राज्य तंत्र में कम्युनिस्टों की घुसपैठ

बनवारी

भारत के बारे में कार्ल मार्क्स की जानकारी बहुत सतही थी। अपने जीविकोपार्जन के लिए कार्ल मार्क्स ने अमेरिकी अखबारों के लिए लिखा है। भारत के बारे में उनकी अधिकांश टिप्पणियां अमेरिकी अखबारों के लिए लिखी गई ऐसी ही पत्रकारीय टिप्पणियां हैं। इनमें भारत के प्रति कार्ल मार्क्स का अज्ञान ही नहीं झलकता, यह टिप्पणियां यूरोप के औपनिवेशिक पूर्वाग्रहों से भरी हुई हैं। कई जगह तो वे एक कुत्सिक बुद्धि से भरी हुई टिप्पणियां दिखाई देती हैं। भारतीयों के धार्मिक विश्वासों का मखौल उड़ाते हुए उन्होंने जो घृणास्पद टिप्पणियां की हैं, वे तो इस कोटि में आती ही हैं, भारत के ग्राम समाज और उनकी स्वशासन की परंपरा के बारे में की गई टिप्पणियां भी इसी कोटि की हैं। लेनिन को लिखे एक पत्र में कार्ल मार्क्स ने स्वयं यह स्वीकार किया है कि भारत के बारे में उन्हें कोई विशेष जानकारी नहीं है। लेकिन केवल भारत के बारे में ही नहीं यूरोप के बाहर की दुनिया के बारे में उन्हें कोई समझ नहीं है।

फिर भी यूरोप के इतिहास की अपनी सरलीकृत व्याख्या को उन्होंने पूरी दुनिया पर लागू करने का प्रयत्न किया। उन्होंने भारत के इतिहास का भी उसी सरलीकृत ढंग से विश्लेषण प्रस्तुत किया, जैसा वे यूरोपीय इतिहास का कर रहे थे। यह विश्लेषण करते हुए उन्होंने भारतीय इतिहास पर और भारतीय समाज पर निंदनीय टिप्पणियां की हैं। उन्होंने भारतीय ग्राम समाज को जड़, गतिहीन और सड़नशील बताते हुए ब्रिटिश उपनिवेशवाद की वकालत की। कार्ल मार्क्स  की भारत के बारे में की गई ऐसी टिप्पणियों ने बहुत से भारतीय मार्क्सवादियों को भी लज्जित किया। डीडी कोशाम्बी से लगाकर इरफान हबीब तक ने काल मार्क्स  के बचाव में यह तर्क दिया है कि वे भारत की परिस्थितियों से अनभिज्ञ थे और उन्होंने हेगेल आदि की टिप्पणियों को ज्यों का त्यों स्वीकार कर लिया था। लेकिन यह किसी एक देश के बारे में अज्ञान की बात नहीं है। यूरोपीय साम्राज्यवाद से ही यूरोप में पूंजीवाद का उदय हुआ था। काल मार्क्स के लिए पूंजीवाद ऐतिहासिक विकास की अगली कड़ी थी। इसलिए कार्ल मार्क्स को यूरोप का साम्राज्यवाद प्रगतिशील नजर आ रहा था। शेष सभी देश, जो उस साम्राज्यवाद का शिकार बने थे, वे उनकी दृष्टि में पिछड़े थे और उनके तिरस्कार के पात्र बने। यही कारण है कि कार्ल मार्क्स ने 1857 की क्रांति को प्रतिगामी शक्तियों की निंदनीय कोशिश बताया था।

भारत के बारे में की गई कार्ल मार्क्स की इन टिप्पणियों की सबसे महत्वपूर्ण बात यही है कि उनमें भारतीय समाज और सभ्यता का पूर्ण तिरस्कार झलकता है। कार्ल मार्क्स कोई विचारक नहीं थे। वे उस समय के यूरोप की राजनैतिक परिस्थितियों में मजदूरों का पक्ष लेकर एक विचार-युद्ध आरम्भ कर रहे थे। इस विचार-युद्ध की सामग्री उस समय के बौद्धिक जगत की कुछ प्रचलित मान्यताओं से बनी थी। इन मान्यताओं में हेगेल की दंवंदात्मकता, विकासवाद और ब्रिटिश आर्थिक चिंतकों की बाजार संबंधी धारणाएं मुख्य थीं। कार्ल मार्क्स उस समय की राजनीतिक उथल-पुथल को एक दिशा देने का प्रयास कर रहे थे। उन्हें लग रहा था कि उनकी दिखाई दिशा ही इतिहास की नियति है। इसलिए उस राजनीतिक उथल-पुथल के केंद्र यूरोप में ही उन्हें मानव सभ्यता का उत्कर्ष दिखाई दे रहा था। यूरोप के बाहर के सभी समाज उनके लिए असभ्य और बर्बर समाज थे। जिस भारत पर यूरोपीय जाति का एक देश विजयी हुआ था, उसे असभ्य और बर्बर समझना कार्ल मार्क्स के लिए स्वाभाविक था। भारत की निंदा और तिरस्कार में एक कदम और आगे जाकर उन्होंने यह घोषित कर दिया कि भारत हमेशा पराजित ही होता रहा है। अपनी बर्बर व्यवस्थाओं और जड़ता के कारण वह दूसरों द्वारा शासित होने योग्य ही है।

कार्ल मार्क्स की भारत संबंधी ऐसी सब टिप्पणियों को पढ़कर भी कोई भारतीय मार्क्सवादी हो सकता है, यह आश्चर्य की बात लगती है। लेकिन सभी समाजों में ऐसे आश्चर्य प्रकट होते ही रहे हैं। भारत में अंग्रेजी शिक्षा जैसी आत्महीनता पैदा कर रही है, उसमें मार्क्सवादी विचार का पनप जाना कोई विलक्षण बात नहीं है। लेकिन भारत में कम्युनिस्ट आंदोलन कोई कार्ल मार्क्स को पढ़-समझकर विकसित हुआ हो, ऐसा नहीं है। रूस में बोल्शेविक क्रांति से पहले भारत में कार्ल मार्क्स की तरफ किसी का ध्यान नहीं गया था। भारत के कम्युनिस्ट आंदोलन का जन्म 17 अक्टूबर 1920 को ताशकंद में हुआ था। रूस में बोल्शेविकों की विजय ने सर्वहारा की क्रांति का ऐसा आडंबर रच दिया था कि भारत के भी बहुत से पढे़-लिखे युवा उसके प्रभाव में आ गए। भारत में यह प्रभाव आरंभ में बाहर से ही आया। यूरोपीय विश्वविद्यालयों में पढ़ रहे भारतीय रूसी क्रांति और उसके द्वारा उछाले गए क्रांतिकारी नारों के मोह में फंस गए।

भारत में कम्युनिस्ट पार्टी का विधिवत गठन 1925 में हुआ। तब तक भारत के स्वाधीनता संग्राम का नेतृत्व महात्मा गांधी के हाथ में आ गया था। 1925 से लेकर 1947 तक सारा कम्युनिस्ट आंदोलन दुविधा से ग्रस्त रहा। यह वह समय था, जब यूरोपीय शक्तियां दो खेमों में बंटी हुईं थीं। दोनों महायुद्धों के बीच रूस मित्र राष्ट्रों के उसी खेमे में था, जिसमें ब्रिटेन था। इसलिए ब्रिटेन के हितों को नुकसान पहुंचाने का अर्थ था रूस के हितों को नुकसान पहुंचाना। भारत के कम्युनिस्टों पर रूस का सीधा नियंत्रण था, इसलिए वे सारे स्वाधीनता आंदोलन में एक किनारे खड़े रहे। 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान तो उन्होंने ब्रिटिश शासन के लिए गुप्तचरी करते हुए स्वतंत्रता सेनानियों को पकड़वाने का काम किया। महात्मा गांधी को कम्युनिस्टों ने पूंजीपतियों का दलाल कहने में भी संकोच नहीं किया। वैसे भी मार्क्सवादी शिक्षण में उन्हें यूरोपीय साम्राज्यवाद की प्रगतिशील भूमिका ही दिखाई जाती थी। स्वतंत्रता प्राप्ति तक कम्युनिस्ट आंदोलन अंग्रेजी शिक्षा से पैदा होने वाली आत्महीनता से ही सिंचित होता रहा। महात्मा गांधी के नेतृत्व के कारण देश में कम्युनिस्टों के किसान और मजदूर संगठनों को कोई विशेष सफलता नहीं मिली।

भारत के स्वतंत्र होने के बाद कम्युनिस्टों ने राज्य तंत्र में घुसपैठ की कोशिश आरंभ की। रूस भी इसी में अपना हित देख रहा था। यह महत्वपूर्ण बात है कि जवाहरलाल नेहरू समाजवादियों और हिन्दू राष्ट्रवादी संगठनों से तो वितृष्णा अनुभव करते थे, लेकिन कम्युनिस्टों को निरंतर उनका संरक्षण मिलता रहा। इसका सीधा सा कारण यह था कि जवाहरलाल नेहरू और कम्युनिस्ट दोनों यूरोपपरस्त थे और समाजवादी नेता तथा हिन्दू राष्ट्रवादी नेता राजनीति को भारतीय मान्यताओं से जोड़ने की मांग कर रहे थे। लेकिन राज्य से निकटता के कारण कई कम्युनिस्ट नेताओं को यह दिखाई देने लगा कि कम्युनिस्ट आंदोलन के विस्तार के लिए संघर्ष शिथिल पड़ रहा है। 1953 में स्टालिन की मृत्यु के बाद रूस के नए नेता स्टालिन युग की विभीषिकाओं को उजागर करने लगे थे। इससे भारत के कम्युनिस्टों को वर्ग संघर्ष निंदित होता नजर आया। उनमें से एक वर्ग स्टालिन को क्रांतिकारी सिद्ध करने में लग गया और मुख्यतः इसी कारण 1964 में कम्युनिस्ट पार्टी विभाजित हो गई।

भारत में कोई वर्ग संघर्ष न छेड़ पाने की निराशा कम्युनिस्टों को रूस और चीन में नायक तलाशने की ओर ले गई। उन्होंने स्टालिन में ही कम्युनिस्ट सत्ता का नायक नहीं देखा, माओ में भी इसी तरह का नायक देखने की कोशिश की। 1962 में भारत पर चीन के आक्रमण के दौरान अधिकांश कम्युनिस्ट नेता यह समझाने में लगे थे कि चीन ने भारत पर नहीं, भारत ने चीन पर आक्रमण किया है। कुछ दुस्साहसी कम्युनिस्ट माओ की तस्वीर लिए एक कम्युनिस्ट रैली में भी सम्मिलित हो गए। चीन के आक्रमण ने पूरे देश को एकजुट कर दिया था और संसदीय राजनीति में पड़े कम्युनिस्ट नेताओं को यह समझते देर नहीं लगी कि माओ भक्ति उनका राजनैतिक भविष्य चौपट कर सकती है। पर इसने संसदीय राजनीति से हटकर वर्ग संघर्ष का मार्ग तलाशने और हिंसक प्रतिरोध संगठित करने वाले एक नए समूह को जन्म दिया। नक्सल आंदोलन के रूप में जानी जाने वाली इस धारा में अब तक अनेक विभाजन हो चुके हैं और अनेक दल उदित होते रहे हैं। हिंसा को अपनी राजनीति का आधार बनाने वाले इन नेताओं को अंततः आदिवासी क्षेत्रों में अपनी शरण स्थलियां मिली हैं। वह राज्य तंत्र के लिए सिर दर्द अवश्य बने रहे हैं, पर वे क्रांति का कोई मार्ग प्रशस्त करने में सफल हुए हो, ऐसा दावा उनका बड़े से बड़ा समर्थक भी नहीं कर सकता। मार्क्सवादी यह समझने में तो असमर्थ हैं ही कि हिंसा से निरंकुश व्यवस्था ही खड़ी होती है, न्यायशील व्यवस्था नहीं।

संसदीय राजनीति के माध्यम से कम्युनिस्ट पार्टियां देश के तीन राज्यों में अपनी सरकारें बनाने में सफल अवश्य हुईं। पर यह सफलता उन्हें किसी वर्ग संगठन या वर्ग संघर्ष से नहीं, बल्कि एक प्रतिस्पर्धी राजनैतिक दल की हैसियत से मिली। अपनी सरकारों के द्वारा वे वर्ग चेतना का विकास तो क्या, अच्छे शासन का मानक भी पैदा नहीं कर पाए। उनकी सबसे घातक भूमिका इतिहास और साहित्य के क्षेत्र में रही है। जवाहरलाल नेहरू के समय से ही उन्हें इतिहास और साहित्य से संबंधित राजकीय तंत्र पर नियंत्रण करने का अवसर मिलता रहा। उसके द्वारा उन्होंने भारतीय इतिहास की मार्क्सवादी दृष्टि से पुर्नव्याख्या की। यह भी कोई नई दृष्टि नहीं थी। उन्होंने ब्रिटिश काल में लिखवाए गए भारतीय इतिहास को यूरोपीय पूर्वाग्रहों से और अधिक मढ़ने का काम ही किया। मार्क्सवादी इतिहास लेखन की काफी शक्ति भारतीय इतिहास में फ्यूडलिज्म ढूंढ़ने में लगी रही है। साहित्य में सृजनात्मकता को नष्ट करके नारेबाजी को प्रश्रय देने में और विद्रूप के चित्रण में ही उनकी शक्ति लगी।

न्याय और समता की भावना से आकर्षित होकर बहुत से भारतीय युवा मार्क्सवादी हो जाते हैं। मार्क्सवाद अन्याय और विषमता को परिस्थितियों से काटकर एक शाश्वत ऐतिहासिक सत्य की तरह प्रस्तुत करता है। विचारधारा की रटंत उन्हें यह समझने लायक नहीं छोड़ती कि यूरोप को छोड़कर संसार की किसी जाति का इतिहास उत्पादन संबंधों से निर्धारित नहीं हुआ, कि उत्पादन और उपभोग को एक खांचे में सीमित करके पूंजीवाद का संकट देखना मूर्खता है, कि संसार को बुर्जुआ और सर्वहारा या उत्पीड़क और उत्पीड़ित जैसी दो कोटियों में सीमित करके नहीं समझा जा सकता, कि बंदूक की नली से एक निरंकुश राज्य सत्ता ही निकलती है, कोई न्यायपूर्ण व्यवस्था नहीं, कि न्याय और समता पर आधारित व्यवस्था खड़ी करने के लिए उसी के अनुरूप आध्यात्मिक-सामाजिक दृष्टि भी चाहिए, अन्याय, उत्पीड़न से मुक्ति मुक्ति चिल्लाते रहने से न्यायपूर्ण व्यवस्था पैदा नहीं हो जाती। कार्ल मार्क्स ने विज्ञान और प्रौद्योगिकी के विकास की परिणति उस आदर्श व्यवस्था में देखी थी, जहां लोग जब इच्छा होगी तब काम करेंगे और जितना चाहेंगे उन्हें मिल जाएगा। ऐसी समृद्धि के बजाय यूरोपीय विज्ञान और प्रौद्योगिकी के विकास ने अब तक साम्राज्यवादी शक्तियों को सामरिक अजेयता दी है और प्रभु वर्गों का नियंत्रण बढ़ा दिया है। मार्क्सवादी विचारधारा की रटंत लेकिन जीवनभर किसी की आंख बंद नहीं रख सकती। इसलिए जिन्होंने इस विचारधारा में निहित स्वार्थ नहीं पाल लिए, वे उससे निकलते हैं और मार्क्सवाद की सीमा रेखा खिंच जाती है। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की यह सीमा रेखा काफी पहले खिंच चुकी है।

भारत में मार्क्सवाद की असफलता का सबसे बड़ा कारण यह है कि भारत के साधारण लोग सदा स्वतंत्र रहे हैं। उत्पादन के साधनों पर सदा उनका स्वामित्व रहा है। भारत में यूरोप की तरह की दास व्यवस्था कभी नहीं रही। 1350 से तुर्क-अफगान और फिर ब्रिटिश शासन अवश्य रहा, लेकिन वे साधारण लोगों में अपने स्वतंत्र होने, उत्पादन के साधनों पर अपना अधिकार होने की भावना कभी समाप्त नहीं कर पाए। विदेशी शासकों ने कराधान बढ़ा दिया, जबरन वसूली, अत्याचार और बेदखली भी हुई, लेकिन भारत के लोग उसे आंधी आने और उतर जाने की तरह ही देखते रहे। जिस तरह का वर्ग समाज यूरोप में बना था, वैसा कभी भारत में नहीं बना। भारत के गांव संसार के सबसे समृद्ध और न्यायपूर्ण गांव थे, क्योंकि वे स्वशासी थे। राजा समाज और उसके साधनों का स्वामी नहीं था। वह समाज के एक संस्थान का मुखियाभर था और सब संस्थाओं की तरह उसका भी उत्पादन में भाग था। वह उस भाग को मनमाने ढंग से बढ़ा नहीं सकता था। कार्ल मार्क्स ने भारत के जिन गांवों को जड़, गतिहीन और सड़नशील बताया था, वे ही कम्युनिस्ट क्रांति की सबसे बड़ी बाधा थे। मार्क्सवाद पढ़े-लिखे कुछ भारतीयों को अपनी जातीय स्मृति से अलग करने के अलावा कुछ नहीं कर सका। मजदूरों के बीच उन्हें जो सफलता मिली थी, वह भी अब क्षीण हो चुकी है। वे केवल भारत के मार्ग की बाधा रहे हैं। आज भी उनकी यही भूमिका है, हालांकि अब उनमें कोई शक्ति नहीं बची है।

न्याय और समता मनुष्य की मूल वृत्तियां हैं। इन वृत्तियों के पोषित-पल्लवित होते रहने के लिए यह आवश्यक है कि मनुष्य की स्वतंत्रता बनी रहे। वह अपने तंत्र में तभी रह सकता है जब उत्पादन के साधनों पर उसका स्वामित्व हो और शासन में उसकी पूर्ण सहभागिता हो। इन दोनों लक्ष्यों की प्राप्ति भारतीय सभ्यता की सबसे बड़ी उपलब्धि रही है। भारत के राजनैतिक चिंतन के केंद्र में राज्य नहीं, स्वराज्य रहा है। राज्य तो स्वराज्य व्यवस्था की एक संस्थाभर था। इस सभ्यता को पुर्नस्थापित करने के लिए महात्मा गांधी ने स्वाधीनता आंदोलन की कमान अपने हाथ में ली थी। उनके लिए ब्रिटिश शासन से कहीं बड़ी चुनौती यूरोपीय ‘सिविलाइजेशन’ था। कार्ल मार्क्स इस ‘सिविलाइजेशन’ के प्रवक्ता थे। यह स्वाभाविक ही है कि कार्ल मार्क्स में जितना तिरस्कार भारतीय सभ्यता के प्रति था, उतना ही तिरस्कार महात्मा गांधी में यूरोपीय सिविलाइजेशन के प्रति था।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Name *