गुजरात में नर्मदा के तट पर सरदार पटेल की 182 मीटर की प्रतिमा का अनावरण स्वतंत्र भारत की एक महत्वपूर्ण घटना है। यह विश्व की सबसे ऊंची प्रतिमा है और अमेरिका के स्टैच्यू आॅफ लिबर्टी से दोगुनी ऊंची है। इस 31 अक्टूबर को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उसका अनावरण किया और उसे एकता की प्रतिमा नाम दिया गया है। स्वतंत्र भारत में सरदार पटेल को सबसे अधिक भारत के एकीकरण के लिए याद किया जाता है।
हमारे इतिहासकारों के नेहरू मोह का ही परिणाम है कि हम अपने हाल के इतिहास को भी ठीक से नहीं समझ पाए। सरदार वास्तव में सरदार थे और नर्मदा के तट पर खड़ी की गई विश्व की सबसे ऊंची प्रतिमा आने वाली पीढि़यों को उनकी याद दिलाती रहेगी।
जब ब्रिटिश राज समाप्त हो रहा था तो देश में लगभग 565 देशी रियासतें थीं। अधिकांश राजा विलय के प्रतिकूल नहीं थे। लेकिन अनेक महत्वपूर्ण रियासतें अपना हानि- लाभ देख रही थीं। उन्हें भारत में विलय के लिए तैयार करना आसान काम नहीं था। स्वयं महात्मा गांधी ने सरदार पटेल से कहा था कि केवल वे ही इस काम को कर सकते हैं। हैदराबाद जैसी रियासतों की एक अलग तरह की समस्या थी। वहां प्रजा मुख्यत: हिन्दू थी, लेकिन सत्ता निजाम के हाथ में थी। पाकिस्तान के नेता उसे अपने साथ रखने की हर कोशिश में लगे थे। सरदार पटेल ने अपने राजनैतिक कौशल, दृढ़ता और संकल्प के बल पर देशी रियासतों का विलय करवाया। पहले भी महात्मा गांधी के बाद वे कांग्रेस के सबसे कद्दावर नेता थे। उसके बाद तो वह लौह पुरुष के रूप में विख्यात हो गए। उनके योगदान को जो महत्व दिया जाना चाहिए था, वह 1950 में उनकी मृत्यु के बाद नहीं दिया गया। वाजपेयी शासन को छोड़कर पिछले सात दशक तक नेहरू का ही गुणगान होता रहा है। नरेंद्र मोदी के शासन काल में अन्य राष्ट्रीय नेताओं का स्मरण करते हुए इस विसंगति को दूर किया जा रहा है। सरदार पटेल की छवि देश के लोगों में इतनी गहरी है कि नेहरू-इंदिरा वंश का लंबा शासन भी उसे लोगों की स्मृति से धूमिल नहीं कर पाया। यह प्रतिमा अपने आप में इंजीनियरिंग का ऊंचा कौशल है। उसके वास्तुकार रामजी सुतार हैं और देश की विख्यात कंपनी लार्सन एंड टूब्रो ने उसे 42 महीने के अल्प समय में बनाकर खड़ा कर दिया।
राष्ट्रीय आंदोलन के दिनों में जवाहरलाल नेहरू जब कांग्रेस की युवा टोली के नेता के रूप में जाने जाते थे, तब सरदार पटेल राष्ट्रीय आंदोलन की सबसे अगली पंक्ति में खड़े थे। 1928 के बारडोली सत्याग्रह ने उन्हें अत्यंत लोकप्रिय बना दिया था। किसानों के इस आंदोलन का नेतृत्व करते हुए ही उन्हें वहां के किसानों ने प्रेम और आदर से ‘सरदार’ कहकर पुकारना आरंभ किया था। जब बारडोली सत्याग्रह के बाद कांग्रेस का महाधिवेशन हुआ तो कांग्रेस की कार्यकारिणी के एक प्रस्ताव के अनुसार उन्हें सम्मानित करने के लिए मंच पर बुलाया गया। सरदार पटेल आम सभाजनों के बीच बैठे थे। वे आए और हाथ जोड़कर केवल इतना कहा कि इस सम्मान के वास्तविक हकदार तो बारडोली के किसान हैं। कार्यकारिणी में जब उन्हें सम्मानित करने का प्रस्ताव आया था तो जवाहरलाल नेहरू ने उसका यह कहकर विरोध किया था कि सरदार एक सामंती सम्मान है। कांग्रेस को किसी को सरदार के रूप में सम्मानित नहीं करना चाहिए। तब कांग्रेस के कई वरिष्ठ नेताओं ने नेहरू के इस बचकाने विरोध पर आश्चर्य व्यक्त करते हुए उन्हें उनकी भूल बताई थी। उन्होंने कहा था कि बल्लभ भाई पटेल को किसानों ने सरदार कहा है, यह किसी राजा-महाराजा का दिया हुआ सम्मान नहीं है।
सरदार पटेल अपनी योग्यता और निष्ठा के कारण 1947 में देश के स्वाभाविक प्रधानमंत्री होते। यह कसक बहुत लोगों को है कि ऐसा नहीं हो सका। बागडोर जवाहर लाल नेहरू के हाथ में गई और ब्रिटिश राज जाने के बाद भी उनका बनाया तंत्र और नीतियां जस की तस बनी रही। 1947 से 1950 के बीच की छोटी-सी अवधि में भी दोनों नेताओं का कई मुद्दों पर टकराव हुआ। कश्मीर, तिब्बत और पहले राष्ट्रपति का चुनाव उनमें प्रमुख है। पहले दो मामलों में नेहरू अपनी नीति पर अड़े रहे, लेकिन पहले राष्ट्रपति के चुनाव में कांग्रेस के विशाल बहुमत की वे उपेक्षा नहीं कर सके और सरदार पटेल की बात मानकर उन्हें राजेंद्र बाबू को राष्ट्रपति बनवाना पड़ा। कांग्रेस महासमिति ने लगभग एक मत से राजेंद्र बाबू को पहला राष्ट्रपति बनाए जाने का प्रस्ताव किया था।
जवाहरलाल नेहरू राजेंद्र बाबू को पसंद नहीं करते थे। उन्होंने विचित्र तर्क दिया कि देश का पहला राष्ट्रपति ऐसा व्यक्ति होना चाहिए, जिसकी ख्याति अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हो। इस कसौटी पर राजगोपालाचारी खरे उतरते हैं। इसलिए नेहरू चाहते थे कि उन्हें ही राष्ट्रपति बनाया जाए। कांग्रेस के अन्य सभी नेता इस तर्क से आचंभित थे। उन्होंने कहा कि राजा जी ने 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन का विरोध किया था। ऐसे व्यक्ति को वे पहला राष्ट्रपति नहीं बनने देंगे। नेहरू ने सीधे राजेंद्र बाबू से आग्रह किया कि वे अपना नाम वापस ले लें। उस समय के नेताओं में शील बहुत था। राजेंद्र बाबू ने अपना नाम वापस ले लिया। जब नेहरू ने पटेल को यह बताया तो पटेल ने राजेंद्र बाबू के समर्थन में खड़े कांग्रेस के नेताओं से कहा कि जब दूल्हा ही नदारद है तो वे बारात कैसे निकालें। लेकिन पटेल को वास्तविक कारण पता लगा तो वे बहुत खिन्न हुए। उन्होंने नेहरू से दो टूक शब्दों में कहा कि कांग्रेस महासमिति की इच्छा का अनादर करना उचित नहीं होगा। काफी हीला-हवाली के बाद नेहरू को झुकना पड़ा। राजेंद्र बाबू से नेहरू की सबसे बड़ी शिकायत यह थी कि उनका झुकाव हिन्दू परंपराओं की ओर है। यह बात हिन्दू कोड बिल पर राजेंद्र बाबू के अड़ते समय स्पष्ट भी हुई। एक बार राजेंद्र बाबू ने राष्ट्रपति के रूप में काशी जाकर 11 पंडितों के चरण पखारे थे। यह भारत की पुरानी परंपरा रही है और उसका आशय ज्ञानशक्ति को राजशक्ति से ऊपर रखना है। नेहरू को इस बात का पता लगा तो उन्होंने बहुत बुरा माना। इसके अलावा पटेल जब भारतीय राज्य की ओर से सोमनाथ मंदिर के पुनर्निर्माण का आग्रह लेकर नेहरू के पास गए थे तो उन्होंने अपना विरोध दर्ज किया था। लेकिन पटेल देश के स्वाभिमान के इस मुद्दे पर अडिग रहे और मंत्रिमंडल के निर्णय के आधार पर सोमनाथ मंदिर का पुनर्निर्माण हुआ।
यह महत्वपूर्ण बात है कि जवाहरलाल नेहरू के लिए स्वतंत्रता का प्रतीक मुगल सत्ता की पहचान रहे लालकिले से झंडा फहराना था। जबकि पटेल के लिए स्वतंत्रता का प्रतीक सोमनाथ मंदिर का पुनर्निर्माण था। यह सब जानते हैं कि सरदार पटेल शेख अब्दुल्ला को विश्वसनीय नहीं मानते थे। लेकिन नेहरू उनको आगे बढ़ा रहे थे और उन्होंने कश्मीर रियासत को उन्हें प्रधानमंत्री बनाने के लिए विवश कर दिया था। पटेल के विमत के कारण नेहरू ने जम्मू-कश्मीर संबंधी नीति निर्धारण का काम गृह मंत्रालय से लेकर अपने पास कर लिया था। उसका परिणाम क्या हुआ, यह सब जानते हैं। नेहरू-माउंटबेटन के गठजोड़ के कारण देश को कश्मीर का 40 प्रतिशत भाग गंवाना पड़ा, जो आज पाकिस्तान के हाथ में है। सरदार पटेल कश्मीर समस्या को संयुक्त राष्ट्र में भी ले जाने के खिलाफ थे। जवाहरलाल नेहरू की गलत कश्मीर नीति के कारण देश को कितना झेलना पड़ा है, यह आज सबकुछ स्पष्ट है। लेकिन उस समय सरदार पटेल ने केवल यह टिप्पणी की थी कि जवाहर एक दिन रोएगा। वही हुआ और स्वयं जवाहरलाल नेहरू को शेख अब्दुल्ला को जेल भिजवाना पड़ा। पर नेहरू वंश का शेख अब्दुल्ला से मोह बना रहा और बाद में फिर वे सत्ता में बिठा दिए गए। कश्मीर में राष्ट्रवादियों की निरंतर अनदेखी होती रही और अब्दुल्ला परिवार दिल्ली के नेहरू वंश के कर्णधारों का दुलारा बना रहा। सरदार पटेल ने 1949 में ही तिब्बत संबंधी चीन के मंसूबों के बारे में जवाहर लाल नेहरू को आगाह किया था। उन्होंने बाकायदा एक नोट लिखकर नेहरू से कहा था कि चीन तिब्बत को हड़पना चाहता है। यह भारत की सुरक्षा के लिए बहुत खतरनाक होगा। उस समय ल्हासा में चीन के मुकाबले भारत की उपस्थिति अधिक थी। लेकिन नेहरू साम्यवाद के प्रति अपने मोह के कारण साम्यवादी चीन को लेकर मोहग्रस्त बने रहे। पूरी दुनिया भारत की ओर देख रही थी, लेकिन नेहरू ने चीन की सेनाओं के तिब्बत में प्रवेश को विरोध करने लायक भी नहीं माना और अंतत: तिब्बत पर चीन के नियंत्रण को स्वीकार कर लिया। कश्मीर और तिब्बत के मामले में नेहरू की जो भूमिका थी, उसे लेकर उनकी राष्ट्रीय निष्ठा पर सवाल उठाया जाना चाहिए। प्रकट रूप में वे सामंतवाद के खिलाफ थे। लेकिन प्रधानमंत्री के रूप में उनका व्यवहार कम सामंती नहीं था। उन्होंने सरदार पटेल तक की राय को महत्व नहीं दिया। चीन ने 1962 में जब भारत पर आक्रमण किया तो जवाहर लाल नेहरू सकते में थे।
आज चीन हमारी सबसे बड़ी समस्या है। तिब्बत हड़प कर वह हमारी सीमाओं तक आ गया है। शुरू से पाकिस्तान की पीठ पर हाथ रखकर उसने हमारी समस्या दोगुनी कर दी है। सरदार पटेल की दूरदर्शिता ही थी कि वे 1949 में ही चीन के प्रति देश को आगाह कर रहे थे। लेकिन नेहरू ही नहीं उनके बाद की कांग्रेसी सरकारों ने भी कभी चीन की चुनौती को ठीक से समझकर देश को सामरिक रूप से तैयार करने की ओर समुचित ध्यान नहीं दिया। इतिहास लेखन में भी सरदार पटेल की दृष्टि उपेक्षित ही रही है। यह हमारे इतिहासकारों के नेहरू मोह का ही परिणाम है कि हम अपने हाल के इतिहास को भी ठीक से नहीं समझ पाए। सरदार वास्तव में सरदार थे और नर्मदा के तट पर खड़ी की गई विश्व की सबसे ऊंची प्रतिमा आने वाली पीढि़यों को उनकी याद दिलाती रहेगी।