प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को इस बात का श्रेय दिया जाना चाहिए कि उन्होंने अपने आपको दूसरे प्रधानमंत्रियों की तरह केवल राजनीति और अर्थनीति तक सीमित नहीं रखा। उन्होंने राजनीति से इतर सार्वजनिक हित के कुछ महत्वपूर्ण अभियान छेड़े हैं। इन अभियानों में से एक स्वच्छ भारत अभियान है। इस अभियान को उन्होंने सीधे महात्मा गांधी से जोड़ दिया है। 2 अक्टूबर से महात्मा गांधी का 150वां जयंती वर्ष आरंभ हो रहा है। यह अच्छी बात होगी कि इस पूरे वर्ष हम इस बात पर गंभीरता से विचार करें कि हम अपने सार्वजनिक वातावरण को कैसे साफ-सुथरा बना सकते हैं।
महात्मा गांधी देश के पहले बड़े नेता थे जिन्होंने प्रचलित राजनीति से हटकर कुछ महत्वपूर्ण प्रयोग किए थे। उन्होंने ही शहरों-कस्बों में सार्वजनिक स्थल पर फैली गंदगी को एक राजनैतिक प्रश्न बना दिया था। सार्वजनिक साफ-सफाई पर ध्यान देना उन्होंने अपने दक्षिण अफ्रीका प्रवास में ही आरंभ कर दिया था। अपने आश्रम में उन्होंने संडास की सफाई का काम आश्रमवासियों की अपनी जिम्मेदारी बताया था। यह उस समय एक क्रांतिकारी विचार था कि आप अपने मल-विसर्जन के स्थान को स्वयं साफ करें। इतना ही नहीं, अतिथि का मल साफ करने की जिम्मेदारी भी स्वयं उठाएं। इस विषय पर कस्तूरबा से हुआ उनका विवाद बहुत प्रसिद्ध है।
यह अकेला अवसर था जब वे कस्तूरबा पर क्रोधित हुए थे। बाद में उन्होंने अपने इस अभियान को भंगी मुक्त अभियान में बदल दिया था। लेकिन महात्मा गांधी के प्रति अपार श्रद्धा के बावजूद यह अभियान व्यापक स्वीकृति नहीं पा सका। नरेद्र मोदी ने उसे शौचालयों से जोड़ दिया है। उनकी सरकार ने यह अभियान ही छेड़ रखा है कि सबको शौचालय की सुविधा प्राप्त हो। हर घर में शौचालय हो और किसी को खुले में शौच करने न जाना पड़े। उनका सरकारी तंत्र इस मामले में काफी सख्ती बरत रहा है। कुछ जगह इसके अटपटे नतीजे भी निकले हैं, जब सरकारी तंत्र के एक अफसर द्वारा खुले में शौच करते व्यक्ति की तस्वीर सोशल मीडिया पर डाल दी गई।
महात्मा गांधी ने इस प्रश्न से हमारे आत्मसम्मान को जोड़ते हुए एक राजनीतिक प्रश्न ही बना दिया था। वे दक्षिण अफ्रीका से 1915 में भारत लौटे थे। गोपाल कृष्ण गोखले को वे अपना राजनीतिक गुरू मानते थे। गोखले के आग्रह पर उन्होंने सालभर कोई राजनीतिक वक्तव्य न देने और देश घूमकर पूरी परिस्थिति को समझने का निर्णय लिया था। यह अवधि पूरीे होते ही उन्हें भाषण देने का मौका मिला, जिसने उन्हें रातोंरात पूरे देश में विख्यात कर दिया। चार फरवरी 1916 को वाराणसी में बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय का उद्घाटन समारोह आयोजित था। वायसराय को विश्वविद्यालय का उद्घाटन करना था। उसमें राजाओं-महाराजाओं सहित देश के कई बड़े नेताओं को भाग लेना था। महामना मदन मोहन मालवीय ने इस अवसर पर गांधी जी को भी उपस्थित रहने के लिए निमंत्रण भेजा था। वे अपनी सादी काठियावाड़ी पोशाक में उपस्थित हुए और श्रोताओं के बीच बैठे। उन्हें उद्घाटन के अगले दिन बोलने के लिए कहा गया था। उनसे पहले श्रीमती एनी बेसेंट का भाषण हुआ था।
गांधी जी ने अपना भाषण उन पर कटाक्ष करते हुए ही आरंभ किया। श्रीमती बेसेंट ने विश्वविद्यालय के महत्व की चर्चा करते हुए कहा था कि वहां से पढ़-लिखकर छात्र साम्राज्य के उत्तरदायी नागरिक बनेंगे और वे संसार को भारत की आध्यात्मिकता का संदेश देंगे।गांधीजी ने उसके उत्तर में कहा कि वे इस तरह के भाषणों से ऊब गए हैं। उनके लिए यह अपमान और शर्म की बात है कि इस पवित्र नगर और इस महान विद्यापीठ के प्रांगण में उन्हें अपने ही देशवासियों से एक विदेशी भाषा में बोलने के लिए विवश किया जाए। इसके बाद उन्होंने अंग्रेजी में दी जाने वाली शिक्षा की निरर्थकता का बखान किया। फिर वे सफाई के मुद्दे पर आए। उन्होंने कहा कि पिछली रात वे बाबा विश्वनाथ के दर्शन करने विश्वनाथ मंदिर गए थे। वहां की तंग गलियों में चारों तरफ जो गंदगी फैली हुई थी, उसे देखकर उन्हें बहुत ग्लानि हुई।
अपने इस भाषण का हर वाक्य और हर मुद्दा उन्होंने शायद बहुत सोच-समझकर चुना था। उन्होंने कहा कि अगर हम अपने आसपास की गंदगी से विचलित नहीं होते तो स्वशासन के अधिकारी कैसे हो सकते हैं? उन्होंने शहरों-कस्बों में चारों तरफ फैली रहने वाली गंदगी की बात की। उसके बाद उन्होंने भारतीय रेल के तीसरे दर्जें के डिब्बे में जो गंदगी दिखाई देती है, उसकी चर्चा की। लोग जहां-तहां थूकते रहते हैं। वे यह परवाह नहीं करते कि दूसरों के लिए कितनी गंदगी फैला रहे हैं। इस सिलसिले में उन्होंने छात्रों का भी उल्लेख किया। उन्होंने कहा कि पढ़े-लिखे छात्रों को भी उन्होंने ऐसा ही करते हुए देखा है। फिर उन्होंने इस बात की चर्चा की कि देश निर्धनता में पड़ा है और हमारे राजा-महाराजा स्त्रियों को ही शोभा देने वाले आभूषणों से लदे सार्वजनिक आयोजनों में उपस्थित होते हैं। यह सब बातें उन्होंने एक तरह से आत्मालोचना में ही कही थीं। पर उनका लक्ष्य आत्मलोचना करते हुए देश की आजादी की बात को मुख्य चर्चा में ले आना था।
उसका अंत भी उन्होंने एक क्रांतिकारी बात कहकर किया। उन्होंने कहा कि उन्हें सभास्थल में पहुंचने पर कुछ देर हुई, उसका कारण पूरे शहर में वायसराय के लिए की गई सुरक्षा-व्यवस्था थी। यह सवाल उठाते हुए कि वायसराय की सुरक्षा का इतना तामझाम क्यों, यह अविश्वास का माहौल किसलिए, उन्होंने सीधे वायसराय का नाम लेते हुए कहा कि लॉर्ड हार्डिंग के लिए इस जीते जी मौत से मर जाना बेहतर है। शायद गांधी जी ने यह सारी कवायद यह वाक्य कहने के लिए की थी। लेकिन उनका आशय क्रांतिकारी बात कहना उतना नहीं था, जितना भारतीयों को निर्भय करना और याद दिलाना कि वे अपने व्यक्तिगत जीवन और सार्वजनिक जीवन को अनुशासित करना आरंभ कर दें तो संसार की कोई शक्ति उन्हें स्वतंत्र होने से रोक नहीं सकती।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए महात्मा गांधी का यह भाषण बहुत महत्वपूर्ण है। आज स्वच्छता की समस्या महात्मा गांधी के समय से भी कहीं अधिक विकट हो गई है। आम भारतीय व्यक्तिगत सफाई के मामले में संसार के सबसे अग्रणी है। लेकिन सार्वजनिक जीवन को साफ-सुथरा बनाने में उतना ही असफल सिद्ध हुआ है। नरेंद्र मोदी का अभियान अभी केवल कुछ मुद्दों तक सीमित है। उन्होंने खुले में शौच जाने को गंदगी का प्रतीक मान लिया है। सामान्यत: गांव के लोग अपने खेत की किसी आड़ में शौच जाते थे और फिर उसे मिट्टी से ढंक देते थे। इस तरह वह मल उत्तम खाद में बदल जाता था। लेकिन अपने हर काम को उचित तरीके से करने की आदत अब छूट गई है। पहले हर व्यक्ति समाज की निगाह में था और उसके अनुशासन में रहने के लिए उसे अपने हर काम को उचित तरीके से करना पड़ता था। हमने जो राजनीतिक व्यवस्था अंगीकार की, उसमें सब अधिकार राज्य के पास है। समाज के अनुशासन के अधिकार के लिए कोई जगह ही नहीं छोड़ी गई है। इसलिए सब स्वच्छंद होकर आचरण करते हैं।
यह ध्यान रखना चाहिए कि शौचालय जितनी बड़ी सुविधा है, उतनी ही बड़ी समस्या भी है। हमारे छोटे और मझोले कस्बों की ही नहीं, बड़े शहरों की सीवर व्यवस्था भी इतनी लचर है कि उससे हर समय बीमारी फैलने का खतरा बना रहता है। पहले गांव या शहर बसाते समय पानी की निकासी के लिए पृथ्वी के ढलानों का ध्यान रखा जाता था। अब कोई उसका ध्यान नहीं रखता। नदियों के किनारे बसे शहरों के सीवर का पानी तो सीधे नदियों में डाल दिया जाता है। दिल्ली में यमुना को ही गंदा नाला बना दिया गया है। हम अपनी नदियों की सफाई की बात करते हैं। लेकिन शहरों के भीतर के पानी और गंदगी का जब तक हम कोई उपाय नहीं कर लेते, हमारी नदियां स्वच्छ नहीं हो सकतीं। सबसे बड़ी समस्या औद्योगिक जीवन शैली है। आज की स्वच्छता की समस्या केवल सामान्य कूड़े-कचरे की समस्या नहीं है। हमारी औद्योगिक जीवन शैली अनेक तरह का प्रदूषण पैदा कर रही है। हम इस जीवन शैली को ही उत्तम मानते हैं। धनी औद्योगिक देश अपना कूड़ा-कचरा दूसरे गरीब देशों पर डालकर हाथ झाड़ लेते हैं। उनके औद्योगिक तंत्र का पृथ्वी के तापमान पर जो असर पड़ रहा है, उसे भी वे देखने के लिए तैयार नहीं हं। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प जलवायु परिवर्तन की बात का मखौल उड़ाते नहीं थकते। हर अमेरिकी अपनी जीवन शैली के कारण दुनिया में सबसे अधिक गंदगी पैदा करता है। लेकिन अमेरिका उसकी कोई जिम्मेदारी लेने के लिए तैयार नहीं है। क्या हम गांधी जी की तरह कह सकते हैं कि जिस औद्योगिक सभ्यता से इतना कूड़ा करकट और प्रदूषण फैलता है, जो हमारी समूची पृथ्वी के लिए अभिशाप हो गई है, उस औद्योगिक सभ्यता का नष्ट हो जाना ही बेहतर है? हम इसके विपरीत उसी औद्योगिक सभ्यता के व्यामोह में पड़े हैं।
हम प्रकृति प्रदत्त वस्तुओं का प्राकृतिक रूप से उपभोग नहीं करना चाहते। हम उन्हें प्रसंस्करण उद्योग के हवाले करके अप्राकृतिक अवस्था में अपने लोगों तक पहुंचा रहे हैं। हमें यह विकास लगता है। हम बाजार के विस्तार को ही प्रगति समझते हैं। अधिक से अधिक औद्योगिक वस्तुओं के उपभोग को ही उन्नति समझते हैं। इस औद्योगिक जीवन शैली में अनावश्यक वस्तुओं का उपभोग बढ़ाते चले जाना ही संपन्नता है। उसमें संयम का कोई स्थान नहीं है। वह साधनों की बर्बादी करते हुए एक झूठी चमक-दमक पर टिकी है। इसलिए हमारी आवश्यकताएं अनाप-शनाप तरीके से बढ़ाई जाती रहती हैं। हम किसी वस्तु का अधिकतम उपयोग नहीं करते। बाजार हमें अधिकतम वस्तुओं का उपभोग करने की सीख देता है और इस प्रक्रिया में मामूली उपभोग के बाद त्याग दी गई वस्तुओं से कूडे़-करकट का अंबार लगता चला जाता है।
औद्योगिक जीवन शैली अनेक ऐसी वस्तुओं पर टिकी है, जो हमारे और पृथ्वी के वातावरण दोनों के लिए घातक है। उदाहरण के लिए प्लास्टिक का उपयोग हमारे जीवन में बहुत बढ़ गया है। कुछ दशक पहले तक आम भारतीय घरों में प्लास्टिक की सामग्री बुरी मानी जाती थी। आज प्लास्टिक हमारे घर के हर कोने में दिखाई देती है। प्लास्टिक स्वास्थ्य के लिए हानिकारक तो है ही, उसकी सबसे बड़ी समस्या यह है कि उसके कूड़े को जैविक कूड़े की तरह से नष्ट नहीं किया जा सकता। प्लास्टिक एक हजार वर्ष में जाकर विखंडित होती है। इसलिए दुनियाभर में उसके कूड़े का अंबार लगता चला जा रहा है। एक अमेरिकी औसतन 109 किलो प्लास्टिक का प्रति वर्ष उपभोग करता है। भारत में भी उसका चलन बढ़ता चला जा रहा है। गांवों तक में मिट्टी या धातु के घड़ों की जगह प्लास्टिक के बर्तन पानी भरने के लिए इस्तेमाल किए जाने लगे हैं। प्लास्टिक का सर्वाधिक उपयोग पैकेजिंग में होता है। अब हम सीधे किसी वस्तु को नहीं लेते, उस पर कई तह प्लास्टिक की चढ़ी होती हैं। भारत में प्लास्टिक का लगभग 40 प्रतिशत उपयोग पैकेजिंग उद्योग कर रहा है। उससे वस्तु की कीमत तो बढ़ती ही है। अक्सर छोटे आकार की वस्तु बड़ी पैकेजिंग के जरिये अधिक आकर्षक बनाकर ऊंचे दामों पर बेची जाती है। इस सब सामग्री को लेते हुए हम कभी नहीं सोचते कि उससे पैदा होने वाले कूड़े-करकट से हमारा जीवन ही खतरे में पड़ रहा है।
दुनिया का केवल एक देश रवांडा ऐसा है, जिसने अपने यहां प्लास्टिक पर प्रतिबंध लगा रखा है। हम केवल परचून में इस्तेमाल होने वाली प्लास्टिक की थैलियों को प्रतिबंधित करने में ही अब तक असफल रहे हैं। कूड़े के ढेर से ये प्लास्टिक की थैलियां आवारा पशुओं के पेट में जाती हैं और हर वर्ष एक लाख पशु इन थैलियों के कारण अपनी जान से हाथ धो रहे हैं। हम औद्योगिक कचरा बढ़ाते चले जा रहे हैं और फिर उस कचरे के निष्पादन के लिए उपयुक्त टेक्नोलॉजी तलाशते रहते हैं। टेक्नोलॉजी एक तरह का अंधविश्वास बना दी गई है। हमें लगता है कि टेक्नोलॉजी द्वारा सब समस्याएं हल की जा सकती हैं। टेक्नोलॉजी ने हमारी खेती को चौपट कर दिया है।
हम आज अधिक अन्न पैदा कर रहे हैं लेकिन हमारे भोजन में पोषण कम होता चला जा रहा है। जिन कामों में टेक्नोलॉजी का सबसे पहले उपयोग होना चाहिए, वहां हम आज भी सुस्त बने हुए हैं। दिल्ली हमारी राजधानी है, उसकी सार्वजनिक व्यवस्थाओं को चलाने पर सबसे अधिक धन खर्च होता है। लेकिन दिल्ली में ही आए दिन लोग सीवर का टैंक साफ करने के लिए उतार दिए जाते हैं और उन टैंकों में भरी जहरीली गैस उनके लिए जानलेवा हो जाती है। हमारे स्वच्छता अभियान में यह नियम नहीं बना कि यह काम केवल मशीनें करेंगी और उन्हें सब जगह उपलब्ध किया जाएगा। किसी मनुष्य का जीवन सीवर टैंक साफ करने के लिए जोखिम में नहीं डाला जाएगा। क्या यह हमारे लिए लज्जा की बात नहीं है कि हर वर्ष 90-100 लोग सीवर के टैंक की सफाई करने के चक्कर में अपने प्राणों से हाथ धो बैठते हैं? हमारी सभ्यता के लिए यह सीवर व्यवस्था कितनी बड़ी चुनौती बन गई है, यह जानना हो तो सोपान जोशी की पुस्तक ‘जल, मल, थल’ पढ़नी चाहिए। सीवर आधुनिक जीवन का जंजाल है, जिनसे मुक्ति आसान नहीं लगती।
महात्मा गांधी के लिए स्वच्छता स्वविवेक का पर्याय थी। वे जहां भी गए, उन्होंने स्वच्छ जीवन का अर्थ समझाते हुए उस पर चलने का रास्ता बताया। उनकी पहली बड़ी राजनैतिक चुनौती बिहार के चम्पारण जिले में नील की खेती करवाने वाले अंग्रेजों के अत्याचार से किसानों को मुक्ति दिलवाना थी। लेकिन चम्पारण सत्याग्रह के समय वे केवल निलहों की समस्या तक सीमित नहीं रहे। उन्होंने कस्तूरबा तथा अपने अन्य सहयोगियों को गांव-गांव जाकर शिक्षा और स्वच्छता का महत्व समझाने में लगा दिया। क्या हमारा आज का कोई राजनैतिक दल ऐसा करने को उत्सुक होगा। आज की हमारी शिक्षा में अपने व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन को अनुशासित करने की कोई सीख ही नहीं दी जाती। शिक्षा नौकरी पाने के लिए डिग्री हासिल करने की एक तोतारटंत होकर रह गई है। अपने राजनैतिक ढांचे को हमने ऐसा बनाया है कि उसमें नागरिकों को अपने दायित्व समझने की आवश्यकता ही अनुभव नहीं होती। अपना स्वविवेक जागृत रखकर और अपने पारिवारिक-सामाजिक कर्तव्यों का निर्वाह करके ही आप अच्छे नागरिक हो सकते हैं। यह संदेश सबको मिलना आवश्यक है। इसी तरह सरकारी तंत्र नियंत्रण करने के लिए नहीं, समाज के जीवन को आसान, अनुशासित और सुखमय बनाने के लिए है, यह संदेश भी पूरे तंत्र को दिया जाना आवश्यक है। █
आम भारतीय सफाई के मामले में संसार में सबसे अग्रणी है। लेकिन सार्वजनिक जीवन को साफ-सुथरा बनाने में उतना ही असफल सिद्ध हुआ है। नरेंद्र मोदी का अभियान अभी केवल कुछ मुद्दों तक सीमित है। उन्होंने खुले में शौच जाने को गंदगी का प्रतीक मान लिया है। सामान्यत: गांव के लोग अपने खेत की किसी आड़ में शौच जाते थे और फिर उसे मिट्टी से ढंक देते थे। इस तरह वह मल उत्तम खाद में बदल जाता था। लेकिन अपने हर काम को उचित तरीके से करने की आदत अब छूट गई है।