उन्नीस सौ पचास के आसपास विश्व के अधिकांश देश यूरोपीय शक्तियों के औपनिवेशिक नियंत्रण से तो मुक्त हो गए, लेकिन उन पर यूरोप के आर्थिक-राजनैतिक विचारों और संस्थाओं का नियंत्रण बना रहा। पिछले सात दशकों में यह नियंत्रण बढ़ता ही रहा है। आज भी यूरोप के आर्थिक और राजनैतिक विचारों से बाहर झांकना विश्व की दूसरी सभ्यताओं के लिए मुश्किल बना हुआ है। आज जो लोग और देश यूरोपीय जाति की शक्ति को चुनौती देने की कोशिश कर रहे हैं, वे उनके आर्थिक-राजनैतिक विचारों के दायरे में ही रहकर उनसे आगे निकल जाना चाहते हैं। पिछली लगभग एक शताब्दी में यूरोपीय बुद्धि यह भ्रम फैलाने में लगी रही है कि उन्होंने जो सभ्यता खड़ी की है, उसकी श्रेष्ठता स्वयंसिद्ध है। वह विश्व की एक उन्नत और अग्रणी जाति की सभ्यता है। उसे स्वीकार करके ही आप सभ्यता की इस दौड़ में यूरोपीय जाति से आगे निकल सकते हैं। यूरोपीय विचारों की इस जकड़न ने अब तक भारतीय मेधा को भी निश्चेष्ट कर रखा है। हम उसकी बनाई इस सभ्यता को न स्वीकार कर पाते हैं, न उससे बाहर अपनी सभ्यता का मार्ग प्रशस्त कर पा रहे हैं। हम एक दिग्भ्रमित व्यक्ति की तरह चैराहे पर खड़े हैं।
हर सभ्यता की अपनी एक दृष्टि होती है। अगर आप उसके सोचने की दिशा बदल दें तो वे हतप्रभ से आपका अनुकरण करने के लिए विवश होंगे। यूरोपीय शिक्षा जगत ने पिछली एक शताब्दी में यही किया है। भारत में अब तक समाज को ही मुख्य माना जाता था। राज्य उसकी एक संस्थाभर था। शासन का अर्थ राजा का नियंत्रण नहीं था। शासन का अर्थ था सामाजिक अनुशासन बनाए रखना। सामाजिक अनुशासन तभी संभव है, जब समाज की सभी इकाइयां अपने शासन की व्यवस्था स्वयं संभालें। यही स्वराज्य है। इसमें राज्य की भूमिका समाज की बनाई गई व्यवस्थाओं की रक्षा करने में है। कोई शक्ति का दुरुपयोग करके इन व्यवस्थाओं को भंग न करें, यह देखना राज्य का
काम है। उसके पास राज-शक्ति है। राजा या राज्य का काम व्यवस्था बनाना नहीं, उसकी रक्षा करना है। हमारी स्वराज्य व्यवस्था में सभी बल एक-दूसरे को संतुलित करते रहते थे। हमारी इस व्यवस्था की मूल शक्ति हमारे सभी लोगों की स्वतंत्रता रही है। स्वतंत्र लोगों का समाज ही स्वराज्य का अधिकारी हो सकता है।
हमारे सारे राजनैतिक विमर्श में यह तथ्य भुला दिया जाता है कि अब तक के इतिहास में भारत के लोगों की सी स्वतंत्रता संसार की किसी और जाति को प्राप्त नहीं रही। स्वतंत्रता जिन दो पायों पर खड़ी होती है, वे हैं उत्पादन के साधनों पर स्वामित्व और विधि का अधिकार। संसार में केवल हमारे यहां यह दोनों अधिकार सदा यहां के सब लोगों को प्राप्त रहे हैं। यूरोप में तो यह अधिकार कभी सामान्य लोगों के पास नहीं रहे। वहां सदा राजा एक विजेता की तरह देखा गया और वह ही सभी संपत्तियों का स्वामी और विधि का प्रदाता माना गया। यूरोप की राजनैतिक व्यवस्थाएं दासता पर आधारित रही हैं। अब वहां कानूनन कोई दास नहीं है। लेकिन आज भी राज्य ही सिद्धांततः सभी संपत्तियों का स्वामी और विधि प्रदाता है। चीन, जहां लोग अपेक्षाकृत स्वतंत्र थे और उत्पादन में लगे किसानों की ऊंची प्रतिष्ठा थी, वहां भी सम्राट ही सभी संपत्तियों का स्वामी और विधि का प्रदाता माना जाता था। विश्व के अन्य क्षेत्रों की स्थिति यूरोप जैसी बुरी न हो, पर चीन से बहुत बेहतर नहीं थी। भारत के लोग अपनी मूलभूत स्वतंत्रता के कारण ही विदेशी अधीनता के दौर में भी अपनी सामाजिक व्यवथाओं को बनाए रख पाए।
अंग्रेजी शिक्षा का सबसे बड़ा अपराध यह है कि उसने भारतीय सभ्यता के केंद्र में समाज की जगह राज्य को स्थापित कर दिया। आज हमारा सारा विमर्श राज्य केंद्रित ही है। समाज की सभी व्यवस्थाएं कठघरे में खड़ी कर दी गई है। हमारा राष्टंीय आंदोलन ब्रिटिश शासन को हटाकर स्वराज्य स्थापित करने के लिए आरंभ हुआ था। महात्मा गांधी ने 1908 में हिंद स्वराज्य लिखकर इसकी घोषणा तक कर दी थी। उस समय तक ब्रिटेन या दूसरे यूरोपीय देशों में डेमोक्रेसी का स्वरूप भी स्थिर नहीं हुआ था। ब्रिटेन में 1918 तक केवल एक सीमा से ऊपर संपत्ति के स्वामी पुरुषों के पास ही सीमित राजनैतिक अधिकार थे और केवल वही वोट दे सकते थे। स्त्रियों को वोट देने का अधिकार ब्रिटेन में 1928 में, फ्रांस में 1944 में, यूनान में 1952 में और स्विटजरलैण्ड में 1971 में मिला। अमेरिका में तो और भी बुरी स्थिति थी। वहां रंगभेद ने पूरे अमेरिका को विभाजित कर रखा था। राज्य में लोगों की भागीदारी बाद में हुई, लेकिन राज्य के प्रति सभी लोगों के दायित्व पहले ही स्थिर कर दिए गए। 1914 मेंप्रथम विश्व युद्ध से पहले यूरोप के विभिन्न देशों में जो सैनिक कानून बनाए गए उनके अनुसार हर पुरुष का सेना में भर्ती होना अनिवार्य कर दिया गया था। भारत में राज्य का ऐसा निरंकुश नियंत्रण कभी नहीं रहा।
महात्मा गांधी जीवनभर अपने राजनैतिक सहयोगियों को स्वराज्य की व्याख्या समझाते रहे। उनके सहयोगी अपनी अंग्रेजी शिक्षा के कारण उनकी यह व्याख्या समझने में असमर्थ रहे। यह असमर्थता केवल जवाहर लाल नेहरू तक सीमित नहीं है। वे तो यूरोपीय सभ्यता से अभिभूत थे ही, शेष सभी लोग भी स्वराज्य को राज्य की प्रणाली के रूप में ही समझने का प्रयत्न करते रहे। स्वराज्य से पूरे समाज की शासन व्यवस्था निर्धारित होती है। स्वराज्य से ही राज्य पर समाज की वरीयता स्थिर होती है। स्वराज्य ही लोगों की स्वतंत्रता का वास्तविक आधार है। लोगों की स्वतंत्रता की रक्षा तभी हो सकती है जब राज्य समाज का अनुगत रहे। यूरोप के समूचे इतिहास में राज्य लोगों की स्वतंत्रता का अपहरण करके ही खड़ा होता रहा है। राज्य का अर्थ है सभी लोगों से ऊपर एक संप्रभु शक्ति। यूरोप में कभी समाज जैसी कोई अवधारणा नहीं रही। समाज स्वतंत्र लोगों से बनता है। यूरोप में कभी लोग स्वतंत्र रहे ही नहीं, सिवाय उस कबीलाई व्यवस्था के, जो राज्य पूर्व की स्थिति मानी जाती है। कबीलाई व्यवस्था, यूरोपीय बुद्धि के अनुसार, एक पिछड़ी और अविकसित अवस्था है और उसमें पड़े लोगों को जीतकर दास बनाते हुए राज्य की अधीनता में लाना ही सिविलाइजेशन निर्मित करना है।
यह धारणा कि यूरोप की आज की राजनैतिक संस्थाएं उसकी प्राचीन या मध्ययुगीन राजनैतिक संस्थाओं को नष्ट करके निर्मित की गई हैं, एक भ्रामक धारणा है। आज भी यूरोपीय राजनैतिक संस्थाएं यूरोप की मध्ययुगीन संस्थाओं का रूपांतरण ही हैं। वे मध्ययुगीन संस्थाओं से भिन्न अवश्य हैं पर राज्य और नागरिक का जो मूलभूत संबंध पहले था वही आज भी है। यह समझने के लिए हमें भारतीय दृष्टि से, स्वतंत्र दृष्टि से यूरोप के राजनैतिक इतिहास को समझना पड़ेगा। यूरोपीय औपनिवेशिक शासन में जिस तरह का राजनैतिक ढांचा खड़ा हुआ, यूरोपीय शक्तियों के राजनैतिक नियंत्रण के बाद अधिकांश जगह वह निरंकुश सैनिक या दलीय शासन की ओर ले गया। पर यूरोपीय बुद्धिजीवी इसे उन देशों और समाजों की अंतर्निहित कमजोरी बताते हैं। उनके अपने यहां रूस जैसे अपवादों को छोड़कर डेमोक्रेसी की संस्थाएं फली-फूलीं। उन्हें ही यूरोपीय सभ्यता का प्रतिनिधित्व करने वाली राजनैतिक प्रणाली के रूप में दिखाया-बताया जाता रहा है। इसलिए यह देखना आवश्यक है कि यह प्रणाली किस प्रक्रिया में विकसित हुई और उसका मूल स्वरूप क्या है।
यूरोप में आज जो राजनैतिक ढांचा विकसित हुआ है, उसका मूल यूरोप के इतिहास की दो घटनाओं में देखा जाता है। यूरोप की चुनी हुई विधायिकाओं का मूल 1215 के मैग्नाकार्टा में देखा जाता है। इसी तरह राजा और कुलीन तंत्र के वर्चस्व को समाप्त करके आधुनिक राज्य का जो स्वरूप उभरा है, उसका मूल 1789-1799 की फ्रांसी क्रांति में देखा जाता है। यूरोप को समझने के लिए इन दोनों घटनाओं को समझना आवश्यक है। यह दुर्भाग्य की बात है कि हमने यूरोप के इतिहास को अपनी दृष्टि से देखने का प्रयत्न नहीं किया। बल्कि यूरोपीय इतिहासकारों ने अपनी दृष्टि से भारतीय इतिहास की जो व्याख्या की है, उसे हमने बिना समीक्षा के स्वीकार कर लिया है। यूरोप में लंबे समय से मैग्नाकार्टा के इर्द-गिर्द एक मिथक रचा जाता रहा है। हमने उससे संबंधित तथ्यों को ही ठीक से देखा होता तो मैग्नाकार्टा में हमें उस समय के इंग्लैंड के राजनैतिक ढांचे की बर्बरता दिखाई दे जाती। इसके साथ ही उससे जो संस्थाएं निकलीं, उनका वास्तविक स्वरूप भी हम समझ पाए होते। मैग्नाकार्टा के समय का राजनैतिक ढांचा ग्यारहवीं शताब्दी की नाॅर्मन विजय से बना था। विलियम नाम के एक फ्रांक योद्धा ने दस हजार घुड़सवारों के साथ नार्मंडी से आकर इंग्लैंड को जीत लिया। वह विजेता होने के नाते इस नए क्षेत्र की सारी संपत्तियों का स्वामी हो गया। उसने यहां की सारी भूमि का उप-स्वामित्व अपने दस हजार योद्धाओं को सौंप दिया। वे नया अभिजात वर्ग बने। उनका काम भूदास बना दी गई इंग्लैंड की जनसंख्या से अनाज और अन्य वस्तुओं का उत्पादन करवाकर उसके मूल्य का एक बड़ा भाग राजस्व के रूप में राजकोष में जमा करवाना और युद्ध के लिए सैनिक उपलब्ध करना था। इस अभिजात वर्ग के भीतर कई स्तर थे। सबसे ऊपर बैरन थे और वही राजा की राज परिषद के मुख्य सदस्य थे। ब्रिटेन का ही नहीं, पूरे यूरोप का राजनैतिक ढांचा कमोबेश ऐसा ही था।
निरंतर चलने वाले युद्धों के कारण राज्य की राजस्व संबंधी मांगें बढ़ती रहती थीं। राजस्व निर्धारित करने का अधिकार राजा को ही था। अक्सर राज्य तंत्र राजस्व की मांग करते समय यह भी ध्यान नहीं रखता था कि फसल ठीक हुई भी है या नहीं। इसी से तंग आकर बैरन विद्रोह पर उतर आए और उन्होंने राजा को एक आज्ञा पत्र जारी करने के लिए विवश कर दिया, जिसमें यह व्यवस्था थी कि राजस्व की मांग बढ़ाते समय बैरनों से परामर्श किया जाएगा। इस आज्ञा पत्र में राजा, बैरन और चर्च के परस्पर संबंधों को व्यवस्थित करने की कोशिश की गई थी। सामान्य लोगों के अधिकारों की इसमें कोई बात नहीं थी। बल्कि इस आज्ञा पत्र से भूदासों पर अभिजात वर्ग का नियंत्रण और सख्त ही हुआ था। बहरहाल सालभर में दोनों पक्ष इस आज्ञा पत्र से पीछे हट गए। पर
राजा और अभिजात वर्ग के बीच तनातनी बनी रही। अभिजात वर्ग में विभाजन था। राजा के समर्थक और विरोधी दो पक्ष हो गए थे। उनकी प्रतिस्पर्धा से ही कालांतर में दलीय व्यवस्था का जन्म हुआ। इस दलीय व्यवस्था की सबसे बड़ी बुराई यह है कि वह प्रतिस्पर्धा और बहुमत के सिद्धांत से चलती है और उसका एकमात्र लक्ष्य सत्ता प्राप्ति है। इससे उसके राजनैतिक व्यवहार की कोई मर्यादा नहीं रहती और वह पूरे समाज को विभाजित करती रहती है। वह शासन के लिए नहीं, नियंत्रण के लिए बनाई गई है। शासन सदा सर्वानुमति और परस्पर व्यवहार की मर्यादाओं से होता है। यूरोप में राज्य का विकास शासन के लिए नहीं नियंत्रण के लिए ही हुआ है। डेमोक्रेसी के महिमामंडन में यह बात भुला दी जाती है कि राज्य एक प्रतिष्ठान है, जो सरकार, विधायिका, नौकरशाही और सेना से मिलकर बना है। उसके निर्णयों में चुने हुए नेतृत्व की सीमित भूमिका ही है। यह भी याद रखना चाहिए कि लोग सरकार को चुनते नहीं है। दलीय प्रतिस्पर्धा में उनकी भूमिका सीमांतक ही है। वे एक बड़े तमाशे का दर्शक भर हैं।
ब्रिटेन में 1215 के आज्ञा पत्र से बैरन की जो परामर्शदात्री संस्था बनी वह ही धीरे-धीरे राज्य परिषद के रूप में उभरी। उसमें राजा के समर्थक अल्पमत में न पहुंचंे, इसके लिए राजा मनमाने ढंग से राज्य परिषद की संख्या बढ़ाता रहता था। इस राज्य परिषद में उप भू-स्वामियों के साथ नगर के मुखियाओं को जोड़ना आरंभ हुआ। वे चूंकि अभिजात वर्ग के बाहर के थे, इसलिए उन्हें काॅमन्स के प्रतिनिधि कहा जाने लगा। अक्सर फर्जी क्षेत्रों के नाम पर भी नियुक्तियां की जाती थीं। जब राज्य परिषद के सांसदों की संख्या अधिक बढ़ी तो इसे विभाजित करके दो सदन बना दिए गए। हाउस आॅफ काॅमन्स इसी तरह अस्तित्व में आया। भारत की पौर परिषदों की चुनाव प्रणाली से प्रेरित होकर ब्रिटेन में सांसदों को राजा द्वारा नियुक्त किए जाने की बजाय चुना जाने लगा। अमेरिकी क्रांति और फ्रांसी क्रांति से राजा और अभिजात वर्ग के विरुद्ध जो माहौल बना, उसमें चुनी हुई संसद की स्थिति मजबूत हुई। खर्चीली प्रतिस्पर्धा ने चुनाव लड़ने वाले एक नए राजनीतिक वर्ग को पैदा कर दिया है। आप पाएंगे कि दलीय व्यवस्थाएं एक व्यक्ति या परिवार के इर्द-गिर्द खड़ी होती हैं। चुनाव एक युद्ध का रूप ले लेते हैं, जहां निर्णायक शक्ति कुछ व्यक्तियों में सिमटती चली जाती है। इन चुनी हुई संसदों के सभी फैसले बहुमत से होते हैं। दलीय नियंत्रण विवेक की गुंजाइश नहीं रहने देता। इसीलिए महात्मा गांधी ने हिंद स्वराज्य में संसद को वेश्या कहा था, जो जिधर बहुमत होता है उधर खिसक जाती है। इस डेमोक्रेसी ने सभी जगह राजनैतिक और सामाजिक व्यवहार की मर्यादाओं को विकृत ही किया है।
यूरोप के आज के राजनैतिक ढांचे को निर्मित करने में मैग्नाकार्टा से भी बड़ी भूमिका फ्रांसी क्रांति की है। फ्रांसी क्रांति से राजा और अभिजात वर्ग का अस्तित्व खतरे में पड़ गया। इस क्रांति में अभिजात वर्ग के विशेषाधिकारों को समाप्त करने और उत्पादक वर्ग की स्वतंत्रता की मांग हुई और कालांतर में उसी ने आधुनिक राज्य और नागरिक अधिकारों का मार्ग प्रशस्त किया। इस क्रांति से जो कम्यून पैदा हुए उन्हीं ने माक्र्सवादी विचार और कम्युनिस्ट स्टेट का मार्ग प्रशस्त किया। फ्रांसी क्रांति की यूरोप के मध्यकालीन फ्यूडलिज्म को ढहाने में बड़ी भूमिका है। लेकिन उससे जो राजनैतिक ढांचा निकला, वह फ्यूडलिज्म के ढांचे से बहुत भिन्न नहीं है। इस नए ढांचे में सर्फ अर्थात भूदास का शारीरिक शोषण अधिकांशतः मशीनों पर स्थानांतरित हो गया है। सर्फ लेबर में बदल गया है। अभिजात वर्ग समाप्त हो जाने के कारण राज्य और नागरिक सीधे संबंधित हो गए हैं। आज की व्यवस्था में नागरिक अधिकारों की स्वीकृति से जितनी शक्ति सामान्य नागरिकों को मिली है, उससे कहीं अधिक शक्ति राज्य को मिली है। आज यूरोप के राज्य तंत्र के पास जितनी शक्ति है, उतनी इतिहास में कभी नहीं रही। इस शक्ति को प्रभावी बनाने में विज्ञान और प्रौद्योगिकी की बड़ी भूमिका है। पहले के राजा की ही तरह आधुनिक राज्य भी सभी संपत्तितियों का स्वामी और विधि का प्रदाता है। बाकी सबके अधिकार उसके द्वारा प्रदत्त है और इसलिए उसके द्वारा वापस लिए जा सकते हैं। यूरोप का राजनैतिक तंत्र आज कल्याणकारी दिखता है, क्योंकि अपने व्यापारिक साम्राज्य द्वारा वह अकूत साधन जुटाने में समर्थ है। यह व्यापारिक लूट जब संभव नहीं होगी। राज्य उतना कल्याणकारी नहीं दिखेगा। पिछली एक शताब्दी में अभिजात वर्ग की जगह बहुराष्टंीय कंपनियों ने ले ली है। अमेरिका में नया शासक वर्ग इसी धनाडय तंत्र से निकल रहा है। वहां एक प्रतिशत लोग आधी दौलत के मालिक है।