खेती किसानी तो भारतीय जीवनशैली का एक महत्वपूर्ण अंग था। पग पग पर इसकी निशानियां आपको मिलेगी। पुरखों के किस्से भी उसी अतीत सुनाते हुए मिलेंगे। इसी तरह जाने माने इतिहासकार धर्मपाल की पुस्तक ‘इंडियन साइंस एंड टेक्नालाजी इन दी एटींथ सेंचुरी’ में भारत की उन्नत खेती का वर्णन है। 18वीं शताब्दी में भारत खेती के मामले में बहुत आगे था। धर्मपाल बताते हैं कि पंक्ति में बोने के तरीके को भारत में बहुत कुशल और उपयोगी माना जाता है। आस्ट्रिया में इसका प्रयोग सन 1662 और इंग्लैंड में 1730 में हुआ। हालांकि इसका व्यापक प्रचार प्रसार वहां इसके 50 साल बाद हो पाया। धर्मपाल ने अपनी किताब में इसका विस्तार से वर्णन किया है।
18 वीं शताब्दी के समय मालाबार के इलाके में जो खेती की जाती थी, उसे यूरोप के लोग पिछड़ा हुआ तरीका मानते थे। उनका यह मानना कितना ठीक है? आखिर उनके हल और औजार कैसे थे? यह तो सभी मानते हैं कि पूंजी की कमी भले रही हो लेकिन यहां के लोग खेती के तौर तरीके औरों से बेहतर समझते थे। इसमें भी अलग-अलग मत हैं। जैसे उनका फालवाला हल, सिंचाई के साथ साथ गुजरात और दक्षिण की खेती कैसी थी? यहां पर मालाबार की धान की फसल पर चर्चा भी जरूरी है। बड़े जमींदारों और छोटे जोत के मझोले किसान या फिर खेतिहर मजदूर इन सबकी क्या स्थिति थी।
दरअसल खेती किसानी एक प्रकार की कला है। पेड़, पौधे से फल और अन्न उगाना इस कला का हिस्सा है। इस कला में सभी प्रकार के पेड़, पौधे, फल एवं अनाज उगाना शामिल है। खेती किसानी में पर्याप्त संख्या में औजारों, पशुओं एवं श्रम का उपयोग होता है। 18वीं शताब्दी के समय समझ में आता है कि मौसम और जमीन की तासीर खेती को अधिक श्रमपूर्ण और कष्टप्रद बनाती थी। लेकिन फिर ध्यान में आता है कि मालाबार के उस इलाके में जो पहला किसान रहा होगा उसके सामने कितनी विपरीत परिस्थित रही होगी। उस समय तो न हल रहा होगा और न ही बोझ ढोने के लिए पशु रहे होंगे। ऐसे में यह कहना ठीक है। मानवश्रम ही एक आधार रहा होगा। सही कहें तो यह सभ्यता का प्रस्थान बिंदु है।
दरअसल मालाबार की खेती का इतिहास पुराना है। यहां के निवासियो का यह पसंदीदा व्यवसाय या फिर रोजगार था। इसका प्रमुख कारण उनकी जीवन शैली रही। इसी जीवनशैली का कारण खेती करना उन्हें पसंद था। उनकी जमीन ही उनकी संपत्ति थी। लेखकों के लिए वह एक विषय है। उस पर बात करने में आनंद आता है। सभी स्तरों के लोग उससे परिचित होने में गौरव का अनुभव करते हैं।
उन्होंने खेती के लिए कुछ नियम भी बनाए। जमीन पर खेती करने के लिए भी नियम बनाए। इसके लिए तौर तरीके भी अपनाए। भू-स्वामियों और खेतिहर में अंतर किया गया। यहां किसान को संरक्षण भी प्राप्त था। भू-स्वामी के उपर गलत प्रबंधन के प्रति जिम्मेदारी थी, जबकि किसान को प्रोत्साहित किया जाता था। खेती किसानी के नियम और जमींदार के बीच एक समन्वय स्थापित किया गया। लेकिन यहां भी दोनो के बीच किसान के अधिकारों को कानूनी मान्यता प्राप्त थी।
मालाबार में भू-स्वामी और किसान के कर्तव्य अलग अलग सुनिश्चित किए गए थे। बोर्डी और चिरमिर किसान थे, वे जमीन के दास थे, फिर भी उन्हें कानूनी संरक्षण प्राप्त था। उनके श्रम का मूल्य उन्हें भोजन के रूप में मिलता था। यह प्रथा मालाबार में प्राचीन काल से चली आ रही थी। आज भी इसके उदाहरण देखे जा सकते हैं। कृषि भूमि पट्टे पर देकर भू-प्रबंध की व्यवस्था की जाती है।
यहीं कारण है कि हिन्दुओं के महत्वपूर्ण पाठ विधान में खेती का आदर दिखता है। उनके बैल और गाय के प्रति सम्मान और श्रद्धाभाव भी दिखता है। यह खेती के प्रति उनकी सेवा और श्रद्धा का प्रतीक है। इससे तो इतना पता चल ही जाता है कि उन्होंने उपयोगी और प्रभावी साधनों की व्यवस्था कर ली थी। यही कारण है कि मालाबार में जो लोग यूरोपीय तौर तरीके लाना चाहते थे, उनका विरोध भी हुआ। जो लोग भारतीय खेती के तौर तरीके को भद्दा और घिसापिटा कहते हैं, उनकी यह सोच पूरे भारत में लागू नही होती। मालाबार में खेती के लिए कई प्रकार के यंत्रों का उपयोग होता था। खेती के लिए हल सर्वप्रथम और सबसे महत्वपूर्ण यंत्र था। गुजरात में यह अत्यंत हल्का और सुधरा हुआ था। इसमें किसी भी प्रकार के फाल का उपयोग होता था। इससे खेत में क्यारी एकदम सीधी रेखा में होती थी। फाल गहराई तक जाती थी। अच्छी खेती के लिए यही ठीक था।
मालाबार में हल का रूप लगभग ऐसा ही होता था। अंतर बस इतना था कि उससे थोड़ा हल्का होता। अपेक्षाकृत परिष्क्रित ढंग से बनाया जाता। एक व्यक्ति उसे अपनी पीठ पर लाद कर ले जा सकता। सुगम होते थे। जमीन और किसान के अनुकूल होते थे। पूरे भारत में इन यंत्रों का ढांचा अत्यंत सामान्य होता। जहां भूमि हल्की पत्त्थर रहित और पानी के कारण नरम होती है, वहां किसान की सभी आवश्यकताओं को यह पूरी करता है।
यहां के मौसम में जमीन की उर्वर शक्ति इतनी अधिक थी कि जमींन में जरा सा ही नीचे बीज रखना आवश्यक होता। यदि इसे थोड़ा गहरा नीचे दबाया जाए तो उगने से पहले ही सड़कर नष्ट हो जाएगा या जमीन में नीचे ही पड़ा रहेगा। कई बार बीज बहुत समय तक नीचे दबा पड़ा रहता है। बहुत बाद में वर्षों बाद जुताई से वह ऊपर आ जाता। सूर्य का प्रकाश पाकर इसमें अंकुर फूटने लगता। तथा कोई और व्यवस्था नहीं होने पर वे कुछ जड़ों के रूप में भी उग जाते हैं।
सुहावने एवं सामान्य मौसम में बीज को पाला या ठंढी से बचाना आवश्यक होता था। यह एक महत्वपूर्ण साक्ष्य है कि भारतीय हल इस उद्देश्य के सर्वथा अनुकूल है। क्योंकि इसका फाल ऐसा होता है कि बीज सही जगह पाकर अच्छी और प्रचुर मात्रा में फसल पैदा करता है। इससे और अधिक क्या चाहिए। इसमें अधिक श्रम और पैसा खर्च नहीं करना पड़ता। भारतीय किसान सामान्य रूप से अपना हित अधिक जनता है। वह चतुर और विचारशील होता है। अपनी बात कहने और दूसरे की बात सुनता। उसकी यह विशेषता पूरे भारत में दिखाई देगी। वह अपने तौर तरीके को इसलिए नहीं छोड़ता कि, उसके लिए यह तरीका आसान और उपयोगी है। लेकिन उसे आप यह बताइये कि इस विधि के अपनाने से उसका ही फायदा होगा तो वह उस विधि को सीखकर अपना भी लेगा। चिंतनपूर्ण एवं सैद्धांतिक बाते उसके गले नहीं उतरेगी। इस तरह उसे अपनाने की उसकी फितरत नहीं है। उन्हें वह अपनाएगा भी आखिर कैसे ? लेकिन वह किसी भी ऐसे तरीके को अपनाने से इंकार नहीं करेगा जो किफायती हो। साथ ही उसमे कम श्रम की आवश्यकता भी होती हो। वह परंपरागत तरीके एवं कुछ पूर्वाग्रहों से ग्रसित जरूर है, जिससे उसे बहार निकलना काफी कठिन बात है। लेकिन आप उसे समझाएं कि खेती के तरीके में परिवर्तन करने से उसकी समस्याएं भी कम होगी तथा पैदावार भी अधिक बढ़ेगी तो वह उसे अपना लेगा।
करीब चालीस साल पहले, लोगों को अंग्रेजी हल और कृषियंत्र प्रयोग करने के लिए दिए गए। कुछ सक्रिय मराठा उद्यमियों को इस काम मे लगाया गया। इनके लिए एक गांव बनाया गया। बीज और मवेशी भी उपलब्ध कराया गया। वे अपनी स्वेक्षा और पसंद से करने के लिए तैयार हुए। इस तरीके को अपनाने के बाद उनमें इसके प्रति रूचि बढ़ी। अतः यदि उसमें उनको सफलता प्राप्त नहीं हो तो उसका कारण उसमें उनकी लापरवाही या गलत आचरण जिम्मेवार नहीं। उनके पूर्वाग्रह, आलस्य और उनके जिद को कारण माना जा सकता है। मेरा विश्वास है कि उन्होंने इस कठिन यूरोपीय मशीनों को नकार दिया, इसमें उनका कोई दोष नहीं था।
उन्होंने कहाकि हल बहुत भारी था। श्रमिक और बैल अनावश्यक ही थक जाते थे। इससे काम कम होता था। किसानों ने कहाकि हमारा अपना हल इससे बढ़िया और उपयोगी था। अतः हमें उसी का उपयोग करना चाहिए। यह भी ध्यान में आया कि अंग्रेजी हल बहुत महंगा था। यही आपत्ति यूरोप के अधिकांश मशीनों के बारे में व्यक्त किया गया। मैं यह तो नहीं कहूंगा कि उनका यह प्रयोग निर्णायक था या उनके लिए सीखने जैसा कुछ नहीं था। किन्तु हमारी सिफारिशों को अपनाने के प्रति बेरुखी दिखाने के लिए उनकों अज्ञान एवं दुराग्रही करार देने से पूर्व हमें दो बाते निश्चित करनी होगी। क्या उन्हें इस नई विधि को अपनाने से कम श्रम और कम खर्च में अधिक उपज प्राप्त होगी? तथा हमने अपने सभी साधनों और कौशल का उपयोग करके इस तरीके खेती करना सिखाया है? हमें इस तथ्य पर भी बहुत अच्छी तरह से विचार करना है कि भारत की महत्वपूर्ण फसल धान है। उसके लिए यूरोपीय विधि कितनी अनुकूल है। क्योकि धान की फसल पैदा करने का यूरोपीय के पास कोई अनुभव नहीं रहा है।
औजार की आकृति शक्ति, जमीन और मौसम के अनुकूल होनी चाहिए। रहोड द्वीप का अमेरिकी हल 40 एलबीएस से अधिक वजन का नहीं होता है। अतः इसे अधिक भारी नहीं कहा जा सकता। इसमें कोई फाल नहीं होता। एक व्यक्ति भी आसानी से उठा कर ले जा सकता है। लेकिन यह कहना एकदम तर्कहीन होगा कि इस कारण से वह अतयंत हलकी जमीन को छोड़कर अन्य कही जुताई भी कर लेगा।
कोलकत्ता में गठित कृषक समाज संस्था भूलों को सुधार सकती है। लोगों का ध्यान उपयोगी और नए पौधों की तरफ खींच सकती है। खेती और पशुपालन के तरीके में भी सुधार की ओर लोगों का ध्यान खींच सकती है। लेकिन यह ध्यान रखना पड़ेगा कि भारत में भोजन के लिए नए पौधे की जरूरत नही है। भारत में दुनिया में किसी देश की अपेक्षा अधिक प्रकार के धान का उत्पादन होता था। भारत में स्वादिष्ट कंदमूल का उत्पादन होता था। केला एक ऐसा फल जो अत्यंत पौष्टिक होता। ऐसे में कोई हमें क्या बताएगा।
भारत के कई हिस्सों में आलू की खूब पैदावार होती है। यह ब्राम्हणों का प्रिय भोजन है। घुंइयां भी उतना ही स्वादिष्ट, और पौष्टिक होता है। इसके साथ ही भारत के पास सभी अनाज है। यहां तक की औरों से अधिक। इसलिए यह ध्यान में रखिए कि आप देना क्या चाहते हैं। यह इस पर निर्भर करता है कि उसका स्वाद मुझे अच्छा लगे।
विचार करने पर ध्यान में आता है कि राष्ट्रीय और व्यक्तिगत स्तर पर सबकी अपनी-अपनी पसंद है। अनुभव भी अलग-अलग है। दूसरे मामलों में यूरोप के देश उदाहरण प्रस्तुत कर सकते हैं। भारत के किसान तो उनसे बहुत आगे थे।
मालाबार के बारे में ध्यान में आता है कि धान के पौधों के रोपाई चलन में उसी दौर में रहा। इस विधि से अधिक लाभ होता है। बुआई की जगह रोपाई की विधि इसीलिए अपनाई गई। साथ ही वे खेती के काम में अनेक प्रकार के हल का उपयोग होता था। बुआई वाला हल और सामान्य हल दोनों होते थे। जिनका उपयोग वे बीज और जमीन दोनों के अनुसार करते।
भारत में खेती के लिए अनेक प्रकार के औजारों का उपयोग होता रहा। यह औजार आधुनिक सुधारों के कारण इंग्लैंड में भी उपयोग होने लगा है। वे अपने खेतों की सफाई फावड़े, कुदाली आदि से करते। निराई में भी खरपी जैसे औजारों का उपयोग करते। इससे खरपतवार की निराई हो जाती। खेतों में ढेले तोड़ने के लिए मुंगरी का उपयोग होता रहा। छटाई करने के लिए वे फावड़े कुदाली तथा खुरपी का भी उपयोग करते थे।
परंपरागत खेती के औजारों का कई बार केवल इसलिए विरोध किया जाता है क्योंकि ये साधारण फुहर और असंशोधित होते थे। लेकिन इससे उनकी उपयोगिता कम नहीं हो जाती। साधारण होना कमतर होना कतई नही होता। हमारे अपने कई जिलों में हल काफी पेचीदा और जटिल होता है। इससे उन लोगों को कोई समस्या पैदा नहीं होती। इसी हल के उपयोग की इन्हें आदत हो गई है। हां, हो सकता है कि ये उपकरण हमें बेढंगे लगें, क्योंकि हमें इनके उपयोग की आदत नहीं। लेकिन भारतीय किसान उपयोगी होने के कारण इसे कैसे छोड़ सकते हैं। यही औजार यदि थोड़ा सीधा करके और रंग रोगन करके और अधिक आकर्षक बनाया जाता है, तो वह मूल्यवान बताया जाता। अनुभवी आंखे हमारे कल्पना से आगे जाकर इसे ताड़ लेती है। फिर भी यह अधिकाशतः उपयोगिता के अपेक्षा पसंद और संपन्नता पर निर्भर करता है। भारतीय किसानों की तुलना हमारे अधिक संपन्न किसानों से नहीं की जा सकती है। उन्हें दिखावे को समझने की परख होती है। जो उन्हें अच्छा किसान साबित करता है। हमने भी अपने हलों को अभी अभी रंगना शुरू किया है।
भारतीय किसानों के कुछ औजारों में खामी गिनाई जा सकती है, लेकिन यह भी सत्य है कि भारतीय किसान खेती की कला में औरों से आगे थे। खेत के खर पतवार एवं अनावश्यक जड़ों को उखाड़ने के लिए भारतीय किसान खेत में कई बार सीधी और उसके बाद तिरक्षी जुताई करते थे। इसे वे सूखी जमीन की मिट्टी को ढीली करने के लिए भी करते थे। खेत की मिट्टी को हवा,ओस और बारिस के लिए आवश्यक रूप से खुला रखा जाता था।
भारत में ओस किसी दूसरे देश की तुलना में अधिक पड़ती है। मिट्टी को उर्वर बनाने में इससे बहुत लाभ होता है। खर पतवार भी इससे बड़ी जल्दी एवं आसानी से उगकर बड़े हो जाते हैं। इससे हम खेत की उर्वरता को आसानी से बढ़ा सकते हैं। इसके साथ ही हमें यह भी जानकारी मिलती है कि हमारे पुरखे खेत की जुताई कितनी बार करनी है यह मिट्टी की प्रकृति और फसल के हिसाब से करते थे। कुछ मामलों में खेत कि जुताई तीन चार बार की जाती। कुछ मामले में छह बार के करीब। यह सब मिट्टी और फसल के हिसाब से होती।
भारत में कई जगह एक ही खेत में अनेक किस्म की फसल पैदा की जाती थी। सरसों को गेहूं ,जौ आदि की मेड़ों पर बोते हैं। इसी तरह से जई बोते हैं। राई के साथ मांड या सेम या मटर बोते हैं। मांठ या मक्का बोते है। अनुभव के आधार पर पाया गया है कि इन फसलों को एक ही खेत में खूब अच्छी तरह से न केवल पैदा किया जा सकता है अपितु एक दूसरे को उन्नत भी किया जा सकता है। उदहारण के लिए राई एवं जई को मांढ़ जैसी नाजुक लताओं के सहायतार्थ लगाया जाता है। इन्हें खेत में एक सुनिश्चित अंतराल पर लगाया जाता है। वनमेथी और राई के मेड़ों पर मक्का लगाया जाता है। भारतीय खेती में यह समानता दिखाई देगी। इसी तरह के प्रयोग उन स्थानों पर किए जा सकते हैं जहां मौसम एवं जमीन उत्कृष्ट हो। भारत में विभिन्न प्रकार के बीज अलग अलग रूप में बुआई वाले हल की सहायता से आसानी से बोए जाते हैं। एक साथ मिलाकर तथा बिखेरकर भी बुआई की जाती है। बाद में इन्हें चारे में भी उपयोग में लाया जाता है।
गुजरात में छोटा गुवार नामक पौधे को गन्ने के फसल के साथ लगाया जाता है। वर्ष के अधिकांश समय यह प्रचंड गर्मी से गन्ने के पौधे को बचाता है। ज्वार और बाजरे को भी साथ में बोया जाता है। अनाज के लिए नहीं अपितु चारे के लिए। चारे के रूप में ज्वार और बाजरा जानवरों के लिए अत्यंत पौष्टिक होता है। यह प्रचुर मात्रा में यहां पाया जाता है। इससे साफ होता है कि भारत के किसान पशुओं को हरा चारा भी खिलाते थे, अच्छी तरह से ध्यान रखतें थे।
अन्य अनाज भी एक साथ तथा अलग अलग बोए जाते। ज्वार, रतिजा एवं घुंघरा को एक साथ बोया जाता। लेकिन अपवाद के तौर पर घुंघरा ज्वार को ही पकने दिया जाता था, बाकी को चारे के लिए काट लिया जाता। इससे यह नही साबित होता कि वे अच्छी पैदावार के लिए खेती नहीं करते। खेती से ही अपने पशुओं को हरा चारा खिलाकर उनकी देखभाल करना भी भारतीय किसानों की विशेषता है। लेकिन गर्मी के दिनों में किसानों को ऐसा करना काफी कठिक होता है। लेकिन वह हार नहीं मानता। वह अपने पशुओं के लिए बहुत संवेदनशील होता है। दूर दराज से घास या वनस्पति खुरचकर लाता है।
भारत के कुछ हिस्सों में घास नहीं होती। लेकिन दूसरे भागों में घास प्रचुर मात्रा में पायी जाती है। भारत का किसान पशुओं के चारे की तैयारी पहले से करके रखता है। सुखी घास को प्रचुर मात्रा में जमा कर लेता है। गर्मी के समय में पशुओं को खिलाने के लिए काम आती है। गुजरात में तथा कुछ अन्य प्रदेशों में यही प्रथा देखी जाती है। सुखी घास दरांती से न काटकर हंसिया से काटी जाती थी। इस घास को सुखा लिया जाता। सुखाने के बाद इसे बैलगाड़ियों में लादकर लाया जाता। घास संग्रह करने की यह गांज या बुझियां दीर्घायात आकार की हमारी ही तरह की होती है, लेकिन प्रायः ये इंग्लैंड की गांज या बुझियां की तुलना में अधिक विस्तृत परिमाप की होती है। कई बार इन बूझियां को छप्पर से ढ़क दिया जाता था। भारत के जिन इलाकों में घास नही होती, वहां जड़े खिलाई जाती है। मशीन या गड़ाशे से काटे हुए ज्वार के साथ खिलाया जाता है। यह पशुओं के लिए बहुत ही पौष्टिक होता। कर्नाटक में भी हमारे अपने लोग पशुओं को इसी तरह का चारा खिलाना पसंद करते हैं।
भारत का किसान कई दलहन की फसलों को पशुओं को खिलाने के लिए उगाते हैं। कुछ जगह किसान गाजर पशुओं के लिए पैदा करते है। उस दौर में जो था आज भी थोड़े हेरफेर के साथ जारी है…