विश्वरूप

हमारे देवताओं में ज्ञान के देवता हैं और कुछ विज्ञान के। अकेले शिव ही ऐसे हैं जो एक साथ ज्ञान और विज्ञान दोनों के देवता हैं। विष्णु की कथाओं से हमें परम सत्ता के स्वरूप का पता लग सकता है और वैष्णव धर्म से हम उन आचार विचारों के बारे में जान सकते हैं जो हमें परमात्मा के नजदीक ले जायें। दूसरी तरफ अश्विनी कुमार आयुर्वेद के देवता माने जाते हैं और कहा गया है कि इंद्र ने यह विद्या अश्विनी कुमार से सीखकर धन्वन्तरि को सिखाई थी। शिव में यह ज्ञान-विज्ञान अलग-अलग नहीं रहते। शिव ज्ञान स्वरूप तो हैं ही उनके स्वरूप से ही विज्ञान भी हो जाता है। विज्ञान का हमारे यहां दोबारा अर्थ है। उसका एक अर्थ है परमात्मा और सृष्टि के संबंध को जानना। इसी अर्थ में तुलसीदास जी ने विज्ञानी को ज्ञानी से भी बड़ा बताया है। उसका दूसरा अर्थ सृष्टि की गति-नियति को जानना है। जो शास्त्र इसमें हमारे सहायक हो सकते हैं उन सबके मूल प्रवर्तक शिव ही बताये गये हैं। वे ही संगीत, नृत्य, योग, व्याकरण और भेषज्य जैसी विद्याओं के प्रणेता हैं। यह सिर्फ संयोग नहीं है कि हमारे अधिकांश शास्त्रज्ञ शैव रहे हैं।

परमात्मा और सृष्टि के संबंध में भी जितनी सहजता और सरलता से शिव हमें बता सकते हैं और कोई देवता नहीं बता पाते। विष्णु के अवतार कृष्ण को महाभारत के युद्ध के समय गीता का उपदेश देते हुए अर्जुन को परमात्मा और सृष्टि का संबंध समझाना था तो उन्हें अपना विश्वरूप दिखाना पड़ा। इस रूप को देखकर अर्जुन इतने चकित हुए कि उन्हें कृष्ण से अपने सहज रूप में आने की प्रार्थना करनी पड़ी। शिव को परमात्मा की सृष्टि का रहस्य समझाने के लिए न कोई अवतार लेना पड़ता है और न विश्व रूप दिखाना पड़ता है। उनका सहज स्वरूप ही हमें परमात्मा और सृष्टि के बीच की सारी परतें खोल कर समझा देता है। यह परमात्मा और सृष्टि का संबंध उनके महाकाल रूप के जरिये समझा जा सकता है। काल रूपी सर्प का संबंध उनके महाकाल रूप के जरिये समझा जा सकता है। काल रूपी सर्प को हमेशा धारण करने वाले शिव महाकाल हैं। परमात्मा के अलावा सबकुछ काल के भीतर है और वह निरन्तर बदलता-परिवर्तित होता रहता है।

ज्ञान और विज्ञान के रिश्ते को समझने की क्षमता हम खोते जा रहे हैं। भारतीय सभ्यता और दूसरी सभ्यताओं में सबसे बड़ा फर्क यही रहा है कि हमारी सभ्यता ज्ञान और विज्ञान दोनों पर आधारित है। वह दोनों में विवेक कर सकती है। हमारी सभ्यता को न अकेले ज्ञान पर केंद्रित करने की कोशिश की गई और न अकेले विज्ञान पर। विश्व के स्वरूप को समझना ज्ञान है और यह जिज्ञासा ही हमें परमात्मा का बोध कराती है। विश्व को गति-नियति को समझना विज्ञान है। यह विश्व कैसे चल रहा है, उसे चलाने वाली शक्तियां क्या हैं और वे उसे किस दिशा में ले जा रही हैं, यह सब समझना विज्ञान है। परमात्मा तो निर्विशेष है, गुण-धर्म से रहित है। इसलिए उसका ज्ञान ही हो सकता है। मगर यह सृष्टि तो गुण-कर्ममय ही है और यह गुण-कर्म अनंत रूपों में प्रकट हो रहा है। उसका विशेष ज्ञान ही हो सकता है और यह विशेष ज्ञान ही विज्ञान है।

इसमें महत्व की बात यह है कि बिना ज्ञान के विज्ञान नहीं हो सकता। जब हमें विश्व का स्वरूप समझ में नहीं आयेगा, हम उसकी गति-नियति की भी ठीक से समझ और पहचान नहीं बना सकेंगे। और जब हमें विश्व की गति-नियति का ही पता नहीं तो हम कोई शुभ और कल्याणकारी सभ्यता कैसे बना सकते हैं। जो लोग सिर्फ विज्ञान के सहारे सभ्यता खड़ी करने का कठ करते हैं वे अज्ञात की अंधी शक्तियों के हाथों में खेल रहे होते हैं और उसका क्या नतीजा होता है यह हम आज की तथाकथित सभ्यता की दशा और दिशा को देखकर समझ सकते हैं। इस सभ्यता ने संहारक बल तो बहुत पैदा कर दिया है लेकिन मनुष्य के कल्याण की ठीक-ठीक पहचान नहीं की जा सकी है।

यूरोप के लोगों का यह हठ कोई नया नहीं है। उन्होंने ज्ञान से दूरी बनाये रखी है। ऐसा नहीं है कि उनमें अपने, वस्तुओं के और जगत् के स्वरूप को समझने की कोई जिज्ञासा न रही हो। महान यूनानी दार्शनिक प्लेटो तक ने जोर देकर कहा है कि अपने को पहचानो। लेकिन यह अपने को पहचानना उन्हें आत्मा तक नहीं ले जा पाया। प्लेटो ने जब भी अपने को पहचानने की कोशिश की सिर्फ अपनी तर्क बुद्धि में ही झांका। यह तर्क बुद्धि यूरोपीय दिमाग की ऐसी लक्ष्मण रेखा बन गई है जिसके बाहर वह आ ही नहीं पाता। यही वजह है कि जब भी मनुष्य, वस्तुओं या जगत के स्वरूप को समझने की कोशिश की गई है वे या तो रहस्यवाद में भटक गए हैं या ठूंठ तार्किक अवधारणाओं में।

जब प्लेटो ने वस्तुओं और जगत का मूल स्वरूप समझने की कोशिश की तो वे इस नतीजे पर पहुंचे कि यह जगत और उसकी सब वस्तुएं तो अनिश्चित हैं। उनका आदर्श रूप इस जगत से परे है और वह केवल तर्क बुद्धि से ही पकड़ में आ सकता है। इसी तरह उन्होंने राज्य को आदर्श मान लिया और यह सारा चराचर संसार राज्य का खिलौना बना दिया गया। उनका यह दुराग्रह इस तथाकथितत आधुनिक सभ्यतता ने भी पूरी तरह आत्मसात कर रखा है और हमारे यहां भी पिछले सौ-डेढ़ सौ बरस में प्लेटो के बहुत से मानस पुत्र पैदा हो गए हैं। बेचारे प्लेटो ही ठूंठ तार्किक अवधारणाओं में फंसे रहने के दोषी नहीं हैं। यूरोप के ईसाई दार्शनिकों ने भी ईश्वर की कुछ उसी तरह की ममेश्वरवादी व्याख्या की है। उनका ईश्वर कुछ उसी तरह का है जिस तरह का आज के वैज्ञानिकों का सृष्टि को चलाने वाला चरम सिद्धांत।

यही वजह है कि हमारे यहां ज्ञान के सहारे परमात्मा का स्वरूप समझ कर सृष्टि को चलाने वाली जिस शिव शक्ति को पहचाना जा सकता था वह यूरोपीय समाजों की पकड़ में नहीं आ पाई। अपने यहां हम जिस नैतिक सभ्यता को खड़ी कर सके उसकी नींव वहां नहीं रखी जा सकी। हम समाज को चलाने के लिए धर्म को पहचान सके जबकि उसके लिए वे लोग पूर्व की तरफ ही देखते रहे। तार्किक नियमों का व्यावहारिक सृष्टि से वैसा रिश्ता बन ही नहीं सकता जैसा परमात्मा और उसी से उत्पन्न हुई सृष्टि का बन सकता है। हम जानते हैं कि सृष्टि से परमात्मा की तरफ जाने का एक रास्ता है। यह रास्ता साधना का रास्ता है। अपने आपको यम-नियम से बांध कर मर्यादितत होने का रास्ता है। अहिंसा और करुणा का रास्ता है। इसलिए हमारे यहां धर्म का नैतिक शासन है जिसे या तो अपने आप लागू करना होता है या सर्वसम्मति से चलने वाली पंचायती संस्थाओं द्वारा।

यूरोपीय आदमी के लिए तो आदर्श और व्यवहार की खाई पाटने की कोई गुंजाइश ही नहीं रहने दी गयी। न प्लेटो की दुनिया में जगत की वस्तुएं आदर्श रूप की स्थिति तक पहुंच सकती हैं और न ईसाई धर्म में जीव के परमात्मा तक पहुंचने की कोई गुंजाइश छोड़ी गयी है। वह तो कयामत तक बैठा इंतजार करेगा और फिर ईश्वरीय न्याय से स्वर्ग-नर्क में चला जायेगा। हमारे यहां ईश्वर न्याय करने नहीं बैठता। वह काम तो कर्म फल के जरिये प्रकृति अपने आप कर लेती है। ईश्वर तो अनुग्रह ही करता है, मुक्ति ही देता है। हमारे यहां ईश्वर जब अवतार लेकर असुरों का संहार करते हैं तो भी उन्हें नर्क में नहीं भेजते। ईश्वर के शस्त्र से किसी का अशुभ नहीं हो सकता, उसकी मुक्ति ही हो सकती है। व्यवहार में भी मनुष्य को हांकने या प्रकृति पर विजय पाने के लिए किसी को निरंकुश अधिकार नहीं दिये गये। हमारे यहां न कभी राज्य को सबका स्वामी माना गया है न किसी धर्म संस्थान को।

भारत और यूरोप के दिमाग के ढांचे में यह जो बुनियादी फर्क रहा है उसे गहराई में जाकर समझना चाहिए। इस फर्क की बड़ी सतही व्याख्याएं की जाती रही हैं। अधिकांश लोग अपनी नादानी में यह मान लेते हैं कि पश्चिम की वैज्ञानिक दृष्टि तो इस विश्व को जड़ मानती है और केवल उसी को ज्ञान का विषय समझती है जो ‘दिख’ सकता है, चाहे वह इंद्रियों से दिख रहा हो या यंत्रों से या दिख न भी रहा हो तो उसके अस्तित्व को कोई प्रत्यक्ष परीक्षा की जा सकती हो। अगर इन्हीं कसौटियों पर देखें तो हमारे यहां इस विश्व को कहीं अधिक स्पष्टता के साथ जड़ माना जाता रहा है। सांख्य में पुरुष और प्रकृति का भेद करते हुए प्रकृति के दायरे की हर चीज को जड़ ही माना जाता है। उस चैतन्य को भी जो हमें सब प्राणियों में दिखाई देता है। यह परिभाषा हमारे यहां के लगभग सभी दार्शनिकों और संप्रदायों ने स्वीकार की है। इसी तरह प्रत्यक्ष का जितना आग्रह हमारे यहां रहा है उतना शायद यूरोप में भी नहीं रहा। परमात्मा को भी हम इसीलिए मानते हैं कि अपने अतींद्रिय अनुभव में उनका प्रत्यक्ष हो सकता है।

दोनों दृष्टियों का फर्क इससे कहीं गहरा है और दोनों के विश्व रूप दर्शन में ही निहित है। हम यह मानते हैं कि ज्ञान हमें जिस परमात्मा तक ले जाता है वह एक है। वह जब सृष्टि के रूप में प्रकट होता है तो बहु हो जाता है-एकोहं बहुस्याम। परमात्मा के रूप में जो शिव तत्व है वह एक और अखंड ही है। जब उनसे शक्ति प्रकट होती है तो यह एक बहुत हो जाता है। शक्ति की बहुलता सीमित नहीं है असीमित है। क्योंकि हम एक के बहु होने को पहचानते हैं इसलिए हमने सृष्टि को कभी द्वंद्व में नहीं देखा। समाज में द्वंद्वात्मकता के दर्शन नहीं किए। यूनानी दार्शनिक से लेकर कार्ल माक्र्स तक जिस द्वंद्व बुद्धि से आक्रांत दिखाई देते हैं वह हमें कभी परेशान नहीं कर पार्यी वह द्वंद्वात्मकता उन्हीं को दिखाई देते हैं वह हमें कभी परेशान नहीं कर पायी। यह द्वंद्वात्मकता उन्हीं को दिखाई देती है जो प्रकृति की घटनाओं को या सामाजिक जीवन की घटनाओं को छोटे दायरों में सीमित करके देखते हैं। रूप और वस्तु का भेद, ईश्वर और जीव का भेद, मन और शरीर का भेद, पदार्थ और ऊर्जा का भेद या ऐतिहासिक शक्तियों की द्वंद्वात्मकता तभी दखिाई पड़ती है जब हम तथ्यों और घटनाओं को किसी छोटे दायरे में सीमित करके देखें।

यूरोपीय जातियों के चिंतक सृष्टि की बहुलता के असीमित होने को नहीं पहचानते थे। इसलिए उन्होंने उसकी गति और नियति को समझने के एक चरम सिद्धांत को खोजने की कोशिश की। यह कोशिश ही आज के वैज्ञानिकों को लाल बुझक्कड़ जैसी हालत में डाले हुए है। वे हर बात सृष्टि की अंतिम व्याख्या करने का दावा करते हैं और हर बार उनकी व्याख्या की हास्यास्पद सीमाएं जल्दी ही उजागर हो जाती हैं। मगर फिर भी वे इस सृष्टि मे ंरहते हुए उसी की कसौटियों से उसके पार झांक कर देखने की नादानी नहीं छोड़ते। व्यक्तिगत स्तर पर अपनी असफलता पहचान कर विट्गेन्स्टाइन रहस्यवाद में उतर आते हैं और आईंस्टीन ईश्वर में विश्वास करने लगते हैं। लेकिन पश्चिम का जातीय दिमाग अपना दुराग्रह नहीं छोड़ता। वह विज्ञान को ही ज्ञान का दर्जा दिलवाने की जिद पर अटका रहता है।
शिव इस भटकाव की कोई गुंजाइश नहीं छोड़ते। शिव महाकाल हैं और हमें यह काल बोध दिये हुए हैं कि सृष्टि में कुछ भी स्थिर नहीं है, सबकुछ परिवर्तित हो रहा है। इसलिए सृष्टि के भीतर सृष्टि का कोई चरम सिद्धांत नहीं ढूंढा जा सकता। यह चरम सिद्धांत तो महाकाल शिव स्वयं हैं और वे भी अपने शिव रूप में नहीं बल्कि पर शिव रूप में जो कि प्रकृति के विकास के पहले की स्थिति है। भारतीय वैज्ञानिक दृष्टि के एिल काल की अवधारणा सबसे बुनियादी और सबसे महत्वपूर्ण अवधारणा है। यह दुर्भाग्य की बात है कि आज हमारे यहां कहीं इस पर कोई अध्ययन या चिंतन नहीं हो रहा। सिर्फ इस अवधारणा के लिए ही हम दस-पांच संस्थाओं और दर्जनों विद्वानों को लगा दें तो कोई ज्यादा नहीं होगा।

अपनी वैज्ञानिक दृष्टि को फिर से जागृत करने के एिल हमें अपने दर्शनों, संप्रदायों और पौराणिक व्याख्याओं की तरफ लौटना पड़ेगा। वहां इतनी अथाह सामग्री है कि उसको ठीक से समझने और व्यवस्थित करने में ही चालीस-पचास बरस लग जायें। लेकिन इस कोशिश में ही हमारी वैज्ञानिक बुद्धि जाग जायेगी। ज्ञान और विज्ञान का रिश्ता हमको समझ में आ जायेगा। अपनी सभ्यता को खड़ा करने के नियम और विचार समझ में आ जायेंगे। यह वैज्ञानिक दृष्टि यूरोप के ज्ञान विहीन विज्ञान की तोता रटंत से विकसित नहीं की जा सकती। जिन लोगों ने कुछ साल पहले देश में वैज्ञानिक स्वभाव पैदा करने की जरूरत बताते हुए एक वक्तव्य दिया था उन्होंने इस बात पर गौर नहीं किया था कि दृष्टि अनुकरण से नहीं बनती। उससे तो दास बुद्धि ही पैदा हो सकती है और पिछले डेढ़-दो सौ साल की शिक्षा-दीक्षा में वही पैदा होती रही है। इस दास बुद्धि से छुटकारा पाने के लिए हमें शिव की शरण में जाना होगा। उन्हीं की कृपा से हम अपने प्राचीन ज्ञान-विज्ञान के रास्ते पर फिर से लौट सकते हैं।

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