सुरक्षा परिषद के ढांचे में परिवर्तन की मांग कई वर्ष पहले उठी थी। अब यह जोर पकड़ रही है। संयुक्त राष्ट्र के प्रमुख देशों के बीच आपसी बातचीत के बाद यह सहमति बनी थी कि सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्यों में कुछ और देशों को शामिल किया जाना चाहिए। इनमें भारत के अतिरिक्त जर्मनी, ब्राजील और जापान का नाम लिया जा रहा है।
संयुक्त राष्ट्र के ढांचे में सुधार की मांग फिर जोर पकड़ रही है। विशेषकर सुरक्षा परिषद के स्वरूप में परिवर्तन के लिए नए सिरे से मांग उठने लगी है। उसके लिए पहल फ्रांस ने की है। संयुक्त राष्ट्र में फ्रांस के स्थायी प्रतिनिधि ने कहा है कि अपने वर्तमान स्वरूप में सुरक्षा परिषद विश्व की महत्वपूर्ण शक्तियों का और क्षेत्रों का ठीक से प्रतिनिधित्व नहीं करती। अगर उसे परिवर्द्धित नहीं किया जाता तो वह अपना महत्व खो देगी। सुरक्षा परिषद के ढांचे में परिवर्तन की मांग कई वर्ष पहले उठी थी। यह मांग करने वाली प्रमुख शक्तियों में भारत भी था।
संयुक्त राष्ट्र के प्रमुख देशों के बीच आपसी बातचीत के बाद यह सहमति बनी थी कि सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्यों में कुछ और देशों को शामिल किया जाना चाहिए। शामिल किए जाने वाले इन देशों में भारत के अतिरिक्त जर्मनी, ब्राजील और जापान का नाम लिया जाता रहा है। इसके अलावा अफ्रीका के प्रतिनिधित्व के लिए किसी एक उपयुक्त देश को चुना जाना चाहिए। अब तक इसके लिए दक्षिण अफ्रीका का नाम लिया जा रहा था। पर उस पर अफ्रीकी देशों में अभी पर्याप्त सहमति नहीं बन पाई। सुरक्षा परिषद के स्वरूप में परिवर्तन के इस प्रस्ताव पर अन्य प्रमुख देश तो शुरू में ही तैयार हो गए थे। आरंभिक हिचकिचाहट के बाद अमेरिका भी उसके लिए तैयार होता दिख रहा था। लेकिन चीन उसके लिए किसी भी तरह तैयार नहीं हुआ। चीन को भारत के साथ-साथ जापान को सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य बनाए जाने और वीटो करने की शक्ति देने पर घोर आपत्ति है।
मुश्किल यह है कि सुरक्षा परिषद के ढांचे में किसी परिवर्तन के लिए सुरक्षा परिषद के पांचों स्थायी सदस्यों की सहमति आवश्यक है। उनमें सहमति न बन पाने की स्थिति में संयुक्त राष्ट्र की आम सभा में इस प्रस्ताव के पक्ष में विशाल बहुमत दिखना चाहिए। अब तक यह प्रस्ताव आम सहमति के अभाव में स्थगित रखा गया था। फ्रांस की इस नई पहल का समय महत्वपूर्ण है। सुरक्षा परिषद में पांच सदस्यों को मिले हुए वीटो के अधिकार का कितना दुरुपयोग हो सकता है, यह बात पिछले दिनों मसूद अजहर के मामले में सामने आई थी। संयुक्त राष्ट्र द्वारा पाकिस्तान पोषित आतंकवादी संगठन जैश-ए- मोहम्मद को प्रतिबंधित किया जा चुका है। लेकिन उसके मुखिया मसूद अजहर को आतंकवादी घोषित करके उस पर अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंध लगाए जाने में चीन बाधा बना हुआ था। उसके लिए पहला प्रस्ताव भारत ने रखा था। उस प्रस्ताव पर तकनीकी रोक लगाकर चीन ने उसे सफल नहीं होने दिया। उसके बाद फ्रांस ब्रिटेन और अमेरिका इस प्रस्ताव को आगे बढ़ाते रहे। लेकिन हर बार चीन अपनी तकनीकी रोक के जरिए उसे पारित किए जाने में बाधा बना रहा। इस बार पुलवामा में हुए आतंकवादी हमले के बाद फ्रांस की पहल पर यह प्रस्ताव फिर से रखा गया।
जब उस पर निर्णय करने वाली समिति में चीन फिर बाधा बना तो फ्रांस, ब्रिटेन और अमेरिका ने उसे सीधे सुरक्षा परिषद में रखने का निर्णय लिया। सुरक्षा परिषद में चीन को यह बताना पड़ता कि वह किस आधार पर मसूद अजहर का पक्ष ले रहा है। इससे अंतरराष्ट्रीय क्षेत्रों में उसकी भूमिका पर सवाल उठे होते। यही सब सोचकर चीन अंतत: झुका और उसने मसूद अजहर को आतंकवादी घोषित होने दिया। अब इस घटना के तुरंत बाद फ्रांस ने सुरक्षा परिषद के स्वरूप को बदलने और उसमें नए स्थायी सदस्य जोड़कर उसे अधिक स्वीकार्य बनाने की पहल की है। स्पष्ट है कि यह चीन के बढ़ते हुए प्रभाव को संतुलित करने का ही प्रयास है। फ्रांस की इस पहल के बाद संयुक्त राष्ट्र की अन्य मुख्य शक्तियों को इस सिलसिले में अपना रुख स्पष्ट करना पड़ेगा। बहुत संभव है कि इस बार यह मांग जोर पकड़ ले और उसका विरोध करना चीन के लिए भी असंभव हो जाए।
संयुक्त राष्ट्र का गठन दूसरे महायुद्ध के बाद किया गया था। उसका उद्देश्य भविष्य में युद्ध की आशंकाओं को रोकना और विश्व के देशों में सहकार बढ़ाना था। 24 अक्टूबर, 1945 को गठित होते समय संयुक्त राष्ट्र के 51 सदस्य थे। आज उसके सदस्यों की संख्या बढ़कर 193 हो गई है। संयुक्त राष्ट्र के सबसे महत्वपूर्ण निकायों में सुरक्षा परिषद है जिसके पास सबसे अधिक शक्तियां हैं। उसके स्थायी सदस्यों में दूसरे महायुद्ध के पांच विजेता शक्तियों को सम्मिलित किया गया था। दूसरे महायुद्ध में मित्र राष्ट्रों की जीत हुई थी और उसकी प्रमुख शक्तियों अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, सोवियत रूस और चीन को सुरक्षा परिषद का सदस्य बनाया गया था। सुरक्षा परिषद को ही ऐसे प्रस्ताव स्वीकार करने का अधिकार है जो संयुक्त राष्ट्र के सभी सदस्यों के लिए बाध्यकारी हों। किसी देश या संगठन पर प्रतिबंध लगाने से लेकर किसी देश या संगठन के विरुद्ध सैनिक कार्रवाई करने तक के निर्णय सुरक्षा परिषद में ही लिए जाते हैं। उसके सभी निर्णयों पर पांचों स्थायी सदस्यों का सहमत होना आवश्यक है। सुरक्षा परिषद की पहली बैठक 17 जनवरी, 1946 को हुई थी। उसके बाद चीन में गृहयुद्ध के जरिए कम्युनिस्टों को सत्ता पर नियंत्रण करने में सफलता मिल गई। राष्ट्रवादी शक्तियों को ताइवान में सीमित रह जाना पड़ा। अमेरिका की पहल पर सुरक्षा परिषद में लंबे समय तक चीन का प्रतिनिधित्व ताइवान ने किया। इस बीच चीन के साम्यवादी शासक अपना अधिकार मांगते रहे। उसी अवधि में अमेरिका ने अनौपचारिक रूप से भारत के सामने यह प्रस्ताव रखा था कि सुरक्षा परिषद में चीन की जगह भारत को दे दी जाए।
जवाहर लाल नेहरू अपने वामपंथी विचारों के कारण कम्युनिस्ट चीन की ही तरफदारी करते रहे और उन्होंने अमेरिकी प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया। बाद में चीन की उभरती हुई शक्ति और सोवियत रूस से उसकी बढ़ती हुई दूरी ने अमेरिका को उससे संबंध बनाने के लिए प्रेरित किया। राष्ट्रपति निक्सन के कार्यकाल में अमेरिका और चीन एक-दूसरे के निकट आ गए। दूसरे महायुद्ध के लगभग 25 वर्ष बाद अमेरिका और अन्य यूरोपीय शक्तियों ने अपना कायाकल्प कर लिया था। अमेरिका दूसरे महायुद्ध के दौरान ही विश्व की प्रधान शक्ति गिना जाने लगा था। 1970 में वह अपनी संपन्नता के शिखर पर पहुंच गया। उसके बाद अमेरिका में प्रदूषण की चिंता शुरू हुई। मजदूर यूनियनों की हठधर्मिता ने भी अमेरिकी सत्ता प्रतिष्ठान को अपनी आर्थिक रणनीति बदलने के लिए प्रेरित किया।
चीन से संबंध सुधरने के बाद अमेरिका ने अपने प्रदूषण फैलाने वाले अधिकांश उद्योगों को चीन स्थानांतरित कर दिया। इन उद्योगों और उनके साथ आई अमेरिकी कंपनियों की बदौलत चीन भी पिछले कुछ दशकों में अपना आर्थिक विकास करने में सफल रहा है। अब वह अपनी बढ़ती हुई आर्थिक शक्ति के आधार पर अमेरिका के प्रभुत्व को चुनौती देता दिख रहा है। इस चुनौती को पहचानने और चीन को घेरने की रणनीति डोनाल्ड ट्रम्प के अमेरिकी राष्ट्रपति बनने के बाद शुरू हुई। अब लगता है कि अमेरिका ने चीन के विश्व शक्ति बनने के मार्ग में बाधा डालने का मन बना लिया है। अमेरिका भारत को एक संतुलनकारी शक्ति के रूप में आगे बढ़ाने की भी कोशिश कर रहा है। भारत इस प्रतिस्पर्धा में बिना पड़े न केवल अपना आर्थिक विकास कर लेना चाहता है बल्कि वह विश्व में एक महाशक्ति के रूप में अपनी स्वीकार्यता भी चाहता है। सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्यों में सम्मिलित होना उसकी इसी आकांक्षा का अंग है। उसकी इस आकांक्षा में अब एकमात्र बाधा चीन ही दिखाई देता है।
संसार की अन्य सभी बड़ी शक्तियां उसको सुरक्षा परिषद में शामिल किए जाने की मांग का समर्थन कर चुकी है। फ्रांस की इस बार की पहल से लगता है कि ब्रिटेन और अमेरिका भी उसकी इस मांग को समर्थन देने के लिए राजी हो गए हैं। भारत ने शुरू में प्रस्ताव किया था कि सुरक्षा परिषद के सदस्यों को मिले हुए वीटों के अधिकार को निरस्त कर दिया जाए। इससे उसे समयानुरूप बढ़ाने में आसानी होगी। लेकिन उसने पाया कि वीटो प्राप्त देशों में कोई इसके लिए तैयार नहीं हैं। उसके बाद यह मांग छोड़ दी गई। नए नामों पर सबकी सहमति बनाने की खातिर भी इस मांग को धीरे-धीरे आगे बढ़ाने की रणनीति तय हुई थी। यूरोप से एक और शक्ति जर्मनी को सुरक्षा परिषद में शामिल किए जाने पर अब शायद ही किसी को आपत्ति हो। इस समय जर्मनी यूरोप की प्रधान शक्ति है। उसकी अर्थव्यवस्था सबसे मजबूत है। इसी तरह दक्षिण अमेरिका से ब्राजील को शामिल किए जाने पर अधिक विवाद नहीं है। भारत और जापान एशिया की दो बड़ी शक्तियां है। इसमें किसी को आपत्ति नहीं हो सकती।
लेकिन चीन किसी भी तरह जापान को सुरक्षा परिषद का सदस्य नहीं बनने देना चाहता। वह भारत के भी इसीलिए विरोध में है कि वह एशिया से किसी और शक्ति को मान्यता मिलते नहीं देखना चाहता। लेकिन चीन की इस हठधर्मिता के अब दिन लदने वाले हैं। ऐसा लगता है कि पश्चिमी शक्तियां चीन के मामले में एक राय होकर यह फैसला कर चुकी है कि उसे सुरक्षा परिषद में अपेक्षित परिवर्तन करने की बाधा नहीं बनने दिया जाएगा। भारत अब तक इस कूटनीतिक प्रयत्न में लगा रहा है।
अगले एक-दो वर्ष में यह संभव हो पाया तो यह भारतीय राजनय की बड़ी जीत होगी और विश्व में एक महाशक्ति के रूप में भारत अपनी पहचान बनाने की ओर आगे बढ़ सकेगा।
अब उसकी कूटनीति को कुछ सफलता मिलने की आशा बंध रही है। उसे इस दिशा में अपने प्रयत्न तेज कर देने चाहिए। पिछले कुछ दशकों में विश्व में भारत की स्वीकार्यता भी काफी बढ़ी है। मोदी सरकार के बनने के बाद तो विदेश नीति पर विशेष जोर दिया जाता रहा है। अगले कुछ महीने में सुरक्षा परिषद के स्वरूप में परिवर्तन की मुहिम और जोर पकड़ेगी। अगले एक-दो वर्ष में यह संभव हो पाया तो यह भारतीय राजनय की बड़ी जीत होगी और विश्व में एक महाशक्ति के रूप में भारत अपनी पहचान बनाने की ओर आगे बढ़ सकेगा।
भारत को सुरक्षा परिषद में स्थाई सदस्य बनाना अमेरिका की मजबूरी है।अमेरिका शक्ति संतुलन की कूटनीति में माहिर है।चीन के बढ़ते प्रभाव को रोकने हेतु उसे एक मजबूत प्रतिद्वंद्वी की जरूरत है।इसलिए हमे आशा ही नही पूर्ण विस्वास भी है कि भारत सुरक्षा परिषद का स्थाई सदस्य हो जाएगा। लेकिन सबसे बड़ा प्रश्न है कि जिन उदेश्य के लिए इसका गठन हुआ था क्या आज वे उस पर कायम है या आज कही न कही अपने शक्ति का दुरुपयोग कर दुनिया के संसाधनों को अपने कब्जा में करने के लिए एक संगठित गिरोह के रूप में कार्य कर रहा है। ऐसी कई सारी घटनाएं हुई है जहाँ सुरक्षा परिषद के सदस्यों के बीच मतैक्य नही होने के बाबजूद सदस्यों ने वीटो का गलत प्रयोग कर अपने हित में कार्य किया है।