पिछली लगभग आधी शताब्दी तक पश्चिम के अर्थशास्त्री गैर-यूरोपीय देशों को यह समझाते रहे हैं कि उनकी गरीबी का कारण उनकी जनसंख्या में हुई अपूर्व वृद्धि है। गैर-यूरोपीय देशों के विद्वानों ने उनसे पलटकर यह नहीं कहा कि पिछली कुछ शताब्दियों में उन्होंने अपनी जनसंख्या में अभूतपूर्व वृद्धि न की होती तो न उनके यहां औद्योगिक क्रांति हुई होती और न वे आज की अपनी अमीरी पर इतना इतराने की स्थिति में होते। 1500 में जब वे अपने विश्व अभियान पर निकले थे तो उनकी आबादी अधिक नहीं थी। उस समय शेष दुनिया की आबादी कितनी थी, इसका कोई ठीक अनुमान संभव नहीं है। यूरोपीय विद्वानों ने अब तक जो अनुमान लगाए हैं वे अटकलपच्चू से अधिक नहीं है। उनके हिसाब से भी उस समय विश्व की जनसंख्या में यूरोपीय लोगों का अनुपात 12 प्रतिशत के आसपास था। बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध तक उन्होंने यह अनुपात बढ़ाकर 38 प्रतिशत से अधिक कर लिया था। उस समय वे दुनियाभर में फैल चुके थे और उनकी आबादी लगभग 80 करोड़ हो चुकी थी। यूरोपीय लोगों की जनसंख्या में 17वीं से 19वीं शताब्दी तक जो अभूतपूर्व वृद्धि हुई थी, उसी ने वस्तुओं की विशाल मांग पैदा की |
अगर लोगों की तेजी से संख्या बढ़ने से बाजार में मांग न बढ़ी होती तो औद्योगीकरण की गुंजाइश ही न पैदा हुई होती। यह सही है कि उनके व्यापारिक जहाज 17वीं शताब्दी में ही लंबी सामुद्रिक यात्रा तय करके जापान और चीन तक पहुंच गए थे। लेकिन वहां तो यूरोपीय वस्तुओं की कोई मांग नहीं थी। जब उन्होंने चीन के सम्राट से व्यापार की अनुमति मांगी तो उन्हें यही उत्तर मिला था कि चीनी समाज अपनी आवश्यकता की सभी वस्तुएं पैदा कर लेता है। उन्हें बाहर से किसी वस्तु की आवश्यकता नहीं है। यूरोपीय लोगों के पास वैसे भारत, चीन और जापान जैसे उन्नत समाजों के लिए बेचने को कुछ था ही नहीं। आरंभिक दौर में वे अपनी शराब और हथियार बेचकर और अन्य देशों से व्यापार के लिए खरीदी गई
सामग्री बेचकर ही मुनाफा लूट रहे थे। उनके औद्योगीकरण की प्रेरक शक्तियां बाहर नहीं उनके अपने क्षेत्र में ही पैदा हुई थीं। अमेरिकी महाद्वीप पर नियंत्रण ने यूरोप की जनसंख्या को फैलने के लिए एक मार्ग खोल दिया था। अमेरिकी महाद्वीप में अर्जित संपत्ति से यूरोप का आंतरिक बाजार विकसित हुआ। ब्रिटेन की औद्योगिक क्रांति दरअसल इसी नए और यूरोपीय बाजार ने संभव बनाई थी। अब तक यूरोप के अर्थशास्त्री यह भ्रम फैलाते रहे हैं कि बाजार की शक्तियों को फलने-फूलने दिया जाए तो अपने आप औद्योगिक विकास हो जाता है। इसी तर्क के आधार पर वे दुनियाभर के देशों पर अपनी पूंजी और अपनी कंपनियों के लिए दरवाजे खोलने का दबाव बनाते रहते हैं। लेकिन बाजार इतनी सहज प्रक्रिया में विकसित नहीं होता। सामान्यतः सभी लोग अपनी परिस्थितियों, आवश्यकताओं, अभिरूचियों और नैतिक मान्यताओं के आधार पर अपने आर्थिक जीवन का स्वरूप तय करते हैं। उसी के आधार पर धीरे-धीरे स्वतःस्फूर्त बाजार का विस्तार होता है। लेकिन यूरोपीय बाजार का विस्तार उसके औपनिवेशीकरण की देन था। यूरोप का अपना भू-भाग विश्व के भू-भाग का मात्र 6.7 प्रतिशत ही है। जब तक वे
अपने भू-भाग में रहे बहुत पिछड़े रहे। यूरोप का राजनैतिक ढांचा फ्यूडल था। एक-डेढ़ प्रतिशत अभिजात वर्ग का यूरोप के सभी उत्पादक साधनों पर स्वामित्व था। स्वाभाविक ही है कि ऐसे नियंत्रित ढांचे में अधिकांश लोग गरीबी में रहें। लेकिन 15वीं शताब्दी के अंत में उन्हें अमेरिकी महाद्वीप का विशाल क्षेत्र हथियाने में सफलता मिल गई। अमेरिकी महाद्वीप की आबादी उस समय यूरोप से भी अधिक थी। लेकिन उन्होंने तब तक बंदूकों और तोपों का आविष्कार नहीं किया था। थोड़े ही समय में यूरोपीय लोगों ने अमेरिकी महाद्वीप की 95 प्रतिशत आबादी समाप्त कर डाली। अमेरिका के बाद कनाडा, आस्ट्रेलिया ,न्यूजीलैंड, मध्य एशिया और साइबेरिया आदि अनेक नए क्षेत्रों पर नियंत्रण करने में उन्हें सफलता मिलती गई। इन सभी की मूल आबादी अधिकांशतः समाप्त कर दी गई। इस तरह यूरोपीय विश्व के 38 प्रतिशत से अधिक भू-भाग पर अपना नियंत्रण करने में सफल हो गए।
यूरोपीय शासक वर्ग के हाथ में आया विश्व का यह विशाल भू-भाग कई दृष्टियों से महत्वपूर्ण था। यूरोप के पास कृषि योग्य भूमि कम नहीं थी, लेकिन सोने और चांदी जैसी बहुमूल्य धातुओं के भण्डार उसके यहां नहीं थे और न ही उन खनिजों के जो औद्योगिक क्रांति को आगे बढ़ाने में सहायक हुए। इस दृष्टि से यह नया प्राप्त क्षेत्र बहुत उपयोगी सिद्ध हुआ। अमेरिकी महाद्वीप में सोना खोजने के अभियान ने बहुत यूरोपीय लोगों को वहां जाने के लिए प्रेरित किया था। अमेरिकी महाद्वीप से मिले सोने-चांदी के भण्डार से ही यूरोपीय
दूसरे देशों के साथ अपना व्यापार बढ़ाने में सफल हुए थे। उनके पास बेचने के लिए अपना कोई सामान नहीं था, इसलिए सोने-चांदी के नए मिले भण्डार ने उनकी बहुत मदद की। उसे देकर वे दूसरे देशों से सामान खरीद सकते थे। इन नए क्षेत्रों में व्यासायिक खेती से लगाकर बहुमूल्य धातुओं के खनन तक उनके औद्योगिक साम्राज्य को बढ़ाने में मददगार सिद्ध हुए। यह सही है कि इस नए प्राप्त क्षेत्र का नियंत्रण कंपनियों को सौंपा गया और अपना मुनाफा बढ़ाने की दृष्टि से वे कंपनियां केवल यूरोपीय आबादी को ही वहां नहीं ले जा रही थी। विशाल अमेरिकी फार्मों पर खून-पसीना बहाने के लिए चार-पांच करोड़ अफ्रीकियों को दास बनाकर वहां ले जाया गया। इससे अफ्रीका में शारीरिक रूप से समर्थ लोगों का अकाल पड़ गया। अफ्रीका की खेती की भूमि को ऐसी व्यावसायिक सामग्री पैदा करने में लगा दिया गया, जिससे उसकी अन्न पैदा करने की क्षमता समाप्त हो गई। पहले इन नए क्षेत्रों में यूरोप से इंडेंचर्ड लेबर ले जाए गए थे, फिर दुनियाभर से लाए गए।
अठारहवीं शताब्दी के अंत में हुई अमेरिकी क्रांति ने एक तरफ अमेरिकी कोलोनियों को स्वतंत्र कर दिया, दूसरी तरफ नई उभर रही फैक्टरियों में काम करने के लिए मजदूरों की जरूरत थी, इसलिए खेती में लगे दासों को कानून बनाकर स्वतंत्र करवा दिया गया। इस सबसे इन नए क्षेत्रों में आम यूरोपीय लोग भी पहुंचने लगे। 17वीं शताब्दी से 19वीं शताब्दी तक एक ओर यूरोप की आबादी में विशाल वृद्धि हुई, दूसरी ओर आधी यूरोपीय आबादी यूरोप के बाहर स्थानांतरिक हो गई। इस तरह विभिन्न क्षेत्रों में बसी यूरोपीय जाति की आज जो समृद्धि दिखाई दे रही है, उसकी नींव में विश्व के 38 प्रतिशत भू-भाग पर उसका नियंत्रण और विश्व की जनसंख्या में अपना अनुपात 12 से बढ़ाकर 38 प्रतिशत कर लेना है। लेकिन 20वीं सदी के पूर्वार्द्ध में उसकी जनसंख्या वृद्धि का शिखर छू लेने के बाद अचानक थम गई। सामान्यतः इसके कारण दोनों महायुद्धों में हुई विशाल जन हानि, पूंजीवादी विकास में होने वाला साधनों का केंद्रीकरण और नए भौतिक जीवन को पा लेने के बाद यूरोपीय महिलाओं में मां बनने के प्रति अरूचि दिखाना बताया जाता है। यह सब कारण कुछ हद तक सही होंगे, लेकिन इनसे यूरोपीय लोगों की प्रजनन दर के ठहराव की पर्याप्त व्याख्या नहीं हो पाती।
यूरोपीय लोगों की जनसंख्या में इस अभूतपूर्व वृद्धि से जो जातीय असंतुलन पैदा हो गया था, उसमें अचानक 1950 के बाद परिवर्तन होना आरंभ हुआ। यूरोपीय शासकों की अधीनता में पड़े देश जैसे-जैसे स्वतंत्र हुए, गैर-यूरोपीय जाति में एक नई ऊर्जा और आत्मविश्वास दिखाई देने लगा। उसके बाद उनकी
जनसंख्या में जिस तेजी से वृद्धि हुई है, उसकी पहले कल्पना नहीं की जा सकती थी। पिछले 70 वर्षों में दुनिया का जन भूगोल बदल गया है। अब तक यूरोपीय जाति संसार की सबसे संख्या बहुल जाति थी। लेकिन पिछले कुछ दशकों में उसे पीछे छोड़कर भारतवंशी संसार की सबसे संख्या बहुल जाति हो गए हैं। इस समय यूरोपीय जाति के दुनियाभर में फैले लोगों की संख्या कोई एक अरब 50-55 करोड़ के आसपास होगी। उनकी तुलना में भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश में फैले भारतवंशियों की संख्या एक अरब 67 करोड़ के आसपास है। इस तथ्य को समझने के लिए यह याद रखना आवश्यक है कि कुछ शताब्दियों पहले तक संसार में भारतवंशियों की संख्या ही सबसे अधिक थी। भारत के बाद सबसे अधिक जनसंख्या चीनियों की थी। आज वे तीसरे नंबर पर हैं और उनकी जनसंख्या भी बढ़कर एक अरब 40 करोड़ हो गई है। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि इस समय अफ्रीकी लोगों की प्रजनन दर सबसे अधिक है और अगले कुछ दशकों में वे भारतवंशियों और चीनियों के निकट आ जाएंगे। इस समय उनकी जनसंख्या एक अरब 20 करोड़ है।
पिछले कुछ दिनों से यूरोपीय अर्थशास्त्रियों ने यह कहना छोड़ दिया है कि गैर-यूरोपीय देशों में गरीबी इसलिए है कि उनकी जनसंख्या काफी बढ़ गई है। इस समय औद्योगिक देश अपनी जनसंख्या के ह्रास से परेशान है और उन्हें लग रहा है कि अपने उत्पादन तंत्र को चलाने लायक कार्यक्षम लोग भी अब उनके पास नहीं रह जाएंगे। समृद्धि के शिखर पर पहुंचकर यूरोपीय जाति के देशों ने अपने दरवाजे बाहरी लोगों के लिए बंद कर लिए थे। यह किलेबंदी तो अभी रहने वाली है, लेकिन कार्यक्षम लोगों की नियंत्रित आपूर्ति करने की दिशा में वे सोचने लगे हैं। पर अफ्रीकी आबादी जिस रफ्तार से बढ़ रही है, क्या यूरोप-अमेरिकी किलेबंदी टिक पाएगी? जिस तरह मध्य सागर लांघकर यूरोपीय मिशनरी और सैनिक अफ्रीका पर कब्जा करने गए थे, उसी तरह अफ्रीकी अपनी बढ़ती आबादी के ज्वार से यूरोपीय तटों को आप्लाबित कर सकते हैं। अगर कभी 40-50 लाख लोग मध्य सागर में उतरकर यूरोप की तरफ बढ़ने लगे तो क्या यूरोपीय उन्हें गोलियों से भून सकेंगे?
अब तक यूरोपीय विद्वान इस भ्रम में जी रहे हैं कि विश्व में हो रही जनसंख्या वृद्धि का अर्थ है अधिक उपभोक्ता। इसलिए विश्व में विभिन्न क्षेत्रों में जनसंख्या वृद्धि के कारण जो नई परिस्थितियां पैदा हो रही है, उनका सही आकलन करने में वे अभी नहीं लगे हैं। उन्होंने जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं खाद्यान्न आदि के मामले में आत्मनिर्भरता पैदा कर ली है। अमेरिका और रूस को छोड़कर बाकी सभी खनिज तेल के मामले में आयात पर निर्भर हैं। पर
यूरोप के अग्रणी देश ऊर्जा के वैकल्पिक साधनों को अपनाने में लगे हैं। जिन औद्योगिक वस्तुओं का निर्माण उन्होंने चीन, जापान-कोरिया और एशियान आदि देशों पर छोड़ दिया था, उनका तंत्र फिर से खड़ा करने की आवाज अमेरिका में फिर से उठने लगी है। लेकिन सब तरह के प्रलोभन देकर भी वे अब तक अपने यहां जन्मदर बढ़ाने में सफल नहीं हो पाए। मिश्रित आबादी की जो सांस्कृतिक-राजनैतिक समस्याएं होती है, उन्हें देखते हुए वे अपने दरवाजे बाहरी लोगों के लिए खोलने से हिचकिचाते रहेंगे। फिर यह सिर्फ अर्थतंत्र चलाने का मामला ही नहीं है। जनसंख्या अपने आप में एक शक्ति है। अपनी संख्या बहुलता का न केवल मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ता है, बल्कि उससे जो ऊर्जा पैदा होती है, वह अनेक दिशाओं में आगे बढ़ा सकती है। जनसंख्या में वृद्धि का अर्थ क्रियाशीलता में वृद्धि भी है और जनसंख्या का ह्रास क्रियाशीलता का ह्रास है। इसलिए यूरोपीय जाति में संकुचन उसकी क्रियाशीलता में संकुचन की ओर ले जा सकता है।
पिछली तीन शताब्दियों में यूरोपीय लोगों की जनसंख्या तब बढ़ी जब उनके पास विश्व के अधिक भू-भाग का नियंत्रण हो गया। अब जिन देशों की जनसंख्या बढ़ रही है, वे अपने भू-भाग में ही सीमित है। चीन अपने व्यापार का तेजी से विस्तार कर रहा है। इसके द्वारा उसकी कुछ जनसंख्या स्थानांतरित होगी। लेकिन विश्व में जनसंख्या की अधिकांश वृद्धि अपने क्षेत्र पर बोझ बढ़ा रही है। यूरोपीय विद्वान मानते हैं कि उनकी तरह बाकी लोग भी संपन्न होंगे तो उनकी जनसंख्या में भी ठहराव आने लगेगा। लेकिन स्थिति उससे पहले ही विकट हो सकती है। धरती पर जब भी बोझ बढ़ता है, अब तक वह युद्ध और महामारी से ही संतुलित होता रहा है। क्या बीसवीं सदी की तरह 21वीं सदी में भी युद्धक विनाश हो सकता है? बीसवीं सदी के दो महायुद्धों ने औद्योगिक समृद्धि का रास्ता खोला था। 21वीं सदी के महायुद्ध इस दिशा को किसी नई दिशा की ओर मोड़ सकते हैं।