उन्नसवीं शताब्दी तक यूरोपीय एक अमर्यादित, आक्रामक और पराक्रमी जाति के रूप में जाने जाते थे। लेकिन बीसवीं सदी में उन्होंने जो वैज्ञानिक और प्रौद्योगिकीय उपलब्धियों कीं, उसके बाद उनकी छवि ही बदल गई है। उसके बाद वे ज्ञान की नई दिशा खोजने वाली जाति के रूप में विख्यात हो गए। विश्व की दूसरी सभ्यताएं उनकी ओर आशंका से नहीं, आशा से देखने लगी। उन्होंने भौतिक जीवन को सरल, सुविधाजनक और गतिशील बनाने की प्रचुर सामग्री पैदा कर दी। इस नई दिशा ने उनका ध्यान लोगों से हटाकर वस्तुओं पर केन्द्रित कर दिया। अब अन्य जातियों को अपनी राजनैतिक अधीनता में बनाए रखने में उनकी अधिक रूचि नहीं रही। उनका सारा ध्यान भौतिक समृद्धि की होड़ में एक दूसरे से आगे निकलने में केन्द्रित हो गया। इस होड़ ने पहले और दूसरे महायुद्ध को जन्म दिया। इन दोनों महायुद्धों में लगभग आठ-नौ करोड़ लोग मारे गए।
आज एक शताब्दी के बाद भी यूरोपीय विज्ञान और प्रौद्योगिकी ने उनकी जातीय श्रेष्ठता का भ्रम बनाए रखा है। यूरोपीय शिक्षा के व्यापक अनुकरण के कारण विश्व की दूसरी जातियां भी ज्ञान की इस नई दिशा को आत्मसात करने में सफल रही हैं। वे उसके आधार पर अपने भौतिक जीवन को यूरोप जैसा बनाने की कोशिश कर रही हैं। अन्य लोगों में भी यह महत्वकांक्षा पैदा हुई है कि इस भौतिक समृद्धि की होड़ में वे यूरोपीय जाति से आगे निकल सकते हैं। समृद्धि के एक शिखर को छू कर यूरोपीय जाति ढलान पर है, जबकि अन्य जातियां अपनी आतंरिक शक्ति को समेट कर आगे निकलने की आशा संजोये हैं। इस होड़ में किसी को यह देखने की फुर्सत नहीं है कि यूरोपीय विज्ञान और प्रौद्योगिकी का वास्तविक स्वरूप क्या है? क्या सचमुच उसका विकास हमारे भौतिक जीवन को सरल, सुविधाजनक और गतिशील बनाने के लिए ही हुआ। उसके कारण जो जीवनशैली विकसित हो रही है, क्या वह सचमुच एक उन्नत जीवन की ओर ले जाती है ?
सबसे पहले यह समझना आवश्यक है कि यूरोपीय विज्ञान और प्रौद्योगिकी ने ज्ञान की कोई नई दिशा नहीं खोली है। यूरोपीय बुद्धि की जिज्ञासा सदा इसी दिशा में रही है। पिछली कुछ शताब्दियों में उसने जो उपलब्धियां की है वे उसकी उसी दिशा की नई उपलब्धियां हैं। यूरोपीय जाति के मूल स्वभाव को समझने के लिए उसके बहुत अतीत में जाने का न यहां अवसर है और न उसकी कोई आवश्यकता है। अगर हम उसके पिछली पांच शताब्दियों के इतिहास को देखें तो यूरोपीय विज्ञान और प्रौद्योगिकी की दिशा को पहचान सकते हैं। उसका यह इतिहास उसके भौगोलिक विस्तार और उपनिवेशीकरण का इतिहास रहा है। उसका भाग्योदय विशाल अमेरिकी महाद्वीप पर उसके नियंत्रण से होना आरंभ हुआ था। लेकिन यह भाग्योदय पूरी यूरोपीय जाति का भाग्योदय नहीं था। यूरोप के भीतर भी एक औपनिवेशिक व्यवस्था ही थी। यूरोपीय अभिजात वर्ग का बाकी सब लोगों पर औपनिवेशिक नियंत्रण ही था और इस अभिजात वर्ग की संख्या एक-तीन प्रतिशत तक ही थी। इस पूरे दौर में इस अभिजात वर्ग की सारी प्रतिभा क्षेपण, परिवहन और संचार के क्षेत्र में अधिक से अधिक कुशलता प्राप्त करने में लगी रही।
आधुनिक यूरोप का उदय मध्य सागर के दूसरी तरफ बसे अरबो के साथ संघर्ष के बीच से हुआ है। सातवीं शताब्दी में इस्लाम के उदय ने अरबों के विस्तार का मार्ग प्रशस्त किया। लेकिन तीन शताब्दियों में ही उनकी शक्ति चुक गई और मध्य एशिया और मंगोलिया की चरागाहों से आकर तुर्कों और मंगोलो ने उनको पराभूत करते हुए इस क्षेत्र में उस्मानी साम्राज्य का रास्ता प्रशस्त किया। इन नई शक्तियों के पास चीन से प्राप्त बारूद के युद्ध में उपयोग की कुशलता थी। उन्होंने क्षेपण की कला विकसित करके नये हथियार बनाए थे और तेज गति से चलने वाली घुड़सवार सेना खड़ी की थी। इसने युद्ध का स्वरूप बदल दिया और इस नये स्वरूप को आत्मसात करने में और परिष्कार करने में यूरोपीय लोग औरों से अधिक सफल सिद्ध हुए। पर इस सफलता का मुख्य कारण यह था कि यूरोपीय शक्तियां इस पूरे दौर में निरंतर आंतरिक युद्धों में फंसी रहीं। दुनिया के दूसरे क्षेत्रों में भी युद्ध हो ही रहे थे। लेकिन जैसी हिंसा और मारकाट यूरोप में हो रही थी उसकी अन्य सभ्यताओं के लोग कल्पना भी नहीं कर सकते। उदाहरण के लिए सत्रहवीं शताब्दी में जर्मन क्षेत्रों में कैथलिक और प्रोटेस्टेंट अनुयायियों के बीच तीस वर्ष तक जो युद्ध चला उसमें जर्मन पुरुषों की लगभग आधी आबादी समाप्त हो गई। यूरोप के आंतरिक युद्ध भी केवल सेनाओं के बीच होने वाले युद्ध नहीं थे। युद्धरत सेनाएं विपक्षी क्षेत्रों के निवासियों और संपत्तियों को नष्ट करने में भी कोई आगा -पीछा नहीं देखती थी |
इस हिंसक मारकाट के बीच जीवन की रक्षा तभी संभव थी जब आपके हथियारों की क्षेपण क्षमता, सेनाओं की गतिशीलता और संचार की विधियां औरों से बेहतर हों। इसी प्रक्रिया में यूरोप औरों से बेहतर तोपें और बंदूकें बनाना सीख गया, नौसेना खड़ी हुई और उन्नसवीं शताब्दी में यूरोपीय रेलवे और टेलीग्राफ का विकास करने में सफल रहे। इन सब उपलब्धियों में विज्ञान की कोई भूमिका नहीं थी। यह सब यांत्रिक प्रक्रियाओं को सिद्ध करके प्राप्त की गई उपलब्धियां थीं। विज्ञान की भूमिका उन्नसवीं सदी के अंत में बिजली के उपयोग की विधि सामने आने से हुई। लगभग उसी काल में मोटर गाड़ी अस्तित्व में आई। लेकिन आरंभ में इन नई उपलब्धियों में लोगों ने अधिक रूचि नहीं ली। बीसवीं सदी के आरंभ में टंक बनने लगे थे। लेकिन परिवहन के नये साधनों को लोगों ने तब तक स्वीकार नहीं किया जब तक पहले महायुद्ध में उनकी उपयोगिता पूरी तरह स्थापित नहीं हो गई।
जो लोग पश्चिमी विज्ञान के इतिहास से परिचित हैं, वे जानते हैं कि अधिकांश वैज्ञानिक खोजें युद्ध की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए हुईं। औद्योगिक क्रांति ब्रिटेन में हुईं, लेकिन उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में वैज्ञानिक प्रयोगशालाओं के मामले में जर्मनी आगे था, क्योंकि बिस्मार्क ने युद्ध के द्वारा क्षेत्रीय राजसत्ताओं के एकीकरण से एक नये जर्मन राज्य का गठन किया था। वह एक नई औपनिवेशिक शक्ति बनने और ब्रिटेन और फ्रांस को टक्कर देने की महत्वाकांक्षा पाल रहा था। 1938 तक वैज्ञानिक खोजों के मामले में जर्मनी अग्रणी था। हिटलर से त्रस्त होकर यहूदी और दूसरे वैज्ञानिकों के अमेरिका पलायन करने के बाद इस दिशा में अमेरिका अग्रणी हुआ। लेकिन नई खोजों को बढ़ावा देने और स्वीकृति दिलाने में अमेरिका आगे था और सबसे अधिक औद्योगिक पेटेंट वहीं हो रहे थे। इसलिए वैज्ञानिक जानकारी को प्रौद्योगिकी में बदलने में सबसे अधिक सफलता अमेरिका को ही मिली। उन्न्सवीं शताब्दी के अंत में ही अमेरिकी उद्यमियों ने देख लिया था कि यूरोपीय शक्तियां युद्धरत होंगी। इसलिए उसका उद्योगतंत्र युद्ध सामग्री बनाने के लिए ही खड़ा हुआ। दोनों महायुद्धों में मित्र राष्ट्रों की युद्ध सामग्री की सर्वाधिक पूर्ति अमेरिका ने ही की थी और उसी से उसकी विशाल कंपनियों का साम्राज्य खड़ा हुआ।
बीसवीं शताब्दी का पूर्वाद्ध अगर क्षेपण और परिवहन के क्षेत्र में हुई क्रांति है तो उत्तर्राद्ध संचार में हुई क्रांति। पूर्वाद्ध में तेज गति से चलने या उड़ने वाले साधनों का विकास युद्ध की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए ही हुआ था।
दूर तक विध्वंसक सामग्री फेंकने वाले अस्त्र-शस्त्र भी इसी उद्देश्य के लिए विकसित हुए। क्षेपण की कुशलता का अगला चरण अंतरिक्ष विज्ञान के रूप में उभरा। बीसवीं सदी के उत्तर्राद्ध में हुई कंप्यूटर क्रांति भी सामरिक उद्देश्य से खड़ी की गई प्रयोगशालाओं की उपज ही है। यूरोप के अनेक नामचीन वैज्ञानिकों ने माना है कि वहां विज्ञान ने एक गलत दिशा ले ली। यूरोपीय बुद्धि ने वैज्ञानिक जिज्ञासा को दिक और काल के नियंत्रण का, उपनिवेशीकरण का माध्यम बना दिया। विज्ञान का मुख्य उद्देश्य हो गया, कम स्थान और कम समय में अधिक से अधिक उत्पादन और देश व काल को लांघने की क्षमता।दुनियाभर के सभी लोगों में सदा वैज्ञानिक जिज्ञासा रही है। भारत में वैज्ञानिक जिज्ञासा का उद्देश्य प्रकृति की प्रक्रियाओं को समझकर जीवन की गुणवत्ता बढ़ाने के उपाय करना रहा है। इसी क्रम में स्थापत्य से लगाकर आर्युेवेद तक अनेक विद्याएं विकसित हुईं। हमारे यहां भी वैज्ञानिक विधियों का सामरिक उपयोग किया गया। अंतर इतना ही है कि यूरोप में उनके सामरिक उद्देश्य की प्रधानता है और दैनन्दिन जीवन की गुणवत्ता बढ़ाने का उद्देश्य गौण रहा है। भारत में दैनन्दिन जीवन की गुणवत्ता को प्रधानता है और सामरिक उद्देश्य गौण रहा है। इससे हम कोई सामरिक रूप से कमजोर रहे हों ऐसा नहीं है। तुर्कों और यूरोप के प्रभावी होने से पहले भारत उससे पहले के हजार वर्ष तक एक महान शक्ति के रूप में विख्यात रहा था। अगले कुछ समय में हम अपनी सभ्यता के उत्कर्ष द्वारा अपनी प्रधानता फिर सिद्ध कर लेंगे। संसार में शक्ति का आरोह-अवरोह होता रहता है और शक्ति केन्द्र बदलते रहते हैं। लेकिन हमारी वैज्ञानिक जिज्ञासा हमको एक गुणी और पराक्रमी समाज बनाने में लगती है, जबकि यूरोप की वैज्ञानिक जिज्ञासा उसे एक दुर्दांत शक्ति बनाने में लगती है।
पिछली एक शताब्दी में सामरिक उद्देश्य से खोजी गई वैज्ञानिक विधियों ने यूरोपीय जाति के भौतिक जीवन में भी महत्वपूर्ण परिवर्तन किए हैं। वहां के लोगों का भौतिक जीवन अब काफी सुविधाजनक हो गया है। बीसवीं सदी के पूर्वाद्ध में ही वैक्यूम क्लीनर, इलेक्टिंक आयरन, रेफ्रीजरेटर, कपड़े धोने की मशीन आम घरों में प्रवेश पा गए थे। खेती में ट्रैक्टर का उपयोग किया जाने लगा था। 1915 में अमेरिका में पच्चीस लाख मोटर कार थीं। लेकिन यूरोपीय बुद्धि जितना औद्योगिक वस्तुओं की मात्रा बढ़ाने में लगी रही है, उतना जीवन की गुणवत्ता बढ़ाने में नहीं लगी। यह संभव भी नहीं था क्योंकि जीवन की गुणवत्ता के लिए प्रकृत्ति का साहचर्य चाहिए। यूरोपीय विज्ञान भौतिक प्रक्रियाओं की परतें उधेड़कर और भौतिक सामग्री के विखंडन के द्वारा औद्योगिक अंबार खड़ा करने में लगा है |
औद्योगिक वस्तुओं के इस अंबार ने कई अर्थों में उसके जीवन की गुणवत्ता कम की है। उसकी सुविधाएं अवश्य बढ़ी हैं, लेकिन सुख नहीं बढ़ा। हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि यह औद्योगिक सामग्री यूरोप में भी सहज स्वीकृत नहीं हो गईं। काफी समय तक अमेरिकी मोटर गाड़ी या टैंक्टर के इस्तेमाल से हिचकते रहे। टेलीविजन को तो इडियट बाॅक्स कहा ही गया था। 1970 तक यूरोप में बहुत से किसान अपनी खेती हल में घोड़े जोत कर ही करते थे, टैंक्टर उन्हें भाया नहीं था। सबसे बड़ी बात यह है कि तेजी से खड़े हुए भौतिकतंत्र ने लोगों के जीवन में रही सही सामाजिकता भी खत्म कर दी है। पारिवारिक जीवन की समरसता समाप्त हो गई है। क्षेत्रीय स्तर पर प्रकृति से और दूसरे लोगों के जीवन से जो अनुकूलता होती थी, अब उसकी गुंजाइश नहीं बची।
यूरोप और अमेरिका जैसे उन्नत औद्योगिक देशों में विज्ञान और प्रौद्योगिकी फिर सेे फ्यूडलिज्म जैसी व्यवस्था लाने का माध्यम बनी है। बीसवीं सदी के आरंभ में उत्पादक साधनों पर अधिक लोगों का स्वामित्व था, अधिक लोगों की भागीदारी थी। अमेरिका में 1900 में खेती में तीन करोड़ लोग लगे थे। एक शताब्दी में उत्पादक साधनों का स्वामित्व कुछ सौ कंपिनयों में सिमट गया। अधिकांश लोग उनके कर्मचारी हो गए। आज अमेरिका का 89 प्रतिशत कृषि उत्पादन केवल तीन लाख लोगों से होता है, जो खेती के स्वामी नहीं है, खाद्य व्यापार में लगी कुछ बड़ी कंपनियों के कर्मचारी भर हैं। इसी तरह नाभिकीय हथियारों ने और अंतरमहाद्वीपीय मिसाइलों ने यूरोप-अमेरिकी सैन्य तंत्र को अजेय बना दिया है। आज औद्योगिक देशों में राजसत्ता इतनी ताकतवर हो गई है कि वह बिना सीधे हस्तक्षेप के भी सामान्य लोगों के भौतिक-राजनैतिक जीवन को नियंत्रित करती रहती है। कुल मिलाकर यूरोपीय विज्ञान और प्रौद्योगिकी मनुष्य की मनुष्यता घटाने में ही लगी है। यह स्वाभाविक भी है क्योंकि यूरोपीय लोगों की जैसी बुद्धि या प्रवृत्ति रही है, वहां का विज्ञान और प्रौद्योगिकी वैसा ही स्वरूप ले सकती थी। अगर भारत को अपनी सभ्यता का उत्कर्ष देखना है तो यूरोपीय विज्ञान और प्रौद्योगिकी के मायाजाल से निकलना होगा। उनकी जो विधियां उपयोगी और अपरिहार्य हैं उन्हें अपनी सभ्यता के ढांचे में ढालकर अपने उपयोग लायक बनाना होगा। लेकिन हमारी सभ्यता तो हमारी वैज्ञानिक दृष्टि पर ही खड़ी होगी।