आम चुनाव आते ही भारतीय राजनीति दलीय समर में बदल जाती है। अगले वर्ष आम चुनाव होने हैं और उसके लिए अभी से राजनैतिक समर आरंभ हो चुका है।
इस समर का बिगुल बजाने के लिए मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस ने दिल्ली में आयोजित अपने महाधिवेशन को चुना। पार्टी के नए अध्यक्ष राहुल गांधी ने घोषणा की कि उनकी पार्टी समान विचारों वाले सभी दलों को इकट्ठा करके मैदान में उतरेगी।
सोनिया गांधी से लगाकर मनमोहन सिंह तक ने मोदी सरकार की जमकर आलोचना की और आरोप लगाया कि वह देश को गलत दिशा में ले जा रही है।
महाधिवेशन में बोलने वाले कांगे्रस के सभी बड़े नेताओं के भाषणों में आरोप अधिक थे, सार कम। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने तीसरा मोर्चा बनाने के लिए तेलंगाना के मुख्यमंत्री चंद्रशेखर राव को फोन किया और उनके अनुरोध पर चंद्रशेखर राव कोलकाता जाकर ममता बनर्जी से मिल आए।
अभी किसी को नहीं मालूम कि इस तीसरे मोर्चे में और कौन-कौन होगा? महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के अध्यक्ष राज ठाकरे ने विपक्ष से नरेंद्र मोदी मुक्त भारत की रणनीति पर काम करने का आग्रह किया। क्षेत्रीय स्तर पर आम चुनाव में भाजपा को हराने के लिए रणनीति बनाने की कोशिश भी आरंभ हो गई है।
उत्तर प्रदेश में अपनी दो दशक से अधिक पुरानी दुश्मनी को भूलकर सपा और बसपा साथ आ गए हैं और अगले आम चुनाव में भाजपा को हराने के लिए मिलकर चुनाव लड़ने की संभावना तलाश रहे हैं।
हाल के गोरखपुर और फूलपुर उपचुनाव में दोनों दलों के सहयोग से मिली सफलता ने उन्हें इस दिशा में प्रयत्न करने के लिए प्रेरित किया है।
इस विपक्षी अभियान की मुख्य बात मोदी सरकार का विरोध है, विकल्प की रूपरेखा बनाना नहीं। इसकी झलक आंध्र प्रदेश को विशेष राज्य का दर्जा न दे सकने पर मोदी सरकार के खिलाफ लाया गया अविश्वास प्रस्ताव है।
इस प्रस्ताव का समर्थन करने के लिए अधिकांश विपक्षी दल राजी हो गए, बिना इस बात पर अपनी नीति स्पष्ट किए कि क्या वे तेलुगू देशम और वाईएसआर कांगे्रस की मांग उचित मानते हैं।
यह पहला मौका है जब विपक्ष में मोदी सरकार को पलटने की बेचैनी बहुत है, लेकिन विपक्षी दलों में कौन किसके साथ है, यह किसी को पता नहीं है। अब तक चुनाव आते-आते विपक्षी दलों के दो-तीन मोर्चे बन जाते थे।
इस बार एक बड़ा असमंजस यह है कि कि कांग्रेस पहली बार राहुल गांधी के नेतृत्व में चुनाव लड़ने जा रही है और विपक्ष के किसी और दल को उनकी नेतृत्व क्षमता में भरोसा नहीं है।
कांग्रेस के अलावा विपक्ष का कोई दल नरेंद्र मोदी के खिलाफ विपक्ष की बागडोर राहुल गांधी को सौंपने का जोखिम उठाने के लिए उत्सुक नहीं है।
“विपक्षी अभियान की मुख्य बात मोदी सरकार का विरोध है, विकल्प की रूपरेखा बनाना नहीं। इसकी झलक आंध्र प्रदेश को विशेष राज्य का दर्जा न दे सकने पर मोदी सरकार के खिलाफ लाया गया अविश्वास प्रस्ताव है।”
कांग्रेस को लेकर एक दूसरी तरह का असमंजस मार्क्सवादी पार्टी में है। माकपा का एक धड़ा अगले चुनाव में कांग्रेस से सहयोग चाहता है और दूसरा उसके खिलाफ है।
माकपा के महासचिव येचुरी सहयोग के पक्ष में हैं और पूर्व महासचिव प्रकाश करात उसके खिलाफ। माकपा का पश्चिम बंगाल वाला नेतृत्व कांग्रेस से सहयोग चाहता है और केरल का नेतृत्व उसके खिलाफ है।
हमें संसदीय व्यवस्था स्वीकार करते समय इस बात का अनुमान होना चाहिए था कि बहुदलीय व्यवस्था किसी राजनैतिक मर्यादा से न बंधी तो वह अराजकता की ओर ले जा सकती है।
यह संसदीय व्यवस्था हमने पश्चिमी देशों से ली है और उसका स्वरूप ही नहीं, उसकी मूल अवधारणाएं भी वहीं की हैं। पश्चिमी देशों में राजनीति जिस तरह की दलीय प्रतिद्वंद्विता से की जाती है, उसका आधार कोई मर्यादा नहीं है।
जिस तरह भारत में शासन सर्वानुमति पर आधारित रहा है, विधि के निर्माण के लिए सर्वानुमति आवश्यक रही है, उस तरह पश्चिमी समाजों में कभी नहीं रही। वहां राजनीति का स्वरूप प्रतिस्पर्धा से ही निर्धारित होता रहा है।
अगर राजनीति का अर्थ सत्ता पाने की प्रतिस्पर्धा भर रह जाए तो उसकी कभी कोई मर्यादाएं नहीं बन सकतीं। मर्यादाओं के अभाव में राजनीति सत्ताकामी नेताओं की प्रतिस्पर्धा होकर रह जाती है और सत्ता तक पहुंचने के सभी साधन मान्य होते चले जाते हैं।
सत्ता तक पहुंचने की आकांक्षा में देशहित का ध्यान भी नहीं रहता। अगर राजनैतिक प्रक्रिया में कोई शक्तिशाली और जिम्मेदार नेतृत्व उभर आता है तो राजनीति को सही दिशा मिल जाती है वरना यह बहुदलीय व्यवस्था शासन को अस्थिर बनाती हुई देश को अराजकता की ओर ले जाती रहती है।
हम अपने राजनैतिक इतिहास पर एक सरसरी निगाह डालकर ही देख सकते हैं कि देश के लोगों की इच्छा एक मजबूत सरकार और जिम्मेदार व शक्तिशाली नेतृत्व रही है जबकि हमारी दलीय व्यवस्था शासन को कमजोर करने में लगी रही है।
हम चाहते तो शुरू में ही इस संसदीय व्यवस्था को भारतीय स्वरूप दे सकते थे। 1947 में स्वतंत्र होने के बाद देश में पहली राष्ट्रीय सरकार बनी थी।
जवाहर लाल नेहरू के नेतृत्व में बनी इस सरकार में कांग्रेस के बाहर के लोगों को भी लिया गया था। उसमें हिन्दू महासभा के श्यामा प्रसाद मुखर्जी थे, पंथिक पार्टी के बलदेव सिंह थे और शिड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन के भीमराव अम्बेडकर थे।
इस प्रयोग को आगे बढ़ाया जा सकता था। कोई ऐसा तरीका निकाला जा सकता था, जिसमें संसद के योग्य और प्रतिभाशाली लोगों को बिना दलीय भेदभाव के शामिल किया जा सके।
अपनी भारतीय परम्परा के अनुसार यह निर्णय भी किया जा सकता था कि विधि निर्मात्री संसद के सभी निर्णय सर्वानुमति से किए जाएंगे। यह परम्परा पड़ती तो भारतीय राजनीति विवेक पर, देशहित पर और समाजहित पर आधारित होती।
शासन की उन्नत परंपराओं का निर्माण होता। देश के सभी लोगों को संसद और सरकार के साथ आत्मभाव बनाने में आसानी होती। देश में अनेक दल अवश्य होते।
हमारे यहां तो सदा से विविधता और बहुलता को अच्छा माना जाता रहा है। दलों के बीच प्रतिस्पर्धा होती, पर उसका आधार रचनात्मक होता। उसी तरह जैसे कि हमारे विभिन्न संप्रदायों के बीच सकारात्मक और मर्यादित प्रतिस्पर्धा रही है।
लेकिन अपने राजनैतिक ढांचे को भारतीय स्परूप देने और उसे भारतीय परम्पराओं पर आधारित करने के बजाय हमने पश्चिमी लोकतंत्र का अंधानुकरण किया।
पश्चिमी देशों में उन दिनों वैचारिक प्रतिद्वंद्विता चल रही थी। पूंजीवादी, समाजवादी, साम्यवादी विचारों के बीच टकराव हो रहा था। इन विचारधाराओं ने भारत में भी अपनी जड़ें फैलाई थीं और उसके आधार पर अनेक दल उभर आए थे।
लेकिन महात्मा गांधी के नेतृत्व में लड़े गए राष्ट्रीय आंदोलन ने कांग्रेस को एक समावेशी संगठन के रूप में ही उभारा था। उस समय कांग्रेस राष्ट्रीय आंदोलन का पर्याय थी।
इसलिए स्वतंत्रता मिलने के बाद लोगों ने शासन की बागडोर उसी के हाथ थमाना ठीक समझा। पर 1951-52 में हुए पहले आम चुनाव में 53 दल उभर आए, जिन्होंने चुनाव में हिस्सा लिया था। इसके अलावा एक बड़ी संख्या निर्दलीयों की थी।
कुल 489 सीटों में से कांग्रेस को 364 मिली, कम्युनिस्ट पार्टी को 16 और सोशलिस्ट पार्टी को 12। इसके अलावा कोई पार्टी दहाई भी पार नहीं कर पाई।
अलबत्ता 37 निर्दलीय जीत आए। महात्मा गांधी ने अपने रचनात्मक संगठनों के जरिये कांग्रेस का एक सामाजिक आधार खड़ा किया था। जवाहर लाल नेहरू को शुरू से ही इस सामाजिक आधार में कोई रुचि नहीं थी।
इसलिए उनके नेतृत्व में कांग्रेस रचनात्मक कामों से दूर होती चली गई। अंग्रेजों की शासन शैली पर ब्राह्मण, आदिवासी, हरिजन और मुसलमानों को मिलाकर एक वोट बैंक खड़ा किया गया।
राष्ट्रीय आंदोलन के समय के यश और इस नए जुटाए गए वोट बैंक के भरोसे 1971 तक के आम चुनावों में कांग्रेस को बहुमत मिलता रहा। अनेक राज्यों में उसका आधार 1967 से खिसकने लगा था।
1975 में आपात स्थिति लगी, 1977 में चुनाव हुए और कांग्रेस सत्ता से बाहर हो गई।पश्चिम की जिन विचारधाराओं के आधार पर अधिकांश भारतीय दल गठित हुए थे, उनका भारतीय परिस्थितियों से कोई मेल नहीं था।
इसलिए हमारे अधिकांश दल व्यक्ति केंद्रित होते चले गए। जवाहर लाल नेहरू ने दलीय राजनीति की दिशा को पहचान कर कांग्रेस का नेतृत्व अपने वंशजों के लिए सुरक्षित करने की कोशिश की।
1951 में गठित हुए भारतीय जनसंघ का विचारात्मक आधार दूसरे सभी दलों से भिन्न था। अंग्रेजों ने अपने औपनिवेशिक शासन के लिए भारतीय समाज को तोड़ने और मुसलमानों को एक प्रतिद्वंद्वी राजनैतिक शक्ति बनाकर बहुसंख्यक हिंदुओं के खिलाफ खड़ा करने का काम किया था।
उसके खतरनाक परिणामों को भांपकर हिन्दुओं को फिर से भारतीय समाज की धुरी बनाने का संकल्प लेकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का गठन हुआ था।
“हम चाहते तो शुरू में ही इस संसदीय व्यवस्था को भारतीय स्वरूप दे सकते थे। 1947 में स्वतंत्र होने के बाद देश में पहली राष्ट्रीय सरकार बनी थी।”
उसी की राजनैतिक इकाई के तौर पर भारतीय जनसंघ बना था और उसका उद्देश्य राजनीति में भारतीय मान्यताओं को प्रतिष्ठित करना था। लेकिन कांग्रेस की व्यापक शक्ति और नेहरू की आत्मकेंद्रित राजनीति ने किसी को पनपने का मौका नहीं दिया।
राम मनोहर लोहिया ने किसान जातियों को धुरी बनाकर कांग्रेस के वर्चस्व को चुनौती देने की रणनीति तैयार की। कोई दो दशक बाद 1967 में अनेक राज्यों में कांग्रेस को सत्ता से बाहर करने में यह रणनीति सफल हुई।
1977 में आपात स्थिति की ज्यादती ने बहुसंख्यक समाज को और संजय गांधी के नसबंदी अभियान ने मुसलमानों को नाराज कर दिया था। इससे आम चुनाव में जनता पार्टी के बहुमत पाने का रास्ता प्रशस्त हुआ। लेकिन जनता पार्टी भानमती का कुनबा थी।
नेताओं के अहंकार और महत्वाकांक्षाओं के कारण उसमें फूट पड़ी और तीन साल में फिर से चुनाव की नौबत आ गई। 1980 में बहुमत पाकर इंदिरा गांधी की कांग्रेस सत्ता में लौट आई।
आजादी के बाद 1947 से 1984 तक के आम चुनाव में किसी एक पार्टी को बहुमत मिलता रहा और वह सत्ता में पहुंचती रही। 1989 में सत्ता दूसरी बार कांग्रेस के हाथ से निकली।
किसी एक पार्टी को बहुमत नहीं मिला और जो मिली-जुली सरकार बनी, वह अस्थिर होकर लोगों का विश्वास खो बैठी। दलीय प्रतिद्वंद्विताओं ने राजनैतिक शक्ति को इतना बिखेर दिया कि 1989 के 25 साल बाद 2014 के आम चुनाव में ही भाजपा को बहुमत मिल पाया।
भाजपा को बहुमत दिलाने में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व की केंद्रीय भूमिका है। गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी ने एक व्यावहारिक और दृढ़निश्चयी नेता के रूप में ख्याति अर्जित की थी।
राजनैतिक क्षेत्रों में ही नहीं, उसके बाहर भी यह भावना पैदा हुई कि नरेंद्र मोदी एक मजबूत और शक्तिशाली सरकार प्रदान कर सकते हैं। इस व्यापक भावना के कारण ही भाजपा के नेतृत्व को पार्टी की कमान नरेंद्र मोदी के हाथ में सौंपनी पड़ी।
नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता के कारण पिछले चार वर्षों में भाजपा का अब तक उसके लिए अगम रहे क्षेत्रों में भी विस्तार हुआ है।
नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद राजग 21 राज्यों की सत्ता में पहुंच गई है और कांग्रेस का शासन 17 राज्यों से घटकर चार राज्यों में रह गया है।
2014 में नरेंद्र मोदी का सत्तारोहण केवल दल परिवर्तन नहीं था, वह एक वैचारिक परिवर्तन भी था। वर्तमान सरकार शासन को फिर से भारतीय परंपराओं से जोड़कर लोगों में आत्मगौरव पैदा करने की कोशिश कर रही है।
नरेंद्र मोदी ने देश में अपनी सभ्यता के अनुरूप एक विश्व शक्ति बनने की आकांक्षा और आत्म विश्वास पैदा किया है। लेकिन उसके लिए भारतीय सभ्यता के स्वरूप और उसके मूल विचारों की जो समझ चाहिए, वह न शासन तंत्र में है न हमारे बौद्धिक जगत में।
अंग्रेजों ने जिस शिक्षा तंत्र की नींव डाली थी वह हमारे बौद्धिक वर्ग को अपनी सभ्यता से न केवल विमुख करता रहा है बल्कि उसमें उसके लिए तिरस्कार पैदा करता रहा है।
कांग्रेस के शासन के दौरान इस प्रवृत्ति को राजनैतिक संरक्षण प्राप्त था, इसलिए भारतीय समाज में अपनी सभ्यतागत विधियों का ज्ञान क्षीण होता चला गया।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा हिंदुओं की राजनैतिक शक्ति इकट्ठा करने में इतने व्यस्त रहे हैं कि वे सभ्यतागत प्रश्नों पर ध्यान नहीं दे पाए। आज भी भारतीय सभ्यता के निषेध की राजनीति को कांग्रेस का संरक्षण मिला हुआ है।
इसलिए जब तक कांग्रेस सत्ता के सभी स्तरों से बेदखल नहीं होती, हम अपनी सभ्यता की ओर उन्मुख नहीं हो पाएंगे। लेकिन भाजपा के शासन में भारतीय सभ्यता की अधकचरी समझ रखने वाले लोगों को जो प्रचार मिल रहा है, वह भी कम चिंता का विषय नहीं है।
इन तथ्यों के कारण समाज में अवांछित संघर्ष पैदा होता है और वह शासन के लिए भी समस्याएं पैदा कर देता है। आज हमारे सामने देश के लोगों के भौतिक जीवन को सुधारने के साथ-साथ विश्व की अग्रणी शक्ति बनने की चुनौती है।
उसके लिए हमें सामरिक रूप से भी समर्थ होना है और आर्थिक रूप से भी। हमने जो राजनैतिक प्रणाली चुनी है, वह देश के लोगों की स्वतंत्रता की रक्षा तो करती है, लेकिन सामरिक और आर्थिक शक्ति बनने के लिए उनमें जो एकता और सामूहिकता पनपनी चाहिए, वह नहीं पैदा होने देती।
भारत संसार की अकेली सभ्यता है, जहां सदा लोगों की स्वतंत्रता की रक्षा हुई और साथ ही साथ उनके बीच एकता और सामूहिकता भी पैदा की गई। पराधीनता के दौर में हमारी इन विशेषताओं का कुछ क्षरण हुआ।
देश के स्वतंत्र होने के बाद हमारी यह सभ्यतागत विशेषताएं लौटा ली जानी चाहिए थी। लेकिन हमने जो राजनैतिक प्रणाली चुनी है, वह हमारी राजनैतिक शक्ति को एकत्र करने के बजाय बिखेरती रहती है।
हमने जो राजनैतिक प्रणाली चुनी है, उसका स्वभाव ऐसा है कि दलीय प्रतिद्वंद्विता भी दलीय शत्रुता में बदल जाती है। हमारी राजनीति सदा सत्ताधारी दल और विपक्षी दलों में बंटी रहती है।
सरकार अपनी नीतियां बनाने में विपक्षी दलों की राय लेना आवश्यक नहीं समझती और विपक्षी दल सरकार की हर नीति का विरोध करना ही अपना कर्तव्य समझते हैं।
विपक्षी दलों की सारी राजनीति जन असंतोष पैदा करके सत्ता परिवर्तन करना रहती है। हमारे राजनैतिक ढांचे में सत्ता का केंद्रीकरण इतना अधिक है कि राज्य समाज से कटा रहता है और सरकारों के खिलाफ असंतोष पैदा करना आसान हो जाता है।
राजनीति सत्ता परिवर्तन का खेल बनी रहती है और उसके कारण कोई राष्ट्रीय संकल्प पैदा नहीं हो पाता। कभी कोई शक्तिशाली नेता पैदा होता है तो यह प्रक्रिया कुछ समय के लिए रुक जाती है।
राष्ट्रीय संकल्प को उभरने में मदद मिलती है। पिछले चार साल में यही हुआ है। लेकिन आम चुनाव निकट आते ही विपक्षी दलों को आशा बंधी है कि वे जन-असंतोष को बढ़ाकर सत्ता बदल सकते हैं।
आज विपक्षी दलों में एकता भले न हो, पर वे एकत्र हो रहे हैं। वे कितना सफल होंगे, इसका निर्णय 2019 के आम चुनाव के परिणाम ही करेंगे।
आज भी भारतीय सभ्यता के निषेध की राजनीति को कांग्रेस का संरक्षण मिला हुआ है। इसलिए जब तक कांग्रेस सत्ता के सभी स्तरों से बेदखल नहीं होती, हम अपनी सभ्यता की ओर उन्मुख नहीं हो पाएंगे।
लेकिन भाजपा के शासन में भारतीय सभ्यता की अधकचरी समझ रखने वाले लोगों को जो प्रचार मिल रहा है, वह भी कम चिंता का विषय नहीं है। इन तथ्यों के कारण समाज में अवांछित संघर्ष पैदा होता है और वह शासन के लिए भी समस्याएं पैदा कर देता है।
यह पहला मौका है जब विपक्ष में मोदी सरकार को पलटने की बेचैनी बहुत है, लेकिन इनमें कौन किसके साथ है, यह किसी को पता नहीं है। अब तक चुनाव आते-आते विपक्षी दलों के दो-तीन मोर्चे बन जाते थे।
इस बार एक बड़ा असमंजस यह है कि कांग्रेस पहली बार राहुल गांधी के नेतृत्व में चुनाव लड़ने जा रही है और विपक्ष के किसी और दल को उनकी नेतृत्व क्षमता में भरोसा नहीं है।
कोई दल विपक्ष की बागडोर राहुल को सौंपने का जोखिम उठाने के लिए उत्सुक नहीं है।
नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता के कारण पिछले चार वर्षों में भाजपा का अब तक उसके लिए अगम रहे क्षेत्रों में भी विस्तार हुआ है। नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद राजग 21 राज्यों की सत्ता में पहुंच गया है और कांग्रेस का शासन 17 राज्यों से घटकर चार राज्यों में रह गया है। 2014 में नरेंद्र मोदी का सत्तारोहण केवल दल परिवर्तन नहीं था, वह एक वैचारिक परिवर्तन भी था।