पानी गिर रहा था। बहुत पानी गिर रहा था। बारिश की ये बूंदे उनके आंनद को चरम की ओर ले जा रही थी। ये ‘नई उम्र की नई फसल’ थी । ‘खाए-पीए-अघाए’ जैसे लोग लग रहे थे। उनके रूप-रंग और वस्त्र की साज-सज्जा यह बता रही थी कि ये पेट के भूगोल में उलझे लोग तो कतई नहीं है। भले ही देश की बहुसंख्य आबादी पेट की चिंता में हैरान-परेशान है। आखिर इन्हें ऐसा क्या मिल गया कि ये सभी खुशी के मारे बदहवासी की आलम में पहुंच गए थे। एक दूसरे को चूम रहे थे। लिपट रहे थे। एक दूसरे को बाहों में कसकर ऐसा भर रहे थे कि कहीं ऐसा न हो कि हाथ ही छूट जाए।
जोश-जज्बे से लबरेज हो ‘ लेकर रहेंगे आजादी’, ‘छीन के ले ली आजादी’ बोल रहे थे। ‘हुर्रे-हुर्रे’ जैसी शब्दिक-ध्वनियां हवा में उछाल रहे थे। जो रुक गए इन अद्भुत दृश्यों को देखकर, उसकी ओर विक्ट्री की मुद्रा में अंगुलियां भी नचा दे रहे थे। अद्भुत, स्मरणीय दृश्य। वह भी लुटियंस की दिल्ली की। जंतर-मंतर स्थान ऐसा है जहां देश से परेशान लोग आते है। सत्ता के कानों तक अपनी आवाज पहुंचाने के लिए। लेकिन यहां तो आनंद की धारा फूट पड़ी थी। ये सब खुशी से निहाल थे। इंद्रधनुषी झंडा भी नजर आया। मै हतप्रभ। आखिर ये लोग है कौन? मेरी तरह ही कुछ दर्शक और भी थे वहां पर। लेकिन वे बड़े सजग थे। इस जमात से समझदारी भरी दूरी भी बनाए हुए थे। …पूछ बैठा कि इन्हें कौन सी आजादी मिली है तो पता चला कि ये ‘एलजीबीटीक्यू’ है।
मेरे लिए यह शब्द बिल्कुल नया-नया लगा। अबूझ था। परिवेश ऐसा था कि कोई इसका अर्थ बताने की जहमत मोल लेने को तैयार नहीं दिखा। उत्साही लोग दृश्य रच रहे थे जबकि कुछ लोग दृष्टा बने हुए थे। ऐन वक्त पर दिमाग काम कर गया। ‘गूगल- गुरू’ तो हमारे हाथ में ही है। जनता दल यूनाइटेड कार्यालय की ओर गया जहां शांति पसरी हुई थी। मोबाइल स्क्रीन ने बताया एलजीबीटीक्यू का मतलब। डेढ़ सदी पहले अंग्रेजों के लाए कानून की विदाई पर यह उत्सवधर्मी जमात अपने-अपने ढंग से खुशी का इजहार कर रहे है। ये कितने खुश थे, कितने उत्साहित थे? आईपीसी की धारा ३७७ के विदाई का यह दिन था।
वर्जित को स्वीकार कर लिया गया है। वर्जनीय समलैंगिकता की स्वीकारोक्ति का यह दिन था। पक्ष और विपक्ष में अपने-अपने तर्क हो सकते है लेकिन सवाल यह है कि कानून ने भले मान्यता दे दी हो लेकिन क्या परिवार, समाज और धर्म भी वृहत्तर स्तर पर ऐसे यौनिक रुझान और अभिरुचियों वाली जमात को स्वीकार करेगा? कहीं यह प्रकृति के खिलाफ मनुष्य का एक और विजय तो नहीं है? देश की राजधानी के कुछ हिस्सों ने इस गौरव को भी आत्मसात किया। हम अब एक नए समाज का अम्भुदय कर रहे है। जिसपर कल तक खुलेआम चर्चा करने से लोग परहेज करते रहे है, उसे स्वीकार कर लिया गया। धार्मिक और सैद्धांतिक नजरिए से यौन क्रिया के पीछे संतान उत्पत्ति की सृजनात्मक अवधारणा है जिसकों विवाह के जरिए साकार किया जाता है। लेकिन अब अप्राकृतिक यौनाचार को वैधानिक स्वरूप प्रदान कर दिया गया जिसकी वर्जना पशु भी करते है। हम तो उध्र्वरेता मनुष्य है जिसका परम ध्येय भोग नहीं मोक्ष रहा है। मानव शरीर को मोक्ष का साधन माना गया है।
आने वाले समय में समाज को अंतर्विरोध की कसमसाहट से दो चार होना पड़ेगा क्योकि कानून ने अभी सिर्फ प्यार करने का हक दिया है। लेकिन क्या शादी करने का भी कानूनी दर्जा मिलेगा? ‘विवाह और संतति’ दोनों को अमूनन एक साथ ही देखा जाता है। हमारे समाज की सदियों से रचावट-बुनावट ऐसी है कि शादी के बाद यदि ज्यादा समय बीत जाता है और घर के आंगन में किलकारी नहीं गूंजती है तो कुनबे में उदासी पसर जाती है। लेकिन अब ‘संपति -संतति’ को लेकर नये-नये सवाल पैदा होगे।
शादी का अर्थ सिर्फ संतति नहीं है तो फिर क्या है? क्या शादी और बच्चा पैदा करना एक नहीं दो अलग अवधारणा है? परिवार की संकल्पना आखिर क्या है? पति-पत्नी, बच्चों और दादा-दादी का समूह होता है परिवार। समलैंगिक समाज आखिर परिवार की इस धारणा को कैसे धारित करेगा? इसमें कोई शक नहीं कि भविष्य में परिवार की यह धारणा खंडित होगी। समलैंगिकों के विवाह को क्या वृहत्तर समाज स्वीकार करेगा? अप्राकृतिक संबंध सनातन संस्कृति को उर्वर करेगे या नष्ट करेगे? परिवार बचेगे या फिर समाप्त हो जाएगे। भविष्य में उठने वाले ये कुछ ऐसे सवाल है जिसका उत्तर बड़ा भयानक होगा, त्रासद होगा। पुरुष-स्त्री के दैहिक-लैंगिक संयोग से जो नया जन्मता है,
वहीं सृष्टि के विस्तार का आधार है। संसार इसी से फैलता है, बढ़ता है, चलता है। होमोसेक्सुअल और लेसबियन में क्या ऐसी क्षमता है कि वह नये जीवन को जन्म दे सकते है? पुरुष का पुरुष से और महिला का महिला से संयोग नई पीढ़ी को पैदा नहीं कर सकती है। तो फिर क्या यह मान लिया जाए कि यह जो लैंगिक प्रवृत्ति है, उसका प्राकृतिक-निरंतरता के साथ तालमेल नहीं है। यदि यह लैंगिक रुझान बहुतों में बढ़ती है और अपने विराट रूप की ओर बढ़ती है तो इसका परिणाम क्या होगा? इसकी मंजिल कहां होगी? तो क्या यह स्वीकार कर लिया जाए कि विशिष्ट यौनिक रुझान वाली जमात संसार की निरंतरता अवरोधित करने की दिशा की ओर ले जाएगे? गौरतलब है कि दो विपरीत तत्वों और गुणों के संयोग से ही नए तत्व का निर्माण होता है। नैसर्गिक नियम तो यहीं कहता है और यह सच भी है। इसे रसायन शास्त्र के नजरिए से देखे तो हाईड्रोजन और आक्सीजन मिलता है तो नया तत्व पानी बनता है। नया तत्व यानि नई नस्ल कैसे बनेगी? यह सवाल बहुतों के जेहन में मथ रहा है। हमे उम्मीद है कि इन सवालों का जवाब समय अपने आप दे देगा।
इनके तो जीवन में ‘ इंद्रधनुष’ छा गया
– चटक धूप में इंद्रधनुषी रंग का छा जाना नयनाभिराम दृश्य होता है। समलैंगिक जमात के हाथों में इंद्रधनुषी झंडा रहता है। लोगों के टी-शर्ट, टाप, चेहरे, हाथ में यहीं इंद्रधनुषी झंडा छपा रहता है। दरअसल यही इंद्रधनुषी झंडा समलैंगिकता का प्रतीक है। वर्ष १९७८ में अमेरिकी गे अधिकारों के एक्टिविस्ट गिलबर्ट बेकर ने इस झंडे को डिजाइन किया था। उस दौर के चर्चित समलैंगिकों के नेता हावेज मिल्क ने ही गिलबर्ट को यह प्रतीक चिन्ह् तैयार करने को कहा था। इस मामले में एक रोचक प्रसंग यह भी है कि फं्रास में हिटलर के राज के दौरान वहां के प्रशासन ने समलैंगिकों के कपड़ों पर गुलाबी रंग की पट्टियों को चस्पा कर दिया था। हिटलरशाही का अंत हुआ तो वहां के समलैंगिकों ने इन पट्टियों को उखाड़ फेका और फिर आजादी का ऐलान करते हुए इन्हें वापस अपने कपड़ों में लगा लिया।
प्रकृति खुद इंद्रधनुष को आकाश में रचती है लहराती है। इंद्रधनुष कई अलग-अलग रंग की पट्टियों को एक साथ जोड़ता है। ऐसे ही समलैंगिकों को भी यह समान सूत्र में पिरोएगा। गौरतलब है कि समलैंगिकों के सेक्स का प्रतीक गुलाबी रंग है। जिंदगी का प्रतीक लाल रंग है। सूरज की रोशनी का प्रतीक पीला रंग है। कुदरत का प्रतीक हरा रंग है। जख्मों पर मरहम लगाने का प्रतीक केसरिया है। फिरोजी रंग जादू का प्रतीक है। जब इस झंडे को पहली बार अमेरिका के सैन फ्रांसिस्कों शहर में फैलाया गया तो उसके कुछ ही समय बाद हावेज मिल्क की हत्या कर दी गई। इसके बाद से इंद्रधनुषी रंग के इस झंडे के प्रति समलैंगिक जमात की भावना जुड़ गई। हार्वे उनके हीरो थे।