हिन्दू अखबार से बातचीत में पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा है कि ‘वाजपेयी जी सचमुच एक महान भारतीय और महान प्रधानमंत्री थे। भारत के बारे में जैसा विचार उनका था, वह कई मायने में जवाहरलाल नेहरू से मिलता-जुलता था।’
इन दिनों नेहरू और वाजपेयी में समानता खोजने का अभियान चल पड़ा है। क्या वास्तव में कोई समानता थी? नेहरू और वाजपेयी की राजनीति थी तो वास्तव में समानांतर।
कौन नहीं जानता है कि समानांतर रेखा कहीं मिलती नहीं! लेकिन दूर से देखने पर कहीं-कहीं मिलती जो नजर आती है वह भ्रम होता है। ऐसा ही इनमें था। जो लोग तुलना करते हैं, वे भ्रमित हैं।
जब कोई मन में ठान ही ले कि तुलना करना ही है तो अनेक अवसरों पर वाजपेयी को नेहरू के करीब दिखाना कहीं से कठिन नहीं है। मूल प्रश्न है कि इनमें तुलना के लिए कसौटी क्या हो?
“इन दिनों नेहरू और वाजपेयी में समानता खोजने का अभियान चल पड़ा है। क्या वास्तव में कोई समानता थी?”
इस दृष्टि से एक आधार अयोध्या विवाद का प्रश्न हो सकता है। इनमें तुलना का यह सबसे अधिक प्रासंगिक विषय है। नेहरू चाहते थे कि बाबरी मस्जिद से मूर्तियां हटा दी जाएं।
जो 1949 की 22-23 दिसंबर की रात में रखी गई थीं। वे गोविंद बल्लभ पंत को चिट्ठी पर चिट्ठी लिख रहे थे। उनमें वे ‘लाचार दिखते हैं। वे मूर्तियां हटा धर्मनिरपेक्ष तो दिखना चाहते थे, पर बहुसंख्यकों में अलोकप्रिय भी नहीं होना चाहत थे।’
ऐसा ही द्वंद्व अटल बिहारी वाजपेयी में अयोध्या आंदोलन के प्रारंभ से ही था। जो 6 दिसंबर, 1992 की शाम को चरम पर पहुंच गया। जब डा. एनएम घटाटे उनसे मिले तो उनकी गहरी नाराजगी इन शब्दों में प्रकट हुई-‘अयोध्या में युद्ध नहीं होता लेकिन वहां महाभारत हो गया।’
उसके बाद देर शाम जब मैं उनसे मिलने गया तो उनका पहला सवाल था-‘वहां क्या हुआ?’ वे मीडिया से बात करने से पहले जानना चाहते थे कि वास्तव में वहां जो हुआ, वह कैसे हुआ और कौन थे सूत्रधार? उस समय वे एक सत्यान्वेशी राजनेता की भूमिका में थे।
“यह बात 17 दिसंबर, 1992 की है। अपने लंबे भाषण में वे अयोध्या आंदोलन में भाजपा और कारसेवकों का सिर्फ बचाव ही नहीं करते बल्कि मूर्तियां रखे जाने के उस इतिहास को भी उचित ठहराते हैं जिसे नेहरू मानने से ही इनकार कर रहे थे।”
अपनी निजता में थे। संयोग देखिए कि श्रद्धांजलि सभा में मुझे एनएम घटाटे के पास ही जगह मिली। निजी तौर पर वाजपेयी जो भी सोचते रहे हों, पर भाजपा के संकट में वही उसे बचाते भी रहे हैं।
यही उस दिन हुआ जब लोकसभा में उन्होंने पीवी नरसिम्हा राव की सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पेश किया। उस पर अपने अनोखे अंदाज में बहस छेड़ी। उसे जो पढ़ेगा, वह अटल बिहारी वाजपेयी और नेहरू का फर्क समझ जाएगा।
यह बात 17 दिसंबर, 1992 की है। अपने लंबे भाषण में वे अयोध्या आंदोलन में भाजपा और कारसेवकों का सिर्फ बचाव ही नहीं करते बल्कि मूर्तियां रखे जाने के उस इतिहास को भी उचित ठहराते हैं जिसे नेहरू मानने से ही इनकार कर रहे थे।
उनके ये वाक्य पढ़ें-‘क्या मूर्तियां इस विश्वास के कारण वहां नहीं रखी गईं कि वह राम का जन्मस्थान है और वहां राम की मूर्ति होनी चाहिए? जब मूर्तियां रखी गईं, तब तो भारतीय जनसंघ नहीं था, विश्व हिंदू परिषद नहीं बनी थी, बजरंग दल का नामोनिशान नहीं था।
मगर उस क्षेत्र के लोगों के दिल में एक भावना थी। मुझे अफसोस है कि इस सवाल पर बहुसंख्यक समाज की भावनाएं कितनी गहरी हैं, कितनी तीव्र हैं, उसे अभी भी नहीं समझा जा रहा है।’
गजब तो तब हुआ जब उन्होंने उसी भाषण में स्वीकारा कि ‘मैं भी नहीं समझा था।’ इस एक वाक्य में वाजपेयी के वैचारिक उहापोह की वह कहानी तो छिपी ही है जिससे वे गुजरे थे।
लेकिन इसमें ही नेहरू और वाजपेयी आमने-सामने हो जाते हैं। नेहरू हिंदू धर्म के विरोध में थे जबकि वाजपेयी विराट हिंदू जीवन दर्शन के गायक थे।