उस समय दिल्ली का जनसत्ता करीब दो लाख के आस-पास छपता था। एक्सप्रेस के प्रबंधन का तर्क माने तो उन दिनों न्यूज़ प्रिंट के दाम बढ़ने से कठिनाई ज्यादा हो गई। एक्सप्रेस को संभालना भारी पड़ रहा था। भाषाई अख़बारों की उपेक्ष हुई। लोकसत्ता जो पहले नंबर का महाराष्ट्र में अख़बार था उसे लोकमत ने पछाड़ दिया। जनसत्ता क सर्कुलेशन कम होने लगा। चंद्रशेखर मजाक में पूछते थे कि क्या जनसत्ता को सुखाड़ रोग लग गया है।
यह वही समय थ जब दिल्ली के दो बड़े अख़बारों टाइम्स ऑफ़ इंडिया और हिन्दुस्तान टाइम्स में दाम कम कर ज्यादा बिकने की होड़ युद्धस्तर पर शुरू हुई। उसमें जनसत्ता का टिके रहना अधिक कठिन हो गया। एक तरफ विवेक गोयनका पारिवारिक कलह में फंसे थे तो दूसरी तरफ इंडियन एक्सप्रेस को नुस्ली वाडिया के नियंत्रण में जाने से रोकने में लगे थे। उसमें प्रभाष जोशी ने उनकी मदद की।
जनसत्ता के कायाकल्प की योजना को पहला झटका 1994 में तब लगा जब प्रभाष जी को बाई पास सर्जरी करानी पड़ी। वह अचानक हुआ। अगले साल उन्होंने जनसत्ता की सालगिरह पर संपादकी छोड़ने का फैंसला किया। पिछले दो-तीन सालों से वे खिन्न थे। इस बारे में उन्होंने अपने सहयोगियों से बात नहीं की, लेकिन संपादकी छोड़ने के जो कारण उन्होंने अपने कॉलम में बताये, ये उसका एक अंश है। इस कवायद के बाद भी मुझे लगा कि छिट-पुट और मेकअप यानि चिपड़ा-चुपड़ी के तो कई सुझाव आए हैं, लेकिन पिछले 10 -15 सालों में सभी परिवर्तनों को समेटने वाले एक नये अख़बार का कोई सपना नहीं बनता। प्रयोग करने हों तो मुझी को करने पड़ेंगे बल्कि विवेक जी ने एक बार कहा था कि आप सीईओ- यानि मुख्य कार्यकारी अधिकारी होकर पूरा ही भार ले लीजिये। हमारे सहयोगियों ने कहा कि आखिर आपका अख़बार है और आप ही उसे बदल सकते हैं।
अठारह साल पहले चंडीगढ़ में नए निकले ‘इंडियन एक्सप्रेस’ की पूरी जिम्मेदारी ली ही थी और चार साल में उसे न लाभ, न हानि की हालत में लाए ही थे। बारह साल पहले ‘जनसत्ता’ का नाम से छपवाने तक का पूरा काम किया ही था। अब नई चुनौती लेना था। मन तो बहुत करता था कि चलो एक बार फिर चढ़ा दो अपने को कसौटी पर। लेकिन इसे अन्दर रेफर करता तो पाता कि शरीर अब वह नही रह गया है। भेनजी को फिर उसी में फंसाया तो वे चीं बोल जायेंगी। तीनों बच्चों का बचपन अपन ने मिस किया। अब पोते का बचपन भी मिस करो, फिर बचपन से लिखने-पढ़ने की इच्छा को ताक पर रखा। अब गिनती के साल हैं। क्या इनमें भी वही करना है जो पैंतीस साल से किया ? फिर अपने लिए एक चुनौती खड़ी करना और उसका जवाब देने में जुनून के साथ लग जाना। फिर एक शिखर बनाना और तय करना कि उसे चढ़ूँगा। जीवन-भर यही किया है। बहुत कपास ओटा। अब वही करूंगा जिसे हरिभजन माना है।
साथी-सहयोगी कहते थे कि जिम्मेदारी बांट दो। कोई जरुरत नहीं कि सभी कुछ खुद करो, दूसरों से करवाओ। बहुत गड़बड़ शब्द है लेकिन लोग वही कहते हैं – मार्ग दर्शन करो, लेकिन सच कहूं, दुनिया में कहीं भी और कभी भी–भाई के भरोसे खेती नहीं होती, खुद करनी होती है। जो चुनौती लेता है, पहली और अंतिम जिम्मेदारी उसकी ही है। अग्नि परीक्षा हो तो उसी को आग पर चलना होता है। यह बेईमानी है कि अपना काम दूसरों से करवाओ, वाहवाही लूटो और बदनामी दूसरे पर डालो।
‘जनसत्ता’ अपना अख़बार है – इससे बेईमानी करके कहां जाएंगे? कैसे बचेंगे ? वैसे उन्होंने अपनी योजना भी इसी कॉलम में बताई थी कि संपादकी छोड़ने के बाद क्या करना चाहते हैं। प्रभाष जोशी ने अपना फैंसला हर समय खुद किया। हर मोड़ पर उनके किए फैंसले में सूत्रबद्धता है कि वह किसी मजबूरी में नहीं होता है। सहज होता है और उसका संबंध उनकी समझ और सूझबुझ से रहता है। उनकी समझ मुक्त मन से निकलती है। उनकी अपनी पसंद उसमें होती है। इसे वे ही समझ सकते हैं जो मज़बूरी, द्वंद्व, विसंगति और पसंद में फर्क करना जानते हों।
इस तरह के फैंसले करने वाले प्रभाष जोशी पहले से अधिक सजीव और सक्रिय बने रहते हैं तो इसकी वजह इन पंक्तियों में हैं – मेरी मां कहती है कि पार्वती नदी के किनारे आष्टा की टेकरी पर जिस दिन मैं जन्मा उसके पहले और बाद में झड़ी लगी रही थी। पूर आई पार्वती आष्टा को बहा ले गई थी और हम इसलिए बच गए थे कि टेकरी पर थे जहां पार्वती मैया ने चढ़ना ठीक नहीं समझा।
जनसता अपने दस साल पूरे करने के बाद कई तरह के संकटों से घिर गया, जिसमें वह तमाम कोशिशों के बाद निकल नहीं पाया। वह उससे निकल सकता था, अगर अपने को बदल लेता। वह उन अख़बारों से घिर गया था जो कम खर्च में अपना काम चला रहे थे। जनसता इंडियन एक्सप्रेस समूह का हिंदी अख़बार होने के कारण वह उस तरह की कामकाजी शैली नहीं अपना सकता था जैसा कि उसके प्रतिद्वंद्वी अपना रहे थे। एक्सप्रेस समूह के प्रबंधक जनसत्ता के जिम्मेदार लोगों को यह बताकर भयभीत करते थे कि अख़बार सात करोड़ रुपये सालाना के घाटे पर है। यह संकट जब शुरू हुआ तब जनसत्ता तुलना में चौथे नम्बर पर था । पहले नंबर पर पंजाब केसरी था। साफ है कि जनसत्ता पंजाब केसरी नहीं बन सकता था, जो उसे बनना चाहिय्रे वह भी नहीं बन सका। वह राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र का नंबर एक अख़बार बन सकता था। प्रभाष जोशी और राजेन्द्र माथुर का देर सवेर दिल्ली आना क्षेत्रीय पत्रकारिता की राष्ट्रीय स्तर पर विजय थी। जनसत्ता इसे राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में अपना गढ़ बनाकर कायम रख सकता था। इसके लिए जिस नेतृत्व की जरुरत थी वह उसे उपलब्ध नहीं हुआ…जारी