पाने के लिए इधर के हिंदी भाषी उत्सुक रहते हैं। जनसत्ता कोशिश करेगा कि वह आप को घर बैठे अपने देश लाए।’
‘लेकिन आपको अपने देस की ख़बरों के अलावा अपने देश और उसकी राजधानी की हलचल का खुलासा भी चाहिए। पूरब के हिंदी भाषियों का इधर की अर्थव्यवस्था को बनाने और उसे चलाने में जबर्दस्त योगदान है। यहां बिहार और उत्तर प्रदेश की मजदूरी और मारवाड़ की पूंजी लगी हुई है। अपनी मजदूरी और पूंजी से हिंदी भाषियों ने बंगाल और पूर्वोत्तर की खूब सेवा की है। इन उद्यमियों और मेहनती लोगों की अपनी समस्याएं और कठिनाइयां भी हैं। जनसत्ता इन हिंदी भषियों की आवाज़ बनना चाहता है। जनसत्ता इन हिंदी भाषियों की खबर दिल्ली, बम्बई, लखनऊ, पटना, जयपुर, भोपाल और चंडीगढ़ ले जाना चाहता है देस के लोगों को भी तो मालूम होना चाहिए कि पूर्वोत्तर में बसे हिंदी भाषी क्या भुगत रहे हैं और क्या भोग रहे हैं। बोली में कहें तो जनसत्ता आपके लिए देस की चिटठी है और देस के लिए आपकी चिटठी। राम राम बांचना से कम लिखा है ज्यादा समझने तक। जनसत्ता आपकी मिटटी से आपको जोड़ना चाहता है। आप जनसत्ता को अपनाएंगे तो यह आपके हाथ का औजार भी होगा और हथियार भी।’
‘हम जानते हैं कि यह बहुत बड़ी जिम्मेदारी है लेकिन इसे हम विनम्रता से उठा रहे हैं। पहले दिन में सब कुछ नहीं हो जाता और अख़बार कोई फिल्म नहीं ही जो चढ़ कर उतर जाये। अख़बार एक समाज के साथ बनता और बिगड़ता है। अख़बार पढ़ने वालों और उसे निकालने वालों के बीच का विश्वास है। जो अख़बार यह विश्वास बनाए रखता है वह समाज में बना रहता है। आप से हम एक नए विश्वास का संबंध आज शुरू कर रहे हैं। जनसत्ता के पास उसके घराने के तमिल, तेलुगु, कन्नड़, मराठी, गुजराती और अंग्रेजी अखबारों का संबल है। उसके पास भारतीय पत्रकारिता के पितृ पुरुष रामनाथ गोयनका की कीर्ति, कमाई और धरोहर है और रामनाथ जी ने भी शुरुआत इसी महानगर कलकत्ता से की थी। हम हिंदी भाषियों की सेवा में निकल रहे हैं और सेवक को कोई भय नही होता। विनोबा ने कहा था कि सूरज से बड़ा सेवक कौन है। वह झकझोर कर किसी को जगाता नहीं। उसकी धुप और उसका उजाला चुपचाप बाहर खड़े रहते हैं। जैसे ही आप दरवाजा खोलते हैं धूप और उजाले से घर भर जाता है। हिंदी पत्रकारिता हमें सेवक की यह विनम्रता दे- हिंदी पत्रकारिता की गंगोत्री से हम यही आशीर्वाद लेने आए हैं।’….जारी