संवैधानिक आधार पर महिलाओं की खतना प्रथा को परखा जाएगा। उच्चतम न्यायायलय दाउदी बोहरा मुसलमानों में महिलाओं की खतना प्रथा को स्वास्थ्य, नैतिकता और व्यवस्था के लिहाज से परखेगा। सर्वोच्च अदालत ने प्रथा पर सवाल उठाते हुए कहाकि ये प्रचलन महिलाओं की गरिमा को चोट पहुंचाता है। पति को खुश करने के लिए अगर महिलाएं ऐसा करें तो क्या पुरूष वर्चस्व नहीं दिखता। मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्र की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यी पीठ ने ये टिप्पणी दाऊदी बोहरा समाज में महिलाओं के खतना पर रोक लगाने वाली याचिका की सुनवाई के दौरान की। अदालत अगले सोमवार को इस मामले में फिर सुनवाई करेगा।
20 अगस्त 2018 को सुनवाई के दौरान सर्वोच्च अदालत में दाउदी बोहरा समाज की ओर से वकील अभिषेक मनु सिंघवी ने बहस की। सिंघवी ने महिलाओं के खतना प्रथा की तरफदारी करते हुए कहाकि यह प्रथा पिछली 1400 साल से चली आ रही है। उन्होंने आगे कहाकि यह प्रथा धर्म का अभिन्न हिस्सा है। इसे संविधान के धार्मिक स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार अनुच्छेद 25,26 और 29 में संरक्षण मिलना चाहिए।
सिंघवी की दलील पर पीठ के न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ ने कहाकि किसी प्रचलन के लंबे समय से चलते रहना उसके धर्म का अभिन्न हिस्सा माने जाने का आधार नही हो सकता। ये सामाजिक दायरा हो सकता है। इस प्रचलन को स्वास्थ्य, नैतिकता और पब्लिक आर्डर के संवैधानिक मूल्यों पर परखा जाएगा।
मुख्य न्यायाधीश ने प्रचलन को स्वास्थ्य और नैतिकता के संवैधानिक सिद्धांत पर परखने की बात करते हुए कहा कि जब किसी महिला की गरिमा प्रभावित होती है तो ये मुद्दा उठता है। क्योंकि महिला की गरिमा को संवैधानिक संरक्षण प्राप्त है। पीठ की टिप्पणी पर सिंघवी ने कहाकि नैतिकता और मर्यादा की धारणा अलग अलग लोगों के लिए भिन्न हो सकती है। उन्होने कहाकि दाऊदी बोहरा मुसलमानो में 99 फीसदी महिलाएं इस प्रथा का समर्थन करती हैं। हालांकि पीठ इस तर्क से सहमत नहीं दिखी।