नगालैंड के गांधी नटवर ठक्कर नहीं रहे। गुवाहाटी के एक अस्पताल में उन्होंने आखिरी सांस ली। वे उस पीढ़ी के थे जो भारत की एकता और अखंडता के लिए अहिंसक तरीके से समाज सेवा में लगी रही। नटवर ठक्कर एक लोकप्रिय नाम था। उन्हें उनके काम-काज और सद्व्यवहार से लोग जानते थे। उनसे जो भी एक बार मिला, वह बिना प्रभावित हुए नहीं रह सका। अत्यंत विनम्र थे। लेकिन उनमें अपने संकल्प की ऐसी अटूट दृढ़ता थी कि खतरे और धमकियां उन्हें कभी झुका नहीं पाईं। काका कालेलकर से वे अपने युवा अवस्था में मिले। उनसे प्रेरित हुए। समाज सेवा को अपनाया। सुदूर नगालैंड में वहां गए जहां कोई जाकर रहने की तब सोच भी नहीं सकता था।
उनके निधन पर राज्यपाल पद्मनाभ आचार्य ने याद किया है कि वे जब 1965 में नगालैंड आए थे तो उनके आश्रम में मिलने गए। तब जो उनसे नाता बना, वह अंत तक कायम रहा। यही नटवर ठक्कर की विशेषता थी। वे 1955 में नगालैंड पहुंचे। वहां महात्मा गांधी के विचार का प्रसार करने लगे। उन दिनों नगालैंड में बगावत की आग सुलग रही थी। उन्होंने वह क्षेत्र चुना जो सबसे अधिक खतरनाक माना जाता था। वहां वे नगा परिवारों से जुड़े। उन्हें शिक्षित किया। उनके हुनर को बढ़ाने के लिए केंद्र बनाए। इससे वे नगाओं को भा गए। वहीं अपना परिवार बनाया। नगा शांति में योगदान किया। उन्हें बागी नगाओं ने अनेक बार धमकी दी। उससे बेपरवाह रहे। करीब 86 साल की लंबी जिंदगी को उन्होंने एक मिशन में लगा दिया। वह मिशन नगाओं में शांति, सद्भाव और देश प्रेम पैदा करने के लिए जाना जाएगा। महात्मा गांधी की 150वीं साल गिरह पर बनी राष्ट्रीय समिति के वे सदस्य थे। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उन्हें इसके लिए चुना था। नटवर ठक्कर को उनके जीवन में सरकार और समाज से खूब आदर और सम्मान मिला। उनकी कमी लोगों को खलेगी। वे 23 साल की उम्र में नगालैंड पहुंचे थे। तब जो व्रत लिया, वह आजीवन निभाया। महाराष्ट्र तटीय इलाके में वे पैदा हुए थे। 1932 में जन्मे नटवर ठक्कर का जीवन अपने आप में गांधी का संदेश बन गया था।