जिसमें रम गए वही राम है. सबके अपने-अपने राम हैं. गांधी के राम अलग हैं, लोहिया के राम अलग. वाल्मीकि और तुलसी के राम में भी फर्क है. भवभूति के राम दोनों से अलग हैं. कबीर ने राम को जाना था, तुलसी ने माना. राम एक ही हैं पर दृष्टि सबकी भिन्न. भारतीय समाज में मर्यादा, आदर्श, विनय, विवेक, लोकतांत्रिक मूल्यवत्ता और संयम का नाम है राम. भले आप ईश्वरवादी न हों. फिर भी घर-घर में राम की गहरी व्याप्ति से उन्हें मर्यादा पुरुषोत्तम तो मानना ही पड़ेगा. स्थितप्रज्ञ, असंपृक्त, अनासक्त एक ऐसा लोकनायक, जिसमें सत्ता के प्रति निरासक्ति का भाव है. जो सत्ता छोड़ने के लिए सदा तैयार है.फिर राम के नाम पर इतना झगड़ा क्यो।
राम का आदर्श लक्ष्मण रेखा की मर्यादा है. लांघी तो अनर्थ, सीमा में रहे तो खुशहाल और सुरक्षित जीवन. वे जाति वर्ग से परे हैं. नर, वानर, आदिवासी, पशु, मानव, दानव सभी से उनका करीबी रिश्ता है. अगड़े-पिछड़े से ऊपर. निषादराज हों या सुग्रीव, शबरी हों या जटायु, सभी को साथ ले चलनेवाले वे अकेले देवता हैं. भरत के लिए आदर्श भाई, हनुमान के लिए स्वामी, प्रजा के लिए नीतिकुशल न्यायप्रिय राजा हैं.
परिवार नाम की संस्था में भी उन्होंने नए संस्कार जोड़े. पति-पत्नी के प्रेम की नई परिभाषा दी. ऐसे वक्त जब खुद उनके पिता ने तीन विवाह किए थे, तब भी राम ने अपनी दृष्टि सिर्फ एक महिला तक सीमित रखी. उस निगाह से किसी दूसरी महिला को कभी नहीं देखा. जब सीता का अपहरण हुआ वे व्याकुल थे. रो-रोकर पेड़, पौधे, पक्षी और पहाड़ से उनका पता पूछ रहे थे. इससे उलट जब कृष्ण धरती पर आए तो उनकी प्रेमिकाएं असंख्य थी. सिर्फ एक रात में सोलह हजार गोपिकाओं के साथ उन्होंने रास किया था. अपने पिता की अटपटी आज्ञा का पालन कर उन्होंने पिता-पुत्र के संबंधों को नई ऊंचाई दी.
बेशुमार ताकत से अहंकार का एक खास रिश्ता हो जाता है. लेकिन अपार शक्ति के बावजूद राम मनमाने फैसले नहीं लेते, वे लोकतांत्रिक हैं. सामूहिकता को समर्पित विधान की मर्यादा जानते हैं. धर्म और व्यवहार की मर्यादा भी और परिवार का बंधन भी. नर हो या वानर, इन सबके प्रति वे अपने कर्तव्यबोध पर सजग रहते हैं. वे मानवीय करुणा जानते हैं. वे मानते हैं-‘परहित सरिस धर्म नहिं भाई.’
डॉ. लोहिया पूछते हैं, ‘जब कभी गांधी ने किसी का नाम लिया तो राम का ही क्यों लिया? कृष्ण और शिव का भी ले सकते थे. दरअसल, राम देश की एकता के प्रतीक हैं. गांधी राम के जरिए हिंदुस्तान के सामने एक मर्यादित तस्वीर रखते थे.’ वे उस रामराज्य के हिमायती थे, जहां लोकहित सर्वोपरि था, जो गरीब नवाज था. तुलसी से सुनिए-‘मणि मानिक महंगे किए, सहजे तृण जल नाज. तुलसी सोई जानिए, राम गरीब नवाज.’ इसीलिए लोहिया भारत मां से मांगते हैं, ‘हे भारत माता! हमें शिव का मस्तिष्क दो, कृष्ण का हृदय दो, राम का कर्म और वचन दो.’ लोहियाजी अनीश्वरवादी थे. पर धर्म और ईश्वर पर उनकी सोच मौलिक थी.
राम साध्य है, साधन नहीं. यह बात और है कि हमारे कुछ राजनीतिक दलों ने उन्हें साधन बना लिया है. गांधी का राम सनातन, अजन्मा और अद्वितीय है. वह दशरथ का पुत्र और अयोध्या का राजा नहीं है. वह आत्मशक्ति का उपासक, प्रबल संकल्प का प्रतीक है. निर्बल का एकमात्र सहारा है. शासन की उसकी कसौटी प्रजा का सुख है. यह लोकमंगलकारी कसौटी आज की सत्ता पर हथौड़े सी चोट करती है-‘जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी. सो नृपु अवसि नरक अधिकारी.’
राम की व्यवस्था सबको आगे बढ़ने की प्रेरणा और ताकत देती है. हनुमान, सुग्रीव, जांबवंत, नल, नील सभी को समय-समय पर नेतृत्व का अधिकार उन्होंने दिया. उनका जीवन बिना हड़पे हुए फलने की कहानी है. वह देश में शक्ति का सिर्फ एक केंद्र बनाना चाहते हैं. देश में इसके पहले शक्ति और प्रभुत्व के दो प्रतिस्पर्धी केंद्र थे-अयोध्या और लंका. राम अयोध्या से लंका गए. रास्ते में अनेक राज्य जीते. राम ने उनका राज्य नहीं हड़पा. उनकी जीत शालीन थी. जीते राज्यों को जैसे का तैसा रहने दिया. अल्लामा इकबाल कहते हैं, ‘है राम के वजूद पे हिंदोस्तां को नाज, अहले नजर समझते हैं, उसको इमाम-ए-हिंद.’
राम का जीवन बिलकुल मानवीय ढंग से बीता. उनके यहां दूसरे देवताओं की तरह किसी चमत्कार की गुंजाइश नहीं है. आम आदमी की मुश्किल उनकी मुश्किल है. जो लूट, डकैती, अपहरण और भाइयों के द्वारा सत्ता से बेदखली के शिकार होते हैं. जिन समस्याओं से आज का आम आदमी जूझ रहा है. राम उनसे दो-चार होते हैं. कृष्ण और शिव हर क्षण चमत्कार करते हैं.
राम की पत्नी का अपहरण हुआ तो उसे वापस पाने के लिए उन्होंने अपनी गोल बनाई. लंका जाना हुआ तो उनकी सेना एक-एक पत्थर जोड़ पुल बनाती है. वे कुशल प्रबंधक हैं. उनमें संगठन की अद्भुत क्षमता है. जब दोनों भाई अयोध्या से चले तो महज तीन लोग थे. जब लौटे तो पूरी सेना के साथ. एक साम्राज्य का निर्माण कर. राम कायदे-कानून से बंधे हैं. वे उससे बाहर नहीं जाते. एक धोबी ने जब अपहृत सीता पर टिप्पणी की तो वे बेबस हो गए. भले ही उसके आरोप बेदम थे. फिर भी वे इस आरोप का निवारण उसी नियम से करते हैं, जो आम जन पर लागू है.
वे चाहते तो नियम बदल सकते थे. संविधान संशोधन कर सकते थे. पर उन्होंने नियम-कानून का पालन किया. सीता का परित्याग किया. जो उनके चरित्र पर एक बड़ा धब्बा है. तो आखिर मर्यादा पुरुषोत्तम क्या करते? उनके सामने एक दूसरा रास्ता भी था, सत्ता छोड़ सीता के साथ चले जाते. लेकिन जनता (प्रजा) के प्रति उनकी जवाबदेही थी. इसलिए इस रास्ते पर वे नहीं गए.
राम अगम हैं, संसार के कण-कण में विराजते हैं. सगुण भी हैं, निर्गुण भी. कबीर कहते हैं-निर्गुन राम जपहु रे भाई. मैथिलीशरण गुप्त मानते हैं-राम तुम्हारा चरित्र स्वयं ही काव्य है. कोई कवि बन जाए सहज संभाव्य है. यह राम से ही संभव है कि मैथिलीशरण गुप्त जैसा तुकाराम भी राष्ट्रकवि बन जाता है
जानेमाने पत्रकार हेमंत शर्मा की फेसबुक वाल से-‘तमाशा मेरे आगे से’