इस समय सत्ता का केंद्र बिंदु दिल्ली, कोलकाता या मुंबई अर्थात बड़े नगरों में है। मैं उसे भारत के सात लाख गांवों में बांटना चाहूंगा।’ अपनी इस आकांक्षा को महात्मा गांधी ने अमेरिकी पत्रकार लुई फीशर को बताया। आजादी के तत्काल बाद की ही यह बात है। ‘महात्मा गांधी के साथ एक सप्ताह’ नामक पुस्तक में यह दर्ज है।
उनका यह कथन अमिट है। भारतीय राज्य व्यवस्था की पुनर्रचना का जब भी सवाल आता है तो इसे हमेशा याद किया जाता है। आज भी यही वह मानक है जिससे राज्य व्यवस्था को आंका, जांचा और परखा जा सकता है।
घोर आश्चर्य और उससे भी अधिक गहरे अफसोस की बात जो है, वह यह है कि महात्मा गांधी के राजनीतिक उत्तराधिकारी पंडित जवाहरलाल नेहरू के उद्देश्य प्रस्ताव में इसका उल्लेख भी नहीं मिलता है। संविधान सभा में उद्देश्य प्रस्ताव 13 दिसंबर, 1946 को उन्होंने प्रस्तुत किया था।
उसमें लोकतंत्र के लक्ष्य की घोषणा जरूर थी, लेकिन ‘स्वतंत्र भारत में गांवों का स्थान, सरकार में उनकी भूमिका और भारतीय गांवों के परिप्रेक्ष्य में स्वराज्य का अर्थ आदि विषयों का’ उस प्रस्ताव में उल्लेख तो छोड़ ही दीजिए, संकेत मात्र भी नहीं था। यहां यह जानना जरूरी है कि कांग्रेस ने जुलाई 1946 में एक विशेषज्ञ समिति बनाई| “नई पीढ़ी यह भूलती ही जा रही है कि 1947 में गांधी जी सोचते थे कि वे दिल्ली की सत्ता को गांव-गांव पहुंचाएंगे। इसका राजनीतिक और राज्य व्यवस्था की दृष्टि से अर्थ यह था कि वे शासन का आधार गांव को बनाना चाहते थे। शासन के पिरामिड को पलटना चाहते थे।”
उस समिति ने जवाहरलाल नेहरू के उद्देश्य प्रस्ताव पर सहमति दी थी। महात्मा गांधी तब जीवित थे। कांग्रेस नेतृत्व बार-बार यह बताता रहता था कि महात्मा गांधी का उसे आशीर्वाद प्राप्त है। इस विडंबना पर पहली चोट स्वयं महात्मा गांधी ने किया।
उन्होंने 31 दिसंबर, 1947 को ‘हरिजन’ में लिखा कि ‘मुझे यह मान्य करना होगा कि मैं संविधान सभा की कार्यवाही समझ नहीं पाया हूं… (वृतांत बताता है) कि सूचित संविधान में पंचायतों और विकेंद्रीकरण का उल्लेख नहीं है। हमारी स्वतंत्रता में लोगों की आवाज के प्रतिघोष का संकेत पाने की इच्छा हम रखते हैं तो इस क्षति के प्रति अविलंब ध्यान देना आवश्यक है। पंचायतों के पास जितनी अधिक सत्ता होगी, उतना लोगों को विशेष लाभ होगा।’…
महात्मा गांधी ने जब इसे लिखा, तब तक संविधान के उद्देश्य का प्रस्ताव पारित हो गया था। उसकी तारीख है-22 जनवरी, 1947। महात्मा गांधी ने 11 महीने प्रतीक्षा की। इन महीनों में संविधान सभा की एक बहुत महत्वपूर्ण समिति काम कर रही थी।
उसे प्रारूप समिति के नाम से जाना जाता है। इसे संविधान सभा ने 29 अगस्त, 1947 को बनाया। संविधान सभा के सचिवालय ने जो संविधान का प्रारूप बनाया था, उसकी इस समिति को छानबीन करनी थी। वह प्रारूप सर बेनेगल नरसिंह राव की योजना में बना था। वह संविधान सभा के सलाहकार थे। महात्मा गांधी के विचार जो स्वतंत्र भारत की राज्य व्यवस्था के संबंध में थे, उसकी उपेक्षा का इससे बड़ा उदाहरण खोजे नहीं मिलेगा।
“अजित निनान का ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ में एक कार्टून छपा है। इसमें जो व्यंग है वह महात्मा गांधी की पंचायत संबंधी अवधारणा पर पूरी तरह घटित हो रहा है। कार्टूनिस्ट ने दिखाया है कि महात्मा गांधी के उपयोग की सारी वस्तुएं एक जगह प्रदर्शित की गई हैं। वह स्थान किसी राजनीतिक दल का है। वह पार्टी 2019 का चुनाव लड़ने के लिए अपनी युवा शाखा को प्रशिक्षित कर रही है।”
गजब तो तब हो गया जब प्रारूप समिति ने संविधान का प्रारूप 4 नवंबर, 1948 को संविधान सभा में प्रस्तुत किया। उससे पहले की एक घटना का उल्लेख जरूरी है। संविधान का जो प्रारूप था उसमें परिवार, गांव और पंचायत का कहीं भी उल्लेख नहीं था।
इस पर जल्दी ही सदस्यों का ध्यान गया। संविधान सभा के अध्यक्ष डा. राजेंद्र प्रसाद ने सबसे पहले इस भूल को पकड़ा। उन्होंने 10 मई, 1948 को एक पत्र बेनेगल नरसिंह राव को लिखा। उनसे कहा कि संविधान के प्रारूप में संशोधन करना चाहिए। उनका विचार पत्र में है। उसमें वे लिखते हैं कि ‘संविधान को गांव से शुरू करके केंद्र तक पहुंचना चाहिए। इस देश में आज तक गांव ही बुनियादी इकाई रहे हैं और आगे भी रहेंगे।’
जब संविधान सभा की कार्यवाही 8 महीने बाद पुन: प्रारंभ हुई तो उसमें पंचायत का सवाल छाया रहा। डा. भीमराव अंबेडकर ने 4 नवंबर, 1948 को संविधान का प्रारूप प्रस्तुत किया। उन्हें पूरा ज्ञान था कि जिस प्रारूप को परामर्श के लिए जारी किया गया है, उस पर क्या-क्या टीका टिप्पणी हो रही है।
दो मुख्य प्रश्न थे जिस पर गंभीर बहस देश में तब चल रही थी। उसकी ही प्रतिध्वनि संविधान सभा में प्रकट हुई। प्रारूप प्रस्तुत करते हुए डा. अंबेडकर ने जो तथ्य और तर्क दिए, उसे सदस्य पचा नहीं पाए। उन पर तीखे तर्कों के बाण की भयंकर बौछार सदस्यों ने की। संविधान सभा की कार्यवाही के शब्द चित्र यही बताते हैं।
दो प्रश्न थे। संविधान के मूल में यही प्रश्न कसौटी बनते हैं। पहला कि सरकार का स्वरूप क्या होगा? दूसरा कि उसके लिए किस प्रकार की संवैधानिक व्यवस्था की गई है। सदस्यों ने संविधान सभा के प्रारूप पर प्रश्न उठाए। जो केंद्रीयकरण का संदेश लिए हुए थे। सदस्य लोकतंत्र को व्यापक बनाना चाहते थे।
इसलिए ग्राम स्वराज्य को साकार करने के लिए पंचायत प्रणाली आधारित राज्य व्यवस्था के तर्क एक के बाद दूसरे सदस्य देते रहे। केंद्रीयकरण की आलोचना का एक कारण यह भी था कि सदस्य अनुभव कर रहे थे कि नेतृत्व संघीय प्रणाली के अपने वायदे से विमुख हो रहा है। सदस्य तो पुराने वायदे पर अमल चाहते थे।
वे केंद्र की सरकार को बहुत अधिक अधिकार दिए जाने के खतरों से ही परिचित थे। पर संविधान का प्रारूप एकात्मक शासन की ओर झुका हुआ इसलिए था क्योंकि भारत-विभाजन ने देश की एकता और एकात्मता को पहली प्राथमिकता पर पहुंचा दिया था। नेतृत्व उसी चुनौती को ध्यान में रखकर संघात्मक शासन के अपने वायदे से एक कदम पीछे हटा था।
ज्यादातर सदस्यों ने डा. भीमराव अंबेडकर के भाषण के इस अंश को अत्यंत आपत्तिजनक माना कि ‘हमारे ग्राम हैं क्या? ये कूप मण्डूकता के परनाले हैं, अज्ञान, संकीर्णता एवं सांप्रदायिकता की काली कोठरियां हैं। मुझे तो प्रसन्नता है कि संविधान के प्रारूप में ग्राम को अलग फेंक दिया गया है और व्यक्ति को राष्ट्र का अंग माना गया है।’
इससे सभा में उत्तेजना की लहर पैदा हो गई। इससे बहुत तीखी बहस छिड़ी। जवाहरलाल नेहरू को हस्तक्षेप करना पड़ा। हालांकि जो प्रश्न खड़े हुए थे उसका उन्होंने सीधा उत्तर नहीं दिया। वे दिवास्वप्न के राजनेता जो थे। लेकिन संविधान सभा में 8 नवंबर, 1948 को अपने लंबे भाषण से उन्होंने अनेक संदेश दिए।
उनके व्यक्तित्व का चमत्कार कार्यवाही में भी दर्ज है। इस रूप में कि वे जब बोलने के लिए उठे तो पूरी सभा ने ‘हर्षध्वनि’ की। ऐसा कई बार हुआ। उनके भाषण का यह अंश अक्सर उद्धृत किया जाता है पर आधा अधूरा।
उसका प्रासंगिक अंश इस प्रकार है-‘हम लोग, जो यहां सभा में समवेत हैं, अवश्य ही भारतीय जनता के प्रतिनिधि हैं, पर इस संविधान के अधीन नया चुनाव होने के बाद, जिसमें कि हर बालिग नर-नारी को मतदान का अधिकार होगा, जो सभा बनेगी-उसका नाम कुछ भी हो-वह वास्तविक प्रतिनिधि-मूलक सभा होगी, जिसमें हमारे प्रत्येक वर्ग के लोग आएंगे।
यह उचित है कि इस प्रकार निर्वाचित सभा को यह अवसर मिलना चाहिए कि वह संविधान में इच्छानुसार परिवर्तन कर सके, और संविधान के अनुसार उसको अवश्य ही यह अधिकार दिया जायेगा। पर अपने संविधान को किसी भी हालत में ऐसा अपरिवर्तनशील नहीं बनाना चाहिए जैसा कि अन्य देशों के संविधान हैं जिसमें कि परिवर्तित स्थितियों के अनुसार आसानी से अनुकूल परिवर्तन किए ही नहीं जा सकते।
खासतौर पर आज जबकि समस्त विश्व घोर विप्लव की दशा में है और हम एक द्रुतग्रामी परिवर्तन काल से गुजर रहे हैं, आज हम जो करते हैं, वह हो सकता है कि कल के लिए उपयोगी न हो। इसलिए हमें अपने संविधान को यथासंभव ठोस और बुनियादी तो बनाना ही चाहिए किंतु साथ ही इसे लचीला भी रखना चाहिए और हमें ऐसी सुविधा होनी चाहिए कि कुछ वर्षों तक हम इसमें आसानी से संशोधन कर सकें।’
पंडित जवाहरलाल नेहरू का यह कथन एक दिशा का सूचक है। इससे हर लोकसभा एक पाठ ग्रहण करती रही है। उनका कथन आज भी प्रासंगिक है। वह इस अर्थ में है कि अगर वर्तमान लोकसभा चाहे तो जो भूल हो गई थी, उसे सुधार सकती है। यह मानना उससे भी बड़ी भूल होगी कि 73वें संविधान संशोधन से पंचायत की वह कल्पना साकार हो गई है जिसका सपना महात्मा गांधी ने देखा था।
संविधान सभा के इतिहास में पंचायत की दृष्टि से तीन तारीखें मील का पत्थर बन गई है। पहली तारीख है-8,9 नवंबर, 1948। इन दो दिनों की बहस में पंचायत का प्रश्न अपनी पूरी छटा के साथ छाया रहा। उसका एक परिणाम 22 नवंबर, 1948 को निकला। यह एक ऐतिहासिक तारीख है। तीसरी तारीख है-17 से 26 नवंबर, 1949 की। इन तारीखों में संविधान सभा की बहस बड़ी उत्तेजनापूर्ण थी।
जिन-जिन सदस्यों ने हिस्सा लिया, उन सबने अपने मन के गुबार निकालने में कोई कसर नहीं छोड़ी। डा. भीमराव अंबेडकर से घोर असहमति संविधान सभा में सदस्यों ने पंचायत के सवाल पर व्यक्त की।
4 नवंबर से 9 नवंबर तक जो बहस चली, उसमें डा.अंबेडकर को दामोदर स्वरूप सेठ, पंडित बालकृष्ण शर्मा, प्रोफेसर शिब्बन लाल सक्सेना, एचबी कामथ, लोकनाथ मिश्र, काजी सैयद करीमुद्दीन, डा पीएस देशमुख, अरूण चंद्र गुहा, टी प्रकाशम, के. संतानम, आर.के. सिधवा, अलादि कृष्ण स्वामी आयंगर, प्रोफेसर एनजी रंगा, आर अनंतशयनम आयंगर, महावीर त्यागी, एल कृष्ण स्वामी भारती आदि सदस्यों के तर्कों के वाण झेलने पड़े। इन सदस्यों ने पंचायत के सवाल पर जमीन और आसमान को मिला दिया था।
दामोदर स्वरूप सेठ ने कहा कि ‘एक स्वतंत्र देश का संविधान ‘स्थानीय स्वराज्य’ की नींव पर निर्मित होना चाहिए। यह इस संविधान में दिखाई नहीं दे रहा है।’ शिब्बन लाल सक्सेना ने अपने भाषण के अंत में टिप्पणी की कि ‘संविधान में स्थानीय स्वराज्य को शामिल करना होगा।’ एचवी कामत ने अपने लंबे भाषण में दो अत्यंत महत्वपूर्ण बातें रखी।
पहली यह कि संविधान के प्रारूप में ही दोष है। दूसरी बात उन्होंने जो कही कि प्रारूप बनाने वालों को यह जानने की कोशिश करनी चाहिए थी कि प्राचीन भारत में हमारा राज्यतंत्र किस प्रकार स्वायत्त और आत्मनिर्भर गांवों के आधार पर रचा गया था।
उनके कारण ही कैसे हमारी संस्कृति युगों-युगों से बनी हुई है। इसे जानने के लिए उन्होंने डा. काशी प्रसाद जायसवाल और श्री अरविंद की पुस्तकों को पढ़ने की सलाह दी। ज्यादातर सदस्यों ने कहा कि संविधान का प्रारूप अभारतीय है। संविधान को पिरामिड आकार का होना चाहिए। इसकी आधारशिला ग्राम पंचायतें होंगी।
महावीर त्यागी ने कहा कि डा. अंबेडकर को पता ही नहीं है कि स्वतंत्रता के आंदोलन में गांवों ने कितना बलिदान किया है। एक सदस्य ने पूछा कि व्यक्ति को संविधान में इकाई बनाया गया है वह व्यक्ति गांवों को छोड़कर कहां मिलेगा? पंचायत संबंधी उस बहस को संविधान सभा के दो अग्रणी सदस्यों के. सन्तानम और एम. अनंतशयनम आयंगर ने संभाला।
संविधान के प्रारूप की आलोचना का दूसरा मुद्दा यह था कि उसमें भारत सरकार अधिनियम, 1935 से बहुत बड़ा हिस्सा जस का तस ले लिया गया है। संविधान मौलिक नहीं है। इस पर डा. भीमराव अंबेडकर ने जो कहा, वह चिन्हित करने योग्य है। ‘इस आरोप के संबंध में कि इस प्रारूप में भारत सरकार अधिनियम, 1935 का ही वृहत अंश रख दिया गया है, मुझे क्षमा प्रार्थी होने की कोई आवश्यकता नहीं है।’
डा. अंबेडकर जब यह कह रहे थे तब किसी कांग्रेसी नेता ने यह याद नहीं किया कि कांग्रेस ने तो भारत सरकार अधिनियम, 1935 को 1937 के चुनाव में निर्वाचित प्रतिनिधियों के सम्मेलन में खारिज कर दिया था।
यह प्रस्ताव पारित किया था कि ‘यह सम्मेलन हिन्दुस्तान की जनता की इस राय को फिर दोहराता है कि 1935 का भारत शासन अधिनियम इस ढंग का है कि उससे हिन्दुस्तानी की गुलामी और उसके शोषण की जड़ मजबूत होती है।
उससे हिन्दुस्तान में ब्रिटिश साम्राज्यवाद की नींव मजबूत होती है।’ संविधान सभा में लोकतंत्र पर आम सहमति थी। लेकिन उसके स्वरूप और शासन प्रणाली पर गंभीर मतभेद थे। डा. भीमराव अंबेडकर ने अपने लंबे भाषण में स्पष्ट कर दिया था कि शासन प्रणाली की दृष्टि से भारत का संविधान संसदीय लोकतंत्र की स्थापना करता है।
जो गांधी विचार आधारित शासन प्रणाली बनाने के पक्षधर थे, वे चाहते थे कि गांव सभा का चुनाव वयस्क मताधिकार पर हो। राज्य और केंद्र के लिए चुनाव परोक्ष हो। इसके लिए बिहार से संविधान सभा के सदस्य रामनारायण सिंह ने जो बात कही वह आज उनकी सटीक भविष्यवाणी लगती है। उन्होंने कहा कि ‘डा. अंबेडकर ने सराहना के भाव से संसदीय लोकतंत्र शासन प्रणाली के प्रावधान का उल्लेख किया है।
मुझे विश्वास है कि यह दल शासन को जन्म देगी जो पश्चिम में विफल हो चुका है।’ एम. अनंतशयनम आयंगर और के. सन्तानम ने बहस के बीच एक ही तरह के संशोधन दिए। बिना देर किए बेहिचक डा. अंबेडकर ने सभा को यह कहकर चौंका दिया कि ‘मैं संशोधन को स्वीकार करता हूं।’ इससे संविधान में पंचायत का प्रावधान हो सका।
यहां डा. भीमराव अंबेडकर का उदार मन स्पष्टतया सामने आता है। अपने विचार को दरकिनार कर उन्होंने संशोधन को स्वीकार किया। संविधान सभा की भावना का आदर किया। इससे पंचायत के प्रश्न पर मतदान में जाने की जरूरत नहीं पड़ी। यह बात 22 नवंबर, 1948 की है। इससे संविधान सभा में संतोष का भाव प्रकट हुआ।
जिसके प्रवक्ता बने डा. टी. प्रकाशम। इस तरह बीच का एक रास्ता संविधान सभा में निकला। इससे अनुच्छेद 40 में पंचायतों का उल्लेख हो गया। यह अनुच्छेद कहता है कि राज्य सरकारें ग्राम पंचायतों का संगठन करने के लिए कदम उठाएंगी। उन्हें ऐसी शक्तियां और अधिकार प्रदान करेगी जिससे वे स्वायत शासन की इकाई के रूप में काम कर सकें। इस बारे में केंद्र की नेहरू सरकार और राज्यों की कांग्रेसी सरकारें लंबे समय तक उदासीन रहीं।
संविधान के प्रारूप पर आखिरी पठन के दौरान जो बहस हुई, उसमें डा रघुवीर ने पूछा कि ‘मेरा प्रश्न यह है कि विदेश के लोग अपने-अपने सरकारी तंत्र किस तरह से चलाते हैं इसे देखने के लिए हमारे संविधान के परामर्शदाता सर बी.एन. राव अगर आयलैंड, स्वीट्जलैंड या अमेरिका जा सकते हैं तो हमारे ही देश में उन्हें एकाध व्यक्ति ऐसा नहीं मिला जो यह कह सके कि इस देश के पास भी देने योग्य कुछ है।
इस देश में भी एक राजनीतिक दर्शन था, उसे समग्र देशवासियों ने आत्मसात किया था और इसका सुचारू उपयोग भारत का संविधान निर्माण करने के लिए हो सकता है। मुझे अत्यंत खेद है कि हमने इस वैचारिक पक्ष के संबंध में कुछ भी नहीं सोचा है।’ कमलापति त्रिपाठी ने कहा कि ‘इस संविधान में कुछ भी भारतीय नहीं है। महावीर त्यागी ने कहा कि ‘हमने गांव के लोगों को मत के सिवा और कुछ भी नहीं दिया है।’
अजित निनान का ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ में एक कार्टून छपा है। इसमें जो व्यंग है वह महात्मा गांधी की पंचायत संबंधी अवधारणा पर पूरी तरह घटित हो रहा है। कार्टूनिस्ट ने दिखाया है कि महात्मा गांधी के उपयोग की सारी वस्तुएं एक जगह प्रदर्शित की गई हैं। वह स्थान किसी राजनीतिक दल का है। वह पार्टी 2019 का चुनाव लड़ने के लिए अपनी युवा शाखा को प्रशिक्षित कर रही है। एक बड़ा नेता युवा जमात को प्रदर्शनी दिखाता है और पूछता है कि ये वस्तुएं किसकी हो सकती हैं? युवा कार्यकर्ताओं को कोई सटीक और सही जवाब नहीं सूझता। बेचारे नहीं जानते कि ये वस्तुएं महात्मा गांधी की हैं।
इसी तरह नई पीढ़ी यह भूलती ही जा रही है कि 1947 में गांधी जी सोचते थे कि वे दिल्ली की सत्ता को गांव-गांव पहुंचाएंगे। इसका राजनीतिक और राज्य व्यवस्था की दृष्टि से अर्थ यह था कि वे शासन का आधार गांव को बनाना चाहते थे। शासन के पिरामिड को पलटना चाहते थे।