महात्मा गांधी से जब यूरोपीय सभ्यता के बारे में पूछा गया था तो उन्होंने इसकी खिल्ली उड़ाई थी। भारतीय दृष्टि से सभ्यता का आधार नैतिक होता है। उसके लिए हमारे यहां जिस संज्ञा का प्रयोग किया गया है, वह है धर्म। यूरोपीय अपने उत्कर्ष की व्याख्या करते हुए जिस संज्ञा का उपयोग करते हैं, वह है सिविलाइजेशन। सिविलाइजेशन और सभ्यता को हम समानार्थी मानने लगे हैं। लेकिन यह दोनों शब्द अलग-अलग अर्थ रखते हैं। सभ्यता का आधार नैतिक है, जबकि सिविलाइजेशन का आधार शक्ति है। इस शब्द का अर्थ हम यूरोपीय जाति के ऐतिहासिक विकास को देखे बिना समझ नहीं सकते। यह सब मानते हैं कि यूरोप की दृष्टि यूनान के नगर राज्यों के समय परिपक्व हो गई थी। यूरोपीय चित्त में यूनान के नगर राज्य उनकी नगर सभ्यता का उत्कर्ष थे। यह राज्य वर्ग विभाजन पर आधारित थे। नगर में रहने वाले स्वतंत्र नागरिक तर्कबुद्धि तथा राजनैतिक बुद्धि से संपन्न पुरूष थे। नगर में उससे बाहर जो लोग उत्पादन में लगे हुए थे, वे तर्क बुद्धि या राजनैतिक बुद्धि से रहित हीन-मनुष्य थे। अंग्रेजी में उनके लिए सब-वयूमन शब्द का व्यवहार किया जाता रहा है। सब स्त्रियां भी इस वर्ग में आती थीं। इस तरह यूनान के नगर राज्यों की तीन चैथाई से अधिक, कहीं-कहीं 90 प्रतिशत जनसंख्या हीन-मनुष्यों की श्रेणी में रखी गई थी। उत्पादन के कार्य में लगे सब लोग नगर में रहने वाले राजनैतिक बुद्धि से संपन्न नागरिकों के दास थे। राजनैतिक बुद्धि से संपन्न यह लोग योद्धा थे और योद्धा होना ही यूनानियों की बुद्धि में आदर्श माना जाता था।
मध्यकाल में यह विभाजन अभिजात वर्ग और भू-दास वर्ग में बदल गया। मध्यकालीन यूरोप की व्यवस्था मुख्यतः कृषि पर आधारित व्यवस्था थी। अभिजात वर्ग योद्धाओं से ही निर्मित होता था। यह युद्धजीवी, जिसके नेतृत्व में युद्ध करते थे, वह विजित क्षेत्र का स्वामी अर्थात राजा अभिहित होता था। उस क्षेत्र की सारी संपत्ति का वही स्वामी माना जाता था। उसके साथ के योद्धा विभिन्न क्षेत्रों के उप-स्वामी माने जाते थे, जिनका काम था राजा को कर चुकाते हुए भू-दासों से कृषि करवाना। नगर में रहने वाले शिल्पी वर्ग को अर्धस्वतंत्र स्थिति में रखा गया था और नगर का मुखिया उनसे कर वसूल कर राजकोष में जमा करता था। कराधान राज्य की आवश्यकतानुसार राजाज्ञा से निर्धारित होता था। इस शक्ति तंत्र की एक समानांतर धारा चर्च थी और वह भी विशाल संपत्ति की स्वामी थी। यूरोप के अधिकांश क्षेत्रों में लगभग 40 प्रतिशत कृषि भूमि उसके नियंत्रण में थी। 15वीं शताब्दी के अंत में जब यूरोपीय बाहर निकले, अमेरिकी महाद्वीप जैसा विशाल क्षेत्र उनके नियंत्रण में आया तो सृष्टि संबंधी ईसाई मान्यताओं ने उनकी देशकाल की समझ को जिस छोटी सीमा में बांध रखा था, वे उससे बाहर निकले। तब यूरोप में वयूमनिज्म का दौर आरंभ हुआ। इस दौर की हमारे यहां बहुत गलत व्याख्या होती रही है। वयूमनिज्म का मानवता से कोई संबंध नहीं है। यह विचार चर्च के ईश्वर संबंधी विश्वासों के विरोध में उभरा था और उसका जोर ईश्वर की जगह तर्कबुद्धि संपन्न मनुष्य पर था। इस वयूमनिज्म के दायरे में न भू-दास थे न स्त्रियां।
यूरोप को समझने के लिए यह याद रखना आवश्यक है कि उनकी दृष्टि वर्गभेद से निर्देशित रहती है। यूरोपीय बुद्धि में यह धारणा जमी हुई है कि थोड़े से चुने हुए लोगों में ही सामथ्र्य होता है। वही सिविलाइजेशन विकसित करते हैं। अधिकांश लोग तो पतित और हीन बुद्धि ही होते हैं और अगर उन्हें नियंत्रण में न रखा जाए तो वे सिबिलाइजेशन को नष्ट कर सकते हैं। वे केवल यांत्रिक रूप से उत्पादन में लगे रहने योग्य ही है और उन्हें बलपूर्वक उस काम में लगाए रखना सिविलाइजेशन को बचाए रखने के लिए आवश्यक है। भारत में जिस तरह सारी सृष्टि में आत्मभाव देखते हुए सभी मनुष्यों को परमात्मा का अंश समझा गया, यह यूरोपीय दृष्टि में ग्रहण नहीं हो पाता। भारत में सभी मनुष्यों को एक विवेकशील प्राणी के रूप में देखा गया। भारत में भी लोगों के बीच अनेक तरह के भेद उभरे, पर वे सब व्यावहारिक भेद ही हैं। यूरोप मनुष्यों के बीच के भेदों को व्यावहारिक नहीं नैसर्गिक मानता है। अठारहवीं और 19वीं शताब्दी में जब यूरोप औपनिवेशिक लूट के कारण संपन्न हुआ तो यह वर्ग भेद कमजोर पड़ने लगे, लेकिन बीसवीं सदी में जैसे ही यह संपन्नता स्थिर हुई, वह वर्ग भेद एक नया स्वरूप लेकर फिर दृढ़ मूल हो गए।
यूरोप ने अपने सिविलाइजेशन की श्रेष्ठता स्थापित करने के लिए जो गाथा रची है, उसमें यह दिखाया गया है कि वे एक अंधेरे युग से पुर्नजागरण काल के द्वारा ज्ञान के प्रकाश में आए। इस ज्ञान की चरम परिणति उनके उन्नत राजनैतिक विचारों-संस्थाओं में तथा विज्ञान और प्रौद्योगिकी में हुई है। इस विशद गाथा के प्रभाव में पिछली एक शताब्दी में दुनियाभर के यूरोपीय शिक्षा में दीक्षित लोगों ने उसी तरह से सोचना और देखना आरंभ कर दिया है। वे यूरोपीय इतिहास की स्वतंत्र समीक्षा नहीं कर पाते। इसलिए इस अवधि में यूरोप में जो विचार और संस्थाएं विकसित हुईं, उनके वास्तविक स्वरूप को भी नहीं समझ पाते। जिस तरह वयूमनिज्म का अर्थ मानवतावाद के रूप में ग्रहण किया जाता रहा है, उसी तरह डेमोक्रेसी का अर्थ जनता के शासन के रूप में और कम्युनिस्ट स्टेट का अर्थ वर्ग भेद को समाप्त करने वाले राज्य के रूप में ग्रहण किया जाता रहा है। यह भ्रामक धारणाएं इतनी प्रचलित हो गई है कि सामान्य पढ़े-लिखे लोगों को वे स्वयंसिद्ध लगती हैं। अभी तो यूरोपीय शिक्षा तंत्र का विस्तार ही होता जा रहा है। इसलिए इन भ्रामक धारणाओं से मुक्ति आसान नहीं दिखती।
यूरोपीय लोगों ने अपनी यह यशोगाथा इस तरह लिखी है कि उससे यह भ्रम पैदा होता है कि उनके ज्ञानात्मक विकास ने ही उनके औपनिवेशिक विस्तार का मार्ग प्रशस्त किया था। भारत के बारे में अपनी निंदात्मक टिप्पणियां करते हुए कार्लमाक्र्स ने इन्हीं भ्रामक धारणाओं को व्यक्त किया था। हम यह भूल जाते हैं कि यूरोपीय अभियान से पहले अरब क्षेत्रों से इस्लाम की सेनाओं के रूप में एक अभियान आरंभ हुआ। अरब कबीलाई सेनाओं ने इस अभियान में उत्तरी अफ्रीका से लगाकर मध्य एशिया और फारस तक अपनी शक्ति का विस्तार किया। फिर मध्य एशिया और मंगोलिया से तुर्क और मंगोल कबीलाई सेनाएं एक आंधी के रूप में आई। उन्होंने आधे यूरोप, समूचे अरब, फिर भारत और चीन को भी पराभूत कर दिया। जिस क्षेत्र से यह आंधियां उठी थीं, वे ज्ञान-विज्ञान में उन्नत नहीं बल्कि संसार के सबसे पिछड़े क्षेत्र थे। उन्होंने भारत और चीन जैसी उन्नत सभ्यताओं को अस्त-व्यस्त कर दिया था। उसी से यूरोपीय विश्व विजय का रास्ता खुला। जब यूरोप अपने अभियान पर निकला था तो अरब और तुर्क या मंगोलोें की तरह वह भी संसार के सबसे पिछड़े क्षेत्रों में गिनने योग्य था। यूरोपीय उस
समय भौतिक रूप से ही नहीं, नैतिक रूप से भी कितने पिछड़े थे, इसकी झलक उनके औपनिवेशिक दौर की घटनाओं से पाई जा सकती है। लेकिन उन्होंने जो क्रूरता और बर्बरता गैर-यूरोपियों के साथ बरती, वह कोई विजेताओं की मदांधता नहीं थी। यही क्रूरता और बर्बरता वे सदा अपने लोगों के साथ भी बरतते रहे थे। यूरोप के कुलीन तंत्र और चर्च द्वारा यूरोप के साधारण लोगों के साथ जो क्रूरता और बर्बरता सदा बरती जाती रही, उसके वृत्तांत कम लोमहर्षक नहीं हैं।यूरोप का इतिहास वास्तव में यूरोप के लोगों का इतिहास कम, उसके शासक वर्ग का इतिहास अधिक है। इस शासक वर्ग की प्रतिस्पर्धा से ही वयूमनिज्म, डेमोक्रेसी और कम्युनिज्म जैसे विचार आए। यूरोप का सामंती ढांचा ज्ञान के प्रकाश के कारण नहीं, उपनिवेशों से मिली समृद्धि के कारण कमजोर पड़ा। अपने औपनिवेशिक विस्तार के लिए यूरोप के शासक वर्ग को अधिक बल और साधनों की आवश्यकता थी। इसके लिए सामंती दासता की व्यवस्थाएं ढीली करना आवश्यक था।
सामंती दासता से मुक्त हुए लोगों की संख्या बढ़ी तो उसने राजनैतिक स्वरूप लेना आरंभ किया। उनके बल पर अभिजात वर्ग से बाहर धनाडय नागरिकों में से एक नया वर्ग पैदा हुआ। इस नए वर्ग ने अभिजात वर्ग के विरुद्ध झंडा उठाया। बाहरी सभ्यताओं के संपर्क से यूरोप में अपने भौतिक जीवन से, राजनैतिक व्यवस्थाओं से और मजहबी अंधविश्वासों से असंतोष भी पैदा हो रहा था। इसी ने फ्रांस में वाल्तेयर जैसे विचारकों को जन्म दिया। वाल्तेयर
उस समय के यूरोप का सबसे प्रखर विचारक था और उसने कहा था कि धर्म के मामले में भारत और नीति के मामले में चीन यूरोप से कहीं श्रेष्ठ है। इसी सबके बीच फ्रांसी क्रांति हुई। उसने स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व का नारा दिया। पर इन शब्दों का यूरोप में वह अर्थ नहीं था, जो हमारे यहां मान लिया जाता है। फ्रांसी क्रांति के नेताओं का यूरोप का उद्देश्य अभिजात वर्ग की समाप्ति और कानून में सबको समान दर्जा दिलवाना था। फ्रांसी क्रांति से राजा की जगह उससे भी अधिक शक्तिशाली और नियंत्रित आधुनिक राज्य का जन्म हुआ और ब्रिटेन में मैग्नाकाटा से प्रतिस्पर्धा पर आधारित संसदीय व्यवस्था का जन्म हुआ। यूरोपीय लोकतंत्र में राज्य सत्ता द्वारा फिर सारा नियंत्रण मुटठीभर लोगों के हाथ में चला गया और उनकी सत्ता को व्यापक स्वीकृति दिलवाने के लिए चुनाव व्यवस्था के जरिये आम लोगों को इस नए शक्ति तंत्र का पुर्जा बना दिया गया। यही काम माक्र्सवादियों ने किया। उन्होंने वर्ग भेद की समाप्ति का नारा लगाया, लेकिन सर्वहारा की तानाशाही के नाम पर सारी सत्ता मुटठीभर लोगों को सौंप दी। लोकतंत्र के नाम पर बुर्जुआ स्टेट और माक्र्सवाद के नाम पर कम्युनिस्ट स्टेट यूरोप की मध्यकालीन सामंती व्यवस्था का चतुर रूपांतरण है।
यूरोप अपने विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में अभूतपूर्व विकास के बहुत गीत गाता है। उसके इस विकास की प्रेरक शक्ति उसका औपनिवेशिक साम्राज्य था। यूरोपीय विज्ञान और प्रौद्योगिकी की मूल प्रेरणाएं तो प्रकृति पर विजय और उत्पादन तंत्र की लोगों पर निर्भरता कम करना थीं। 1350 में प्लेग से यूरोप की आधी आबादी के नष्ट हो जाने के बाद यह प्रवृत्ति बढ़ी थी। उन्नीसवीं सदी की औद्योगिक क्रांति मनुष्य की जगह मशीन को प्रधानता
देने की इच्छा का ही परिणाम थी। उसमें आधुनिक यूरोपीय विज्ञान की कोई भूमिका नहीं थी। उत्पादन तंत्र में मनुष्य की उपस्थिति न केवल उत्पाद की गुणवत्ता में वृद्धि करती थी, बल्कि साधारण लोगों को अपने कौशल में विकास के द्वारा समर्थ भी बनाती थी। मशीन को प्रधानता देने से केवल उत्पादन की मात्रा बढ़ी और लोग मशीन का पुर्जा होकर रह गए। उससे उनका सामथ्र्य तो घटा ही, उनमें नैतिक क्षीणता भी आ गई और उससे मनोवैज्ञानिक विकार और आपराधिक प्रवृत्तियां बढ़ीं। बीसवीं सदी आधुनिक विज्ञान के उत्कर्ष की सदी है। पर उसकी मूल प्रेरणा यूरोपीय देशों और अमेरिका की सामरिक आकांक्षा थी। उसने दो महायुद्धों को जन्म दिया, जिनमें कुल सात-आठ करोड़ लोग मारे गए और सर्वविनाशक नाभिकीय हथियारों का विकास हुआ। उन्हीं वैज्ञानिक प्रविधियों का उत्पादन तंत्र को और अधिक सक्षम बनाने में उपयोग हुआ। उसके परिणामस्वरूप लोग उत्पादक से उपभोक्ता हो गए। आप पाएंगे कि यूरोपीय विज्ञान ने मनुष्य का प्रकृति से संबंध तो समाप्त किया ही है, उसे व्यक्तिवादी बनाते हुए उसे नैतिक पतन की ओर भी अग्रसर किया है।
पिछली दो शताब्दियों में निश्चय ही यूरोपीय जाति ने अपने भौतिक साधन बहुत बढ़ा लिए हैं। लेकिन उसका यह भौतिक विकास जिस बर्बर और विनाशक प्रक्रिया से उपलब्ध हुआ है, उसे याद रखना आवश्यक है। इस प्रक्रिया से गुजरकर यूरोपीय जाति का तो नैतिक क्षय हुआ ही है, वह दुनियाभर को भी उसी दिशा में अग्रसर कर रहा है। उसने भौतिक ज्ञान की कुछ नई दिशाओं में प्रगति अवश्य की है। लेकिन कुल मिलाकर उसने ज्ञान के जितने दरवाजे खोले है, उससे कहीं अधिक बंद किए हैं। उसने ज्ञान को भौतिक पदार्थ में सीमित कर दिया है और पढ़े-लिखे लोगों में दिव्य सत्ता का बोध क्षीण कर दिया है। उसकी इन सब प्रवृत्तियों ने मनुष्य को मनुष्यता से गिराया ही है।
यूरोप के भौतिक विकास के कारण जो उपभोक्ता सामग्री पैदा हुई है, उसने हममें यूरोपीय जाति के इस इतिहास और उसकी प्रवृत्तियों की स्मृति क्षीण कर दी है। भारत में ब्रिटिश शासन के कारण हुए विनाश पर एक सरसरी दृष्टि डालकर इस इतिहास की स्मृति ताजा की जा सकती है। बंगाल में ब्रिटिश शासन की स्थापना के कुछ ही समय बाद 1770 में भयंकर अकाल पड़ा, जिसमें एक तिहाई जनसंख्या समाप्त हो गई। लगभग एक करोड़ लोग भूख और अकालजन्य रोगों से तड़प-तड़प कर मर गए। उसके बाद 1855 में प्लेग फैली, फिर एक करोड़ आबादी स्वाहा हो गई। उसके कुछ ही समय बाद 1876-78 में अकाल और भुखमरी से फिर उतने ही लोग मरे। 1899-1900 में फिर उतनी ही विकराल स्थिति पैदा हुई और फिर एक करोड़ के आसपास लोगों को अपनी
जान गंवानी पड़ी। यह अकाल केवल अनावृष्टि के कारण नहीं पड़े थे। एक प्राकृतिक आपदा के रूप में अकाल सदा पड़ते रहे हैं। लेकिन कुछ अपने और कुछ राज्य के साधनों से लोग इस अकाल की अवधि से निपटने में सफल हो जाते थे। लेकिन ब्रिटिश शासन के करों के अतिशय बोझ के कारण व्यक्तिगत और स्थानीय साधन बचे नहीं। साधनों के अभाव में खेती का पूरा तंत्र ध्वस्त हो गया। सिंचाई आदि की पारंपरिक व्यवस्थाएं चैपट हो गईं। ब्रिटिश राज्य की एक और झलक उसने अपने औद्योगिक उत्पाद के लिए किस तरह भारत के उद्योगधंधों का नाश किया, इसमें पाई जा सकती है। ब्रिटेन की औद्योगिक क्रांति जिन कपड़ा मिलों से शुरू हुई थी, उनके उत्पाद का बाजार बनाने के लिए उन्होंने भारत के वस्त्र उद्योग को चैपट कर दिया। बंगाल के हजारों जुलाहों के हाथ तक काट दिए गए थे कि वे खडडी पर बैठने लायक न रहे। उन्होंने हमारी शिक्षा व्यवस्था चैपट कर दी और अपनी हम पर थोप दी। यह सब भूलकर कुछ वर्ष पहले हमारे तब के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को
अपनी ब्रिटिश यात्रा के दौरान ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के गीत गाने और उसे भारत की प्रगति का रास्ता खोलने वाला बताने में शर्म नहीं आई। भारत के लोग तो फिर भी समर्थ लोग थे। विश्व के अन्य क्षेत्रों में यूरोपीय लोगों ने जो बर्बरता और पाशविकता दिखाई है, उसके मानव इतिहास में कम ही उदाहरण मिलेंगे। यूरोपीय सिविलाइजेशन सभ्यता की कसौटी पर खरा भले न उतरे, लेकिन वह सामरिक रूप से अजेय है और पूरी दुनिया के लिए कम से कम अभी वह नियामक बना हुआ है। हमारे सबसे प्रतिभावान लोग उसकी सेवा में लगे हैं। हम अपने आर्थिक विकास की दिशा में जो भी कदम उठा रहे हैं, वे हमसे पहले यूरोपीय सिविलाइजेशन को मजबूत कर रहे हैं। सभी अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर विधायी सत्ता उनके हाथ में है। उनकी कंपनियां विश्व के उत्पादन तंत्र और वित्तीय तंत्र को नियंत्रण में किए हुए हैं। उनका प्रतिकार करने के अभी दो ही रास्ते दिखाई देते हैं-महात्मा गांधी का सत्याग्रह या अरबों का आतंकवाद। लेकिन सभी शक्ति तंत्रों की एक अनिवार्य नियति होती है। शक्तिकर्षण की प्रक्रिया में वे अंदर से खोखले होते चले जाते हैं और इससे जो असंतुलन पैदा होता है वह उन्हें विनाश की ओर ले जाता है। प्रकृति का यह नियम सिविलाइजेशन पर भी लागू होता है। वही उसे पराभव की ओर ले जाएगा। उसने इस बीच मनुष्य के उपयोग की जो विधियां विकसित की हैं और जो सामग्री बनाई है, वह रहेगी। कोई नई सभ्यता उसे अपने संतुलित ढांचे में इस्तेमाल कर लेगी। हमें प्रयत्न करना चाहिए कि यह नया सभ्यता केंद्र हमारे पुरुषार्थ से पैदा हो। हममें उसकी पूरी योग्यता है।