यूरोप की शिक्षा का स्वरूप

 

बनवारी

आज यह बात सर्वमान्य लगती है कि पिछली लगभग एक शताब्दी में यूरोपीय शिक्षा का जो स्वरूप उभर कर आया है, वह सबके लिए उपादेय है। आप अगर भौतिक उन्नति चाहते हैं तो वह यूरोपीय शिक्षा के अनुकरण से ही पाई जा सकती है। यूरोप-अमेरिकी शिक्षा संस्थाएं पिछले सवा सौ वर्ष से विश्वभर के शिक्षाकामी लोगों का तीर्थ बनी हुई हैं। इन शिक्षा संस्थाओं द्वारा  पिछले सौ डेढ़ सौ वर्ष में शिक्षा की जो विषय वस्तु निर्धारित हुई है, वह ही आज दुनियाभर के स्कूल-कॉलेज  और उच्च शिक्षा केंद्रों में पढ़ी-पढ़ाई जा रही है। यूरोप-अमेरिका की नामी शिक्षा संस्थाएं अपना व्यवसाय बढ़ाने के लिए दूसरे देशों में शाखाएं खोलने में लगी हैं। दुनियाभर के पढ़े-लिखे लोगों के सोचने-समझने की दिशा इस यूरोप-अमेरिकी शिक्षा-तंत्र द्वारा ही निर्धारित की जा रही है।

भारत का स्वाधीनता संघर्ष यूरोपीय शिक्षा से मुक्त होने की आकांक्षा लेकर आगे बढ़ा था। महात्मा गांधी के भारतीय राजनीति में अवतरण से काफी पहले मदन मोहन मालवीय ने भारतीय शिक्षा के अप्रतिम केंद्र काशी में भारतीय पद्ध ति की शिक्षा का एक नया और आधुनिक केंद्र स्थापित करने का संकल्प लिया था। 1905 में उन्होंने भारतीय शिक्षा की दिशा अग्रसर करने वाले विश्वविद्यालय का एक प्रारूप तैयार किया था। यह काफी कुछ भारतीय दृष्टि से तैयार किया गया प्रारूप था। लेकिन जब वे उसे लेकर धन-संग्रह के लिए निकले तो दानदाताओं के आग्रह-पूर्वग्रह उसमें जुड़ते चले गए और उसके अनुसार वह प्रारूप बदलता गया। अंत में 1915 में बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय की नींव पड़ी तो वह शिक्षा की भारतीय समझ छोड़ चुका था। वह राष्टंीय भावना से भरा हुआ एक आधुनिक यूरोपीय शिक्षा केंद्र जैसा ही था।

महात्मा गांधी ने देश के युवकों को यूरोपीय शिक्षा से विमुख करने के लिए शिक्षा संस्थान छोड़ने और राष्ट्रीय  आंदोलन में कूद पड़ने का आहवान  किया।

ऐसे लोगों के लिए बहुत से राष्ट्रीय  शिक्षा संस्थान खड़े हुए। गुजरात विद्यापीठ से लगाकर काशी विद्यापीठ तक बहुत से प्रयोग हुए। लेकिन यह सब स्थान राष्ट्रीय स्वाभिमान का केंद्र होने के बावजूद भारतीय शिक्षा के केंद्र नहीं थे। उनमें पढ़ाए जाने के विषय और पढ़ाने की पद्धति सब यूरोपीय शिक्षा केंद्रों जैसी ही थी। नाममात्र का जो अंतर था, वह भी धीरे-धीरे समाप्त हो गया। आज भी हम अंग्रेजी शिक्षा को अपने भारतीय स्वभाव, संस्कार और सभ्यता के विपरीत ही मानते हैं। लेकिन यह नहीं जानते कि उसे बदलें कैसे। फलस्वरूप देश में शिक्षा का जो ढांचा अंग्रेजों ने खड़ा किया था, वह निरंतर बढ़ता चला जा रहा है। हम उसके विस्तार में ही अपना गौरव देखने लगे हैं।

यूरोपीय शिक्षा से भारत में ही नहीं, थोड़ा-बहुत असंतोष दुनियाभर में देखा जा सकता है। यूरोपीय जाति का जो अर्थतंत्र दुनियाभर में फैला हुआ है, वह बहुत से लोगों को दमनकारी लगता है। इस अर्थतंत्र को पालने-पोसने वाले शिक्षातंत्र के प्रति भी उनमें स्वाभाविक रूप में असंतोष जगता है। लेकिन जैसे वे यूरोपीय जाति द्वारा विकसित औद्योगिक जीवन शैली का कोई विकल्प नहीं जानते, उसी तरह आधुनिक यूरोपीय शिक्षा का कोई विकल्प नहीं सोच पाते। एक विवशता यह भी है कि यूरोपीय जाति का शक्ति तंत्र विश्वव्यापी हो गया है। इस तंत्र में बने रहने के लिए उसकी संस्थाओं और उसकी प्रणालियों का अनुकरण करना आवश्यक है। आज की दुनिया में आप सबसे कटकर नहीं रह सकते। इस दुनिया में बने रहते हुए अपनी एक नई दिशा ढूंढ़ लेना या बना लेना अगर असंभव नहीं है, तो आसान भी नहीं है। उसके लिए सबसे पहले यह आवश्यक है कि आप आज के इस विश्वव्यापी शक्तितंत्र के मूल स्वरूप को समझ लें। वह क्यों और कैसे विकसित हुआ है, इसे ठीक से जान लें।

इसकी ही सबसे बड़ी बाधा आज का शिक्षातंत्र है। यूरोपीय जाति ने अपने शिक्षा तंत्र के द्वारा पिछली एक शताब्दी में जो विशाल साहित्य पैदा किया है, वह इस शक्तितंत्र के बाहर नहीं झांकने देता। यह शिक्षातंत्र घोड़ों की आंख पर बंधे हुए अंखुओं की तरह है, जो उन्हें एक दिशा में देखने के लिए विवश किए रहता है। यूरोपीय शिक्षा के मूल स्वरूप को समझने के लिए इन अंखुओं को उतारना आवश्यक है। अगर आप यूरोपीय सभ्यता की चकाचैंध से अपने-आपकों मुक्त कर लें तो उसकी शिक्षा की दिशा को समझना मुश्किल नहीं है। सबसे पहले हमें इस भ्रम से मुक्ति पा लेनी होगी कि आज की यूरोपीय सभ्यता उसकी शिक्षा का परिणाम है। 19वीं शताब्दी के मध्य तक यूरोप संसार के सबसे अशिक्षित क्षेत्रों में गिने जाने योग्य था। उस समय भी शिक्षा के मामले में संसार का सबसे उन्नत क्षेत्र भारत ही था। भारत के हर गांव में एक पाठशाला थी। उच्च शिक्षा के केंद्र भी पूरे देश में फैले हुए थे। इन उच्च शिक्षा केंद्रों में पढ़ाए जाने वाले विषयों का विस्तार बहुत अधिक था। शिक्षा की इस व्यापकता के बावजूद शिक्षा भौतिक उन्नति का एकमात्र माध्यम नहीं बना दी गई थी। अशिक्षित लोग भी जीवन के सभी क्षेत्रों में उन्नति करते पाए जाते थे। शिक्षा को शिक्षा केंद्रों में पढ़ने-लिखने में सीमित करके नहीं देखा जाता था। अपने से सीखकर आगे बढ़ा जा सकता था। स्वाध्याय की गुंजाइश सदा थी। हुनर की शिक्षा अभ्यास साध्य थी। उसके लिए स्कूल-कॉलेज  में भर्ती होना अनिवार्य नहीं था।

 

यूरोपीय शिक्षा के मूल स्वरूप को समझने के लिए यह याद रखना आवश्यक है कि यूरोप में 19 शताब्दी तक शिक्षा एक छोटे से वर्ग में सीमित थी। अठारहवी शताब्दी के अंत में पूरे यूरोप में उच्च शिक्षा के कोई 150 केंद्र थे। इन केंद्रों को आज विश्वविद्यालय की संज्ञा मिल गई है। उस समय उनमें केवल अभिजात वर्ग के लोग ही शिक्षा प्राप्त कर सकते थे, जिनकी संख्या यूरोप की आबादी का मुश्किल से दो प्रतिशत थी। शहरों में रहने वाले वे सामान्य लोग कभी-कभी उनमें प्रवेश पा जाते थे, जिनके पास उन्हें दान देने को पर्याप्त धन था। वरना जिनमें शिक्षित होने की इच्छा होती थी, वे अनौपचारिक तरीके निकालते थे। उदाहरण के लिए बहुत से शिक्षित लोग अपने घर टयूशन देने लगते थे। यूरोप की आबादी का बहुलांश भूदास थे। उन्हें शिक्षा प्राप्त करने की मनाही थी। उनमें कोई शिक्षा लेता-देता पाया जाता था तो उसे राजाज्ञा से दंडित किया जाता था। तेरह सौ में ब्रिटेन में एलिजाबेथ द़ क्लेयर अभिजात परिवार की एक बहुत धनी महिला थीं-शायद ब्रिटेन की सबसे धनी महिला। वह बहुत उदार थी और सोचती थी कि उनके भूदासों में जिनकी शिक्षा में रूचि हो उन्हें शिक्षित होने की सुविधा मिलनी चाहिए। ऐसे कुछ और भी लोग रहे होंगे। लेकिन इससे शासक वर्ग इतना विचलित हुआ कि 1391 में ब्रिटेन के राजा रिचर्ड द्वितीय ने एक राजाज्ञा जारी करके भूदासों के पढ़ने पर पाबंदी लगा दी और इसकी अवज्ञा पर दंड की व्यवस्था कर दी। इसी तरह के लिखित-अलिखित प्रावधान 19वीं शताब्दी के आरंभ तक पूरे यूरोप में थे।

यूरोप के इन तथाकथित उच्च शिक्षा केंद्रों का आरंभ 1088 में इटली में बोलान्या के ऐसे ही एक केंद्र से माना जाता है। यह आरंभ में राजकीय अवसरों को पाने के इच्छुक छात्रों के रोमन लॉ  आदि में टयूशन लेने के स्थान थे। धीरे-धीरे उनका स्वरूप और विकसित हुआ। उन्हें राजा या नगर परिषद द्वारा  स्थापित किया जाने लगा और उनके नियम आदि बनते गए। कालांतर में वे डिग्री देने लगे। दक्षिण-यूरोप के शिक्षा केंद्रों में रोमन लॉ की शिक्षा प्रमुख थी तो उत्तरी यूरोप में थ्योलॉजी  की। उन्नीसवीं शताब्दी तक यूरोप में शिक्षा मुख्यतः चर्च के नियंत्रण में थी। आरंभिक शिक्षा के लिए ग्रामर स्कूल थे। ऐसे अधिकांश स्कूल ईसाई मठों द्वारा संचालित थे। अठारह सौ पचास तक यूरोपीय शिक्षा की विषय-वस्तु सीमित ही थी। सत्ररहवीं-अठारहवीं शताब्दी में ही इन शिक्षा केंद्रों का अधिक विस्तार हुआ था। क्योंकि तब तक यूरोपीय उपनिवेशों के लिए और यूरोपीय अभियानों के लिए शिक्षित लोगों की मांग बढ़ गई थी। यूरोपीय शिक्षा का विस्तार यूरोप के औपनिवेशिक विस्तार के साथ हुआ है और उसी से उसकी विषय-वस्तु का निर्माण हुआ है।

यूरोपीय शक्ति का विस्तार उसके व्यापारिक विस्तार की ओर ले गया। अमेरिका जैसे विशाल महाद्वीप पर नियंत्रण ने यूरोप को बाइबिल के बाहर देखने के लिए प्रेरित किया। उसने भौतिक कार्य-कारण को महत्व देना आरंभ किया। भारत में जिस तरह ब्रह्म विद्या का, दर्शनों का, स्थापत्य, चिकित्सा, नाटय शास्त्र, व्याकरण, रसायन और ज्योतिष का विस्तार एक-दूसरे के साथ सामंजस्य बैठाते हुए हुआ था, वैसा यूरोप में नहीं हुआ। भारत में सभी क्षेत्रों में विशाल साहित्य का निर्माण निरंतर होता रहा। यूरोप में 18वीं शताब्दी से पहले सीमित साहित्य ही है। इसलिए जब उनकी जिज्ञासा भौतिक कार्य-कारण की ओर मुड़ी तो चर्च और विज्ञान में एक ऊपरी द्वंद्व पैदा हुआ। यह बहुत कहा जाता है कि यूरोपीय विज्ञान चर्च के विरोध में खड़ा हुआ, पर उसका कारण चर्च का नियंत्रणकारी स्वरूप था। वरना यूरोप के अधिकांश वैज्ञानिक उतने ही निष्ठावान ईसाई भी रहे हैं। इस भौतिक कार्य-कारण को जानने-समझने पर जोर का एक परिणाम यह हुआ कि यूरोपीय शिक्षा में तार्किकता मुख्य हो गई और नीति छूट गई।

यूरोपीय शिक्षा की सारी विषय-वस्तु उसके औपनिवेशिक काल में विकसित हुई है। अपने राजनीतिक नियंत्रण को बनाए रखने के लिए दूसरे समाजों को जिस तरह देखा जा सकता है, वही उनके समाज विज्ञानों के निर्माण में सहायक हुआ है। इसी तरह उसके विज्ञान के विषय उसके सामरिक और व्यापारिक उदेश्य सिद्ध करने की कोशिश में निर्मित हुए हैं। भारत में शास्त्रों के निर्माण में सत्य की जिज्ञासा और सामान्य लोगों के भौतिक जीवन को सुधारने की आकांक्षा मुख्य रही है। भारत में निश्रेयस और अभ्युदय एक-दूसरे से जुड़े रहे हैं। यूरोप में सत्य की जिज्ञासा गौण है। उसका मुख्य उद॰ेश्य अपने यहां के प्रभु तंत्र की लक्ष्य प्राप्ति में सहायक होना है। भारत में शिक्षा के मूल आधार गांव-गांव में फैली पाठशालाएं थीं। उन्हीं से खेती, उद्योग, व्यापार और राज-काज की कुशलता निर्मित होती थीं। यूरोप में 1820 तक सामान्य लोगों की शिक्षा के लिए कोई विद्यालय नहीं है। भारत में ब्रिटिश प्रशासकों ने गांव-गांव फैले विद्यालय देखे, उनके बारे में यूरोप की जानकारी बढ़ी तो वहां

 

भी स्कूल शुरू हुए। लेकिन आरंभ में केवल संडे स्कूल बने और वे भी बाइबिल पढ़ाने के लिए। फिर नियमित स्कूल खुले, पर उनके लिए विद्यार्थी मिलना मुश्किल थे। 1880 में जब राजाज्ञा द्वारा स्कूल जाना अनिवार्य किया जाने लगा तब ठीक से शिक्षा का तंत्र विकसित हुआ। इसीलिए यूरोप में आज भी शिक्षा ऐच्छिक नहीं है, अनिवार्य है। भारत में शिक्षा की बुराइयां गिनाते हुए मैकाले को बहुत दोष दिया जाता है और कहा जाता है कि उसने नौकर पैदा करने के लिए यह शिक्षा तंत्र खड़ा किया है। पर यूरोप- अपनी सभ्यतागत विशेषताओं के अनुरूप होने चाहिए और उनके लिए शिक्षा का ढांचा भी हमारी अपनी परंपरा से ही निकलना चाहिए। हमारे ज्ञान-विज्ञान की दिशाएं हमारी अपनी परिस्थितियों से निर्देशित न हों तो हमारे लिए उनकी सार्थकता क्या है। डेढ़ शताब्दी पहले तक हम विश्व का सबसे शिक्षित समाज थे। फिर से वह ऊंचाई हम दूसरों का पिछलग्गू होकर नहीं पा सकते। ज्ञान-विज्ञान की अपनी परंपरा की नींव पर ही हम अपनी आज की शिक्षा का एक आधुनिक और भव्य तंत्र खड़ा कर सकते हैं। उसकी रूपरेखा पर विस्तार से विचार किया जाना चाहिए। अभी हम इतना ही याद रखें कि अंग्रेजों ने केवल हमारे यहां एलिटिस्ट और नौकर पैदा करने वाली शिक्षा नहीं बनाई, उनकी अपनी शिक्षा भी ऐसी ही अमेरिका का सारा शिक्षा तंत्र नौकर पैदा करने के लिए ही है। इस शिक्षा तंत्र के कारण ही पिछली एक शताब्दी में खेती और उद्योग बड़ी कंपनियों के हाथों में सिमटते गए हैं और शेष लोग उनकी नौकरी करने के लिए विवश बना दिए गए हैं।

यह बहुत बड़ा भ्रम है कि यूरोपीय शिक्षा सामान्य लोगों के भौतिक जीवन को सुधारने के लिए है। उसका उद्देश्य  दुनियाभर में यूरोपीय शक्ति का वर्चस्व बनाए रखना और एक प्रभु वर्ग का निर्माण करना है। इस प्रभु वर्ग का अस्तित्व उस मध्य वर्ग के बिना नहीं चल सकता जो उसकी शक्ति के साधन उपलब्ध करता है और आधुनिक तंत्र द्वारा उत्पादित वस्तुओं का उपभोक्ता भी है। आप पाएंगे कि यूरोप और अमेरिका के साधारण लोग उनकी सारी संपन्नता के बावजूद एक अनिश्चित और कठिन जीवन ही जी रहे हैं। पिछले दो-तीन दशक में औद्योगिक संसार की आर्थिक शक्ति में जो भी कमी आई है, उसका बोझ नीचे की साठ-सत्तर प्रतिशत आबादी पर अधिक पड़ा है। प्रभु वर्ग की शक्ति तो बढ़ती ही जा रही है, मध्य वर्ग अपनी शक्ति बचाए रखने के लिए संघर्षरत है। लेकिन साधारण लोग अपनी हताशा और गुस्सा डोनाल्ड टंम्प जैसे अरबपतियों को चुनाव जिताकर ही प्रकट कर पाते हैं। उनके पास और कोई सामथ्र्य नहीं है।

आज हम चाहे भी तो यूरोपीय शिक्षा को पूरी तरह नहीं छोड़ सकते। यूरोपीय जाति ने जो सामरिक साज-सामान और तंत्र खड़ा किया है, उससे अपनी रक्षा के लिए हमें उसी के रास्ते पर चलकर ऐसा सामरिक साज-सामान और तंत्र खड़ा करना आवश्यक है। उसके व्यापारिक साम्राज्य में अपने हित सुरक्षित रखने के लिए हमें आधुनिक वित्तीय संस्थाओं की वैसी ही कुशलता चाहिए जैसी उन्होंने प्राप्त की है। अपना भौतिक तंत्र खड़ा करने में हमें उनकी इंजीनियरिंग अपनानी ही पड़ती है। लेकिन हम यह तो कर सकते हैं कि ऐसे आधुनिक तंत्र को आधुनिक शिक्षा की जो संस्थाएं चाहिए, उन्हें शिक्षा की मुख्य धारा से अलग कर दें। सामरिक तंत्र की जरूरतों को पूरा करने वाली शिक्षा का अलग प्रतिष्ठान हो। वित्तीय कुशलता की शिक्षा वित्तीय तंत्र के हवाले हो।

 

रेलवे जैसे प्रतिष्ठान अपने तंत्र को चलाने की शिक्षा का दायित्व अपने ऊपर लें। हमारी खेती, कल-कारखाने, चिकित्सा, शिल्प, नृत्य संगीत, भवन निर्माण, भाषा, साहित्य, दर्शन और ब्रह्म जिज्ञासा हमारी है।

 

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