इंद्रियाँ है तो उसे रस तो चाहिए ही। रसहीन तो बेरस होता है। सोमपाई तो हमारे पुरखे थे। सोमरस से मिले अद्भुत आनंद का गान अथर्ववेद मे हुआ है। हिमालय की मूजवंत चोटी पर ऋषियों ने रसरंजन का यह अलहदा पेय खोजा और रस के शौकीनों को पीने की कला सिखाई। वैदिक युग मे ध्यानी-ज्ञानी-विज्ञानी सोमपाई थे।जबकि हाशिए का आदमी सुरा के शौक़ीन थे। छककर पीने का आतंक उस युग मे भी बरपता था। प्रतिनिधि संस्थाओं पर। सभा एवं समितियों मे लड़खड़ाते पैर इस क़दर हल्ला- हुड़दंग मचाते थे कि थक-हार कर ब्यवस्था नियंताओ को कड़े कदम उठाने पड़े , जिससे कि सदन चल सके। विद्वानों की परिषद ‘ विदथ ‘ अराजकता से अछूता थी। सुरा वाले इसके मेंबर नही थे।
रसरंजन केंद्रों पर लंबी बंदी के बाद अंतहीन सदृश्य क़तारो का जो नजारा दिखा, उससे चौंकने की बिल्कुल ज़रूरत नही है। हम तो आदिम रस प्रेमी जमात है। ‘रसै स: वह’ की अंतहीन लालसा मे डूबे रहते है। ब्रह्म न सही, अन्यत्र ही रस की वैकल्पिक व्यवस्था कर लेते है। वाह रे कोरोना महामारी। तूने यह भी दिन दिखा दिया। मंदिर -मस्जिद- गुरूद्वारा-चर्च बंद हो गए और मधुशाला खुल गई।
मयख़ाने के बंद कपाट खुलने की संभावना से ही बुझे चेहरे हरे-भरे हो गए । ह्दय मे आनंद-उत्साह-उमंग के अद्भुत संचार की भीतरगामी क्रियाएँ उनके चेहरे बयां कर रहे थे। महीने भर से ज्यादा हो गए। जेष्ठ की तपती दुपरिया मे तपते हुए। उधर राजस्व प्रेमी सरकारे भी तप रही थी। रसायन की अनुपस्थित मे मुरझाए तो थे लेकिन मरे नही। उधर सरकारे मरती जा रही थी। फिर तो वही होना था। मुरझाए बाग-बगिया पर रस की फुहार पड़ी और वे हरियरा गए। यह अंगूर के कुल का कमाल है कि पतझड़ मे भी वसंत का सुकून देती है। रोटी के चक्कर मे पेट की आग मे झुलस रहे लोगो को अंगूर के कुल गोत्र का रस पिला दिया गया। बहरहाल कुछ घंटों के लिए ही सही , रसरहित बुझे चेहरों पर फ़सल -ए-बहार बहार के दिन आ ही गए हैं । रस के लिए बौराई यह जमात “ इकोनॉमी – वॉरियर “ तो नही है। मेरे पियक्कड़ साथी, तेरा यह योगदान राष्ट्र हमेशा याद रखेगा। राम-रहीम, महावीर-बुद्ध , कबीर-तुलसी और गांधी के देश मे मद्ध है तो मद्यनिषेध भी है। गजबै संतुलन है। ज़्यादातर जिलो मे इसे बेचने और रोकने वाला पद एक ही अफ़सर के ज़िम्मे है।
आबकारी अधिकारी और मद्ध निषेध अधिकारी दोनो की भूमिका निभाना एक व्यक्ति के लिए कितना कठिन होता होगा। निश्चित है कि अफ़सरशाही की यह जमात उस्ताद क़िस्म की होगी। राशन की दुकानों से भीड़ गायब।रस की दुकानों पर भीड़ है। कही लोग फ्री वाला राशन बेचकर के दारु न पी जाएं। सोमरस की शालाओं पर दिख रहे गजब के उत्साह से कोरोना भी असमंजस में पड़ गया होगा। मृत्यु के ताण्डव की आशंका लेकिन उसी मे उत्सवियो की जमात।वैसे ये वे लोग है जो देश की अर्थव्यवस्था में अपना महान योगदान दे रहे है। शराब की बिक्री को आधार कार्ड से जोड देना चाहिए जिससे सही ग़रीबों को सरकारी मदद मिले। शराब के लिए पैसा रोटी के लिए. नहीं । क्या यही है हकीकत है?
साहित्य तो रस-रंजन के संकेतको से भरा-पूरा है। अपने सुविधानुसार लोग व्याख्या कर लेते है। ठीक वैसे ही, जैसे नमक स्वादानुसार। अकबर इलाहाबादी की यह पंक्तियां फिर से मौजूं हो उठी है—
‘हंगामा है क्यूं बरपा
थोड़ी सी ही तो ली है
डाका तो नहीं डाला
चोरी तो नहीं की है’
हरिवंश राय बच्चन ने तो हाला पर नामक मधुशाला ही लिख डाली। यह बात दीगर है कि महात्मा गांधी के समक्ष उन्हे स्पष्टीकरण देना पड़ा था।
‘ धर्मग्रन्थ सब जला चुकी है
जिसके अंतर की ज्वाला
मंदिर, मसजिद, गिरिजे
सब को तोड़ चुका जो मतवाला
पंडित, मोमिन, पादिरयों के
फंदों को जो काट चुका
कर सकती है आज उसी का
स्वागत मेरी मधुशाला ‘
बंदी के बाद सजी धजी मधुशालाए अपने प्रेमियों का स्वागत कर रही थी। मेरे शहर के एक शायर हुए मेराज फैजाबादी। क़तार को देख हमे वे बरबस याद आ रहे थे-
‘ मैकदे में किसने कितनी पी ख़ुदा जाने मगर,
मैकदा तो मेरी बस्ती के कई घर पी गया..!