‘भारत छोड़ो आंदोलन’ को समग्रता में देखेंगे तो पता चलेगा कि नौसेना विद्रोह उसका विस्तार था। वह अंग्रेजों के लिए एक चेतावनी थी। ऐसी कि अब वे यहां नहीं रह सकते हैं। यह जानना जरूरी है कि उस दिन हुआ क्या? उनके कारण देश एक साल पहले आजाद हुआ। अंग्रेज तो 1948 में जाना चाहते ही थे।
भारत छोड़ो आंदोलन का विस्तार कहां तक था? इसका पूरा अध्ययन होना है। अब तक हुआ नहीं है। हो तो एक नया ऐतिहासिक तथ्य मिल सकेगा। उसकी तारीख है-18 फरवरी, 1946। इसे नौसेना विद्रोह के रूप में आधा-अधूरा ही जाना गया है। पूरा सच खोजा जाना है। कुछ नई बातें पिछले दिनों मालूम पड़ी हैं। उसमें सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है एक कबूलनामा। वह ब्रिटेन के प्रधानमंत्री रहे क्लीमेंट एटली का है। एक धारणा बनी हुई है कि वे भारत के समर्थक थे। इसलिए द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद लेबर पार्टी की सरकार के आने से भारत को जल्दी आजादी मिल गई। यह एक हद तक ही सच है। पूरा सच नहीं है।
तो पूरा सच क्या है? यह अभी भी इतिहास के अंधेरे में है। उसे खोजा जाना है। जिसमें कबूलनामे से मदद मिलेगी। घटना इस तरह से है कि आजादी के कुछ साल बाद एटली भारत आए। वे निजी यात्रा पर थे। कलकत्ता के राज निवास में ठहरे थे। एक समारोह में उनसे कलकत्ता हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश रहे पीवी चक्रवर्ती ने पूछा कि क्या ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ के कारण अंग्रेज जल्दी चले गए? एटली ने जो जवाब दिया वह दो अर्थी है। उनका जवाब पहले पढि़ए- ‘वह मुख्य कारण नहीं है।’ फिर यह भी बताया कि मुख्य कारण क्या था। कहा-‘नौसेना विद्रोह के कारण हमें जल्दी करनी पड़ी।’
इससे कुछ लोग यह अर्थ निकाल रहे हैं कि अंग्रेज गए इसलिए क्योंकि नौसेना विद्रोह ने उनके पांव उखाड़ दिए। ऐसा अर्थ निकालना ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ को कमतर आंकना है। कुछ इतिहासकार इसमें लग गए हैं। इस साल 18 फरवरी को ऐसे अनेक आधे-अधूरे तथ्य के लेख छपे हैं। ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ को समग्रता में देखेंगे तो पता चलेगा कि नौसेना विद्रोह उसका विस्तार था। वह अंग्रेजों के लिए एक चेतावनी थी। ऐसी कि अब वे यहां नहीं रह सकते हैं। यह जानना जरूरी है कि उस दिन हुआ क्या?
बात है, 18 फरवरी, 1946 की। घटना मुंबई में घटी। जिसमें दो हजार नौसैनिकों ने हिस्सा लिया। वे बगावत पर उतरे। उनकी उम्र 17 से 24 साल के बीच थी। घटना की शुरुआत नौसेना दिवस पर हुई। वह 1 दिसंबर, 1945 को थी। उन युवा नौसैनिकों ने अपने को पूरे भारत की बगावत से जोड़ लिया। तब आजाद हिन्द फौज के सैनिकों पर लालकिले में मुकदमा चल रहा था। पूरे देश की भावना उनके साथ थी। राष्ट्रीयता की एक लहर चल रही थी। उस पर वे भी सवार हुए। उन नौसैनिकों ने ब्रिटिश झंडे को टुकड़े-टुकड़े कर दिया। यह थी शुरुआत।
उनका नेता था, आर.के. सिंह। वह नेताजी सुभाष चंद्र बोस को अपना आदर्श मानता था। उसने अपने साथियों को समझाया। उसका साथ दिया 22 साल के नौजवान बलाल चंद्र दत्त ने। जो कोलकाता के अमीर परिवार से था। इन दोनों ने मिलकर नौसेना में ‘आजाद हिन्द’ बनाई। उसी के झंडे तले घटनाएं घटती गई। शुरुआत मुंबई के नौसैनिक प्रशिक्षण जहाज ‘तलवार’ से हुई। एक दिन अंग्रेज अफसरों ने देखा कि नौसैनिकों की बैरकों की दीवार पर नारे लिखे हैं। वे नारे चौंकाने वाले थे। नारे थे-‘भारत छोड़ो’, ‘साम्राज्यवाद का नाश हो’ और ‘अंग्रेजों को मारो’। इन नारों से आतंक छा गया।
खबर लदंन पहुंची। जो रिपोर्ट बनी वह अंग्रेजों की चिंता को बढ़ाने वाली थी। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान नौसेना का विस्तार किया गया था। देश के हर कोने से युवा नौसेना में भर्ती हुए थे। वे समुद्री जहाजों की एकांत दुनिया में ही नहीं रमे। उनका सीधा संबंध बाहर आजादी की आखिरी लड़ाई से जुड़ा हुआ था। जब देखा कि यही समय है और उनका विद्रोह ब्रिटिश राज के कफन में आखिरी कील बन सकता है, तो वे सोच-समझकर विद्रोह पर उतरे। क्या उन्हें अच्युत पटवर्धन ने प्रेरित किया? यह अज्ञात सा है। इतना ही पता है कि नौसैनिकों के समर्थन में जब मुंबई की सड़कों पर नागरिक मार्च हुआ तो उसका नेतृत्व अच्युत पटवर्धन वगैरह कर रहे थे।
विद्रोह मात्र एक जहाज पर ही नहीं हुआ। वहां से शुरू अवश्य हुआ। लेकिन देश के सभी बंदरगाहों पर खड़े जहाज उसमें शामिल हो गए। करांची से कलकत्ता तक खड़े नौसेना के 78 जहाजों से बगावत की लपटें उठी। मुंबई के 22 नौसेना जहाज भी उसमें शामिल थे। उस आग को बुझाने के लिए लंदन से ब्रिटिश साम्राज्य का सबसे बड़ा युद्ध पोत चल पड़ा। उससे बेपरवाह 22 हजार नाविक भी बगावत में शामिल हो गए। उनके समर्थन में तीन लाख मजदूर खड़े हुए। वे काम पर नहीं गए। जनता ने ब्रिटिश साम्राज्य से एक बार फिर लोहा लिया। उसमें हिन्दू और मुस्लिम एक थे। नौसेना के जहाजों के मस्तूलों पर वह दिख रहा था। जहां तिरंगा भी था और दूसरे झंडे भी थे। विद्रोहियों के एक समुदाय का नेतृत्व एम. एस. खान कर रहे थे।
उस विद्रोह को शांत करने के लिए हर तरफ से प्रयास हुए। पहल अंग्रेजों ने की। अगले ही दिन ब्रिटिश संसद में 19 फरवरी, 1946 को लार्ड पैथिक लारेंस ने घोषणा की कि कैबिनेट मंत्रियों का एक विशेष मिशन भारत जाएगा। जो आया वह कैबिनेट मिशन कहलाया। दूसरी तरफ महात्मा गांधी बीच में पड़े। उन्होंने सरदार वल्लभ भाई पटेल को सुलह के काम में लगाया। उन्होंने विद्रोही नौसैनिकों के नेताओं से बात की। इसका परिणाम यह हुआ कि वे अपने बैरकों में वापस लौटे। हर विद्रोह अपनी बलि लेता है। ऐसा हो नहीं सकता था कि नौसेना विद्रोह यूं ही समाप्त हो जाए। उसमें करीब तीन सौ नागरिक मारे गए। घायलों की संख्या सैकड़ों में थी। वह विद्रोह पांच दिन चला। जिसकी तैयारी महीनों चली थी। 23 फरवरी, 1946 को नौसैनिकों ने सरदार वल्लभ भाई पटेल की अपील पर समर्पण किया। उन अनाम नौ सैनिकों की देशभक्ति को हमेशा याद रखा जाएगा। उनके कारण देश एक साल पहले आजाद हुआ। अंग्रेज तो 1948 में जाना चाहते ही थे।