भुखमरी की राजनीति और अर्थशास्त्र

 

अक्टूबर,2017 के दूसरे सप्ताह में जब वाशिंगटन से कार्यरत इंटरनेशनल फ़ूड पालिसी रिसर्च इंस्टीच्यूट ने जब यह रिपोर्ट दी कि 119 देशों की सूचि में भारत 100वें पायदान पर है ,जबकि पिछले साल वह 97वें पायदान पर था |2014 की रिपोर्ट के अनुसार तो भारत 55वें पायदान पर था ,लेकिन उस समय मात्र 76 देशों को ही इस रैंकिंग में शामिल किया गया था |इस पर राजनीति गहरा गई थी कि सरकार द्वारा किए जाने वाले बड़े-बड़े दावे कि भारत दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ने वाली बड़ी अर्थव्यवस्था बन गया है ,पर संदेह के बादल छा गए कि क्या बढती जीडीपी वास्तव में लोगों की हालत सुधार भी रही है या नहीं ?हालांकि पिछले सालों में भारत का भुखमरी सूचकांक 1992 में 46.2 से घटता हुआ 31.4 तक पहुँच चूका है,तो भी भारत की भुखमरी की स्थिति अभी भी चिंताजनक वर्ग में आती है |

गौरतलब है कि ग्लोबल हंगर इंडेक्स के हिसाब से रैंकिंग चार कारकों :पोषण ,शिशु मृत्यु दर ,शिशु का पतलापन और शिशु के ठिगनेपन,पर निर्भर करती है |यदि भुखमरी सूचकांक 20 और 34.9 के बीच है तो उसे चिंताजनक ,35 से 49.9 के बीच –यह खतरनाक और 50 या उससे अधिक –अतिखतरनाक कहलाता है | 2017 में पाकिस्तान और अफगानिस्तान मात्र दो एशियाई देश थे जहां भुखमरी भारत से ज्यादा थी |बच्चों में कुपोषण भारत देश में एक वास्तविकता है,जिसके कारण भारत की रैंकिंग अंतरार्ष्ट्रीय स्तर पर ही नहीं बल्कि दक्षिण एशियाई देशों में भी बहुत पीछे चली जाती है उसके बाद कुछ अफ़्रीकी देश ही हैं ,जिनकी स्थिति भारत से ख़राब है |हालांकि भारत में भुख के निवारण हेतु कई योजनाएं हैं,लेकिन सूखे और ढांचागत कमियों के कारण भारत के गरीबों में बड़ी संख्या में लोग कुपोषण का शिकार बन रहे हैं |

कहा जा रहा है कि भारत जो दुनियां की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है और दुनिया का सबसे बड़ा खाद्य उत्पादक देश है ,फिर भी लोगों को पोषक भोजन नहीं मिल पाता |हालांकि बच्चों में ठिगनापन पहले से कम हुआ है ,लेकिन अभी भी बच्चों में पतलापन ऊंचे स्तर पर बना हुआ है और एक दशक पहले से इसका प्रमाण बढ़ गया है |

बात यह नहीं है कि भारत में परिस्थितियां सुधर नहीं रही ,लेकिन दूसरे देशों में स्थितियां हमसे ज्यादा तेजी से बेहतर हो रही है |यह सही है कि अभी भी भारत की 14.5 प्रतिशत जनसँख्या कुपोषण का शिकार है ,लेकिन वह 1992 में 21.7 प्रतिशत से बेहतर ही हुई है |शिशु मृत्युदर (5साल से कम आयु के) 1992 में 11.9 प्रतिशत से घटकर अब मात्र 4.8 प्रतिशत रह गई है |भारत ने 2022 के लिए कुपोषण से निपटने की अपनी कार्य योजना शुरू कर दी है |

भारत की रैंकिंग में गिरावट का असलीयत

गौरतलब है कि जब 2014 में भारत की रैंकिंग 55 थी और अब 100 हो गई है ,तो देश में चिंता व्याप्त होना स्वभाविक ही है | लेकिन हमें नहीं भुलना चाहिए कि 2014 में मात्र 76 देशों की रैंकिंग हुई थी ,जबकि 2017 में 119 देशों की ,यानि 44 और देशों को इस रैंकिंग में शामिल किया गया वे सभी भारत से भुखमरी सूचकांक में ऊपर है |इसलिए यह कहा जाना कि भारत 2014 की तुलना में 45 स्थान नीचे पहुँच गया है ,सही नहीं है |

यदि देखें तो भारत की स्थिति वैश्विक भुखमरी सूचकांक की दृष्टि से लगातार बेहतर हुई है |यदि 2017 के वैश्विक भुखमरी सूचकांक की कर्यपणाली के आधार पर देखा जाए तो भारत का वैश्विक भुखमरी सूचकांक लगातार बेहतर होता हुआ वर्ष 1992 में 46.2 से वर्ष 2017 में 31.4 अंक पर पहुँच गया |वर्ष 2014 की कर्यपणाली के आधार पर देखा जाए तो भी यह सूचकांक लगातार बेहतर होता हुआ 1995 में 26.9 से वर्ष 2014 में 17.8 के स्तर पर पहुँच गया था |

भुखमरी की राजनीती उर अर्थशास्त्र

इस प्रकार हम देखते हैं कि हालांकि भुखमरी सूचकांक की दृष्टि से भारत में स्थितियां पहले से बेहतर हुई है ,जो शिशु मृत्यु दर की घटती दर और कुपोषण के विभिन्न मापदंडों में हो रहे सुधारों से परिलक्षित होता है ,तो भी भारत की स्थिति अंतरार्ष्ट्रीय रैंकिंग की दृष्टि से बेहतर नहीं हुई है | इसका मतलब यह है कि दुनिया के दुसरे मुल्क भारत की तुलना में ज्यादा तेजी से कुपोषण और भुखमरी की समस्या से निपटने हेतु सफल प्रयास कर रहे हैं ,जिसके कारण भारत की रैंकिंग में गिरावट बनी हुई है |आवश्यकता इस बात की है कि कुपोषण की इस समस्या से निपटने के लिए तीव्र और गंभीर प्रयास किए जाएं |वर्ष 2022 के लिए इस समस्या से निपटने के लिए कार्ययोजना बनी है ,लेकिन कुपोषण से निपटने के लिए बेहतर प्रयास अपेक्षित है | हाल ही में सरकार द्वारा गर्भवती महिलाओं एवं शिशुओं को स्तनपान कराने वाली महिलाओं को 5,000 रुपये नकद भेजने की योजना बनाई गई है |आंगनवाड़ी में बेहतर पोषक आहार और छोटी बच्चियों के लिए कीमत सूचकांक आधारित राशि उपलब्ध करने हेतु योजना बनाई गई है और अतिरिक्त 12 हजार करोड़ रुपये का प्रावधान रखा गया है |पोषण संबंधी परियोजनाओं के लिए बेहतर निगरानी व्यवस्था भी बनाई जा रही है |

दोषपूर्ण तो विकास का मॉडल ही है

यह सही है कि दुनियां के अधिकांश दूसरे मुल्कों की तुलना में तमाम मापदंडों के आधार पर भारत में भुखमरी कहीं ज्यादा है |यह राजनीति का विषय नहीं होना चाहिए |तमाम राजनीतिक दलों को चाहे वे सत्ता में हैं या विपक्ष में ,इस बात पर विचार करना होगा कि उनहोंने भुखमरी को दूर करने के लिए कोई ईमानदार प्रयास किए ? वास्तव में भुखमरी का रिश्ता कृषि उत्पादन के साथ भी ज्यादा नहीं है |

गौरतलब है कि हमारे भंडार गृह लबालब भरे हुए हैं ,तो भी हमारे लोग ,चाहे बच्चे ,जवान या बूढ़े ,सभी दो जून का भोजन नहीं जुटा प् रहे | इसका कारण है आय और संपत्ति का असमान वितरण |वर्ष 2011 की जनगणना के प्रकाशित आंकड़ों के आधार पर पता चलता है कि ग्रामीण क्षेत्रों में 92 प्रतिशत गृहस्थ ऐसे हैं जिनमें अधिकतम आय प्राप्त करने वले सदस्य मात्र 10,000 या उससे कम कमाते हैं |75 प्रतिशत गृहस्थ में यह आमदनी 5,000 रुपये मासिक से कम है |जाहिर है ऐसे में वे अपने परिवार का लालन –पालन ,सिक्षा और स्वस्थ्य का चिंता कैसे कर सकते हैं ? चाह कर भी माँ अपने बच्चों को पौष्टिक आहार तो छोड़ ,भरपेट भोजन भी नहीं करावा पाती |उपरी तौर पर सरकारों द्वारा पोषण उपलब्ध कराने के प्रयास थोथले प्रतीत होते हैं |वास्तव में हमें  जीडीपी केन्द्रित सोच को छोड़कर विकास का एक ऐसा मॉडल अपनाना होगा ,जिसमें रोजगार निहित हो और आय का सामान वितरण हो | जहा उद्दोग कुछ स्थानों पर ही केन्द्रित न हो ,बल्कि विकेन्द्रित रहे |तभी सभी लोंगों का भला हो पाएगा और भुखमरी रुकेगी | भुखमरी की समस्या क्रय शक्ति से संबंधित है | हमें अपने लोंगों की क्रय शक्ति बढ़ाना होगा | लोगों की क्रय शक्ति सुधरेगी तो स्वाभाविक तौर पर वे पौष्टिक भोजन भी प्राप्त कर सकेंगे |

1920 के दशक में बंगाल में पड़े भीषण आकाल के सन्दर्भ में अमर्त्य सेन अपनी पुस्तक फेमिंस इन इंडिया में लिखतें हैं कि जब बंगाल की सडकों पर लोग भुख से बिलखते हुए मर रहे थे ,तो भी उस समय भंडार गृहों में अन्न पर्याप्त मात्रा में था ,लेकिन उसे खरीदने की शक्ति लोगों के पास नहीं थी |

 

 

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