राजनीतिक दलों ने क्यों बंद की चुनाव सुधार की बात?
रामबहादुर राय
चुनाव सुधार हमारे यहां तब से बडा विषय बना है जब से चुनाव हो रहे हैं। चुनावों का सिलसिला 1895 से शुरू हुआ। तभी से यह चुनाव क्षेत्र के बारे में विचार भी शुरू हुआ। भौगोलिक हो या फिर कुछ और। 1952 में इस सिलसिले की नई शुरूआत हुई है। एक विषय बनता है कि चुनाव सुधार का इतिहास क्या है? मुद्दे क्या क्या रहे है? जैसे 7 वें दशक में जेपी ने तारकुंडे कमेटी बनाई। चुनाव सुधार के लिए बनाई। तब तमाम राजनैतिक दलों ने कहना शुरू किया जितना प्रतिशत वोट उन्हें मिले उतनी सीट मिले। आडवाणी का नाम भी चुनाव सुधार की बात करने वालों में प्रमुख रूप से आता है। इंद्रजीत गुप्त भी उन्हीं में से एक नाम था। जब जनसंघ को सात आठ प्रतिशत वोट मिलता था तो उनको सीटें 1 या नहीं ही मिलती थी। जनसंघ का उस समय मुद्दा था की समानुपातिक चुनाव प्रणाली अपनाई जानी चाहिए। केवल जेपी अकेले व्यक्ति हैं जो चुनाव में कभी पडे नही। लेकिन उन्होंने चुनाव सुधार के व्यापक फलक पर सोचा, उसे राजनैतिक सुधार से जोडा। हम चुनाव सुधार पार्लियामेंट या फिर असेंबलियों का चेहरा बदलने के लिए नही कर रहे हैं। चुनाव सुधार का तीसरा मुद्दा है हमारी राजनीतिक प्रणाली का सुधार। इसकी जब हम बात करते हैं तो आज जो राजनैतिक प्रणाली है वह कमोबेश 1935 के गवर्मेंट आफ इंडिया एक्ट से निकली राजनैतिक प्रणाली है। और जैसे मैने एक उदाहरण दिया कि राजनैतिक दल अपने छोटे से फायदे के लिए मुद्दे तय करते है और समय पड़ने पर उसे छोड़ भी देते हैं। उसी तरह मै एक दूसरा उदाहरण देना चाहता हूं। 1935 का गवर्नमेंट आफ इंडिया एक्ट, जिसे फैजपुर कांग्रेस ने जो 1936 में हुई थी, 1936 के बाद जवाहर लाल नेहरू अध्यक्ष होते है। फैजपुर कांग्रेस में सरदार बल्लभ भाई पटेल अध्यक्ष थे। इस एक्ट पर कांग्रेस ने जो पोजीशन ली उसमें कहा गया कि यह हमें स्वीकार नही है। असेंबलियों मे जाएंगे तो इसे ध्वस्त करेंगे। इसी एक्ट से आज की हमारी राजनैतिक प्रणाली निकली है। जिले 52-53 में जेपी ने कहा कि इसकी पुनर्चना की जरूरत है। क्या हम इस राजनीतिक प्रणाली पर भी फिर विचार करेंगे।
चुनाव आयोग ने जो मुद्दें निर्धारित किए हैं उसमें मोटे तौर पर ठीक से चुनाव कराने के लिए है। हां कुछ राजनैतिक सुधार भी हैं। आज राजनैतिक दल चुनाव सुधार की बात नही कर रहे। या तो कुछ एनजीओ कर रहे या फिर पत्रकार कर रहे या फिर चुनाव आयोग कर रहा है। आखिर क्यों राजनैतिक दल चुनाव सुधार की बात क्यों नही कर रहे? और साथ ही हम क्यों चुनाव सुधार की बात कर रहे हैं? मै यहां पर सुभाष कश्यप जी के सामने तीन सवाल रखते हुए अपनी बात समाप्त करना चाहता हूं। पहला, क्या चुनाव प्रणाली पर संविधान सभा में कोई बहस हुई थी? दूसरा, क्या लोकतंत्र भारत को पश्चिम की देन है?आज चुनाव सुधार में सबसे तीसरा, चुनाव सुधार की दिशा में पहले क्या होना चाहिए?