वैचारिक उपनिवेश का नया नाम है आधुनिकता

 

रामबहादुर राय

हर समय की अपनी समस्याएं होती हैं, जिनकी जड़ें नजदीक या दूर के इतिहास में पाई जाती हैं। इसलिए उस समय पर ध्यान दिया जाना चाहिए। यह जरूरी भी है। आज की ज्यादातर समस्याओं की जड़ में हमारा औपनिवेशिक कालखंड है। ब्रिटिश साम्राज्य की ताकतों ने भारत पर कब्जा जमाया। फिर राज-काज, प्रशासन, पर्यावरण, परिस्थितिकी, शिक्षा, भाषा, कला-साहित्य, धर्म की समग्र व्यवस्था और जीवन शैली पर अपनी औपनिवेशिकता के जरिए विजातीय मूल्यों और संरचनाओं को थोपने की प्रक्रिया प्रारंभ की। वह 18वीं और 19वीं सदी में शुरू हुई। हम 21वीं सदी में हैं। पर उसका कुप्रभाव और कुपरिणाम बना हुआ है।

1935 का अधिनियम औपनिवेशिक शासन को स्थाई बनाने की एक संवैधानिक व्यवस्था थी। अंग्रेजों का दावा था कि इस अधिनियम से सुधार की प्रक्रिया बढ़ेगी। भारतीय स्वशासन के लिए तैयार होंगे। वास्तव में वह एक विकृत संविधान था। उसके ही तीन चौथाई हिस्से को आजादी के बाद संविधान सभा ने स्वीकार कर लिया। उसकी विकृतियां ही आज देश और समाज के आचार और व्यवहार में आ गई हैं।

लैटिन भाषा का एक शब्द है-‘कालोनिया’। उसी से ‘कालोनी’ यानी ‘उपनिवेश’ शब्द बना है। जिसका मतलब होता है, ऐसी जायदाद जिसे योजनाबद्ध ढंग से विदेशियों के बीच कायम किया जा सके। उपनिवेश की एक मानसिकता होती है। जैसे कि स्वामित्व के लिए एक भूखे व्यक्ति में होती है। यह समान मानसिकता का भी प्रश्न है। जिसके लक्षणों में नस्लवाद, विदेशी रहन-सहन, यूरो केंद्रीयता और असहिष्णुता का भाव प्रधान होता है।

उपनिवेशवाद का इतिहास साम्राज्यवाद के इतिहास के साथ अनिवार्य रूप से जुड़ा हुआ है। उपनिवेशवाद का भारत में इतिहास ईस्ट इंडिया कंपनी के पहले गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स से प्रारंभ होता है। उसके ही निर्देश पर 18वीं सदी में ग्यारह पंडितों को इकट्ठा करके हिन्दू विधि संग्रहित करने की पहली कोशिश हुई। दस्तावेजों में इसके प्रमाण हैं। यह प्रमाण भी मिलता है कि अंग्रेज अफसर पंडितों को पुरोहित और धर्माचार्य नहीं मानते थे, वकील मानते थे। अंग्रेजों ने अपनी नासमझी में जो गलती की, उसे हम सही मान बैठे हैं। अंग्रेजों को हिन्दू व्यवहार के बारे में कुछ पता नहीं था। किस आधार पर हिन्दुओं के मामले निपटाएं, यह उनकी उस समय की सबसे बड़ी उलझन थी। उन्हें पुराने और नए टेस्टामेंट का तो पता था। लेकिन हिन्दू विधि के बारे में वे अंधेरे में थे। जो थोड़ा बहुत वह खोज सके, उसे संस्कृत से फारसी में कराया। हमारे पीड़ितों से पूछा कि हिन्दू विधि क्या है और किस ग्रंथ में है। पीड़ितों को सूझा कि हो न हो यह मनुस्मृति होना चाहिए।

इस तरह ग्यारह पंडितों को एकत्र कर हिन्दू विधि संग्रहित करने की कोशिश हुई। कुछ दिनों बाद उस अंग्रेज को समझ में आने लगा कि हिन्दू ग्रंथों में टीका-टिप्पणी ऐसी है कि एक ही बात की कई व्याख्याएं उनमें की गई हैं। वे चकराए। फिर संस्कृत सीखी। वे भाषा शास्त्री बने। एशियाटिक सोसायटी के संस्थापक हुए। उन्होंने ही मनुस्मृति का अंग्रेजी में पहला अनुवाद किया। जिसे पढ़कर यूरोपीय विचारकों की भारत में रुचि बढ़ी। जिनका मैं हवाला दे रहा हूं वे कोलकाता में न्यायाधीश रहे विलियम जोन्स हैं। जो भ्रम और भ्रमित धारणा मनुस्मृति के बारे में उस समय थी, वह बढ़ी है।

विलियम जोन्स की समस्या उनका दिमाग था। सोचने का ढंग था। वे एक खास तरह से सोचने के अभ्यस्त थे और उसी तरह काम किया। पंडितों से पूछा। फिर उसको आधार बनाया। अनेक व्याख्याओं से वे समस्याग्रस्त हो गए। समस्या क्या थी? हिन्दू धर्म का कोई चर्च नहीं था। कोई एक धर्म ग्रंथ नहीं था। इसका दोहरा परिणाम हुआ। अंग्रेज अपनी ऊटपटांग व्याख्या को सही बताने लगे। उसे ही प्रामाणिक कहने लगे। दूसरी तरफ हमारे समाज में ऐसे लोग निकले जो मानने लगे कि गोरे कह रहे हैं तो वे ठीक ही कह रहे होंगे क्योंकि वे हमारे हितैषी हैं। इसे थोड़ा समझें। उस समय हमारे यहां एक समूह था, जो अंग्रेज जैसा होकर भारत के पुनर्निमाण की बात कर रहा था। यह भाव हमारे अंदर गहरा होने लगा और यही भाव दरअसल हमारे अंदर औपनिवेशिकता को जन्म देता है। औपनिवेशिकता को और क्या चाहिए! अगर उसकी बात को आप गंभीरता से लेने लगे तो उसकी राह आसान हो जाती है। मानसिक गुलामी थोपने में बाधाएं कम आती हैं। अंग्रेजों में कुछ ऐसे भी थे जो हिन्दुओं को उसकी प्राचीनता और महानता की याद दिलाना और अनुभूति कराना भी चाहते थे। वह आपाधापी का दौर था। जिसमें मनु के धर्मशास्त्र को प्राचीन भारत में कानून व्यवस्था का आधार मान लिया। यह बताना जरूरी है और जानना भी हमारे लिए जरूरी है कि मनुस्मृति में और कुछ भी रहा हो लेकिन किसी कानून-व्यवस्था का संकेत मात्र भी उसमें नहीं मिलता। विडंबना यह है कि उसी आधार पर अंग्रेजों ने भारत की जातीय व्यवस्था को अपने तरीके से समझा और औपनिवेशिक हित के लिए मनमाने तरीके से परिभाषित करना शुरू किया। अंग्रेजों ने धर्म की जो पहचान की वह भारतीय राजनीति का ट्रेडमार्क हो गया।

भारत की समाज व्यवस्था पुरानी और परंपरा आधारित रही है। कहते हैं कि विलियम जोन्स भारत का बुरा चाहने वाले लोगों में नहीं थे। उन्हें भी एक सरल और सीमित परिभाषा चाहिए थी। जिसे जनगणना के जरिए पक्का करने का सिलसिला शुरू किया गया। यह वह दौर था, जब अंग्रेज अपनी श्रेष्ठता के भाव में मदमस्त होकर भारत को सभ्य बनाने के प्रयास में लगे थे। ब्रिटिश शासन का एक चेहरा दिखाने के लिए था तो दूसरा चेहरा भारत में अपने पैर मजबूत करने के लिए होता था। दो चेहरे थे। हम दूसरे चेहरे पर ध्यान दें तो समझ सकेंगे कि कैसे आज भी हम स्वराज्य की बजाए अंग्रेजों के रास्ते पर ही चल रहे हैं। औपनिवेशिकता की संरचनाओं को ही केवल बनाए और बचाए नहीं रखा है, उसकी स्थापनाओं को हमने अपने गले का हार बना लिया है।

मानना पड़ेगा कि अंग्रेज 200 साल में भारत को पूरी तरह बदलने में सफल हो गए। उसकी शुरुआत 1740 से होती है। जब अंग्रेजों ने राजनैतिक और सैनिक विस्तार की प्रक्रिया प्रारंभ की। उसका दूसरा दौर 1 नवंबर, 1858 को महारानी विक्टोरिया की घोषणा से प्रारंभ हुई। ध्यान देने की बात यह है कि अगले साल यानी 1859 में ही विकासवाद का सिद्धांत आया। वह क्या है? उसका सीधा-सा अर्थ है कि जो सर्वोत्तम होता है, वही जीतता है। उसी समय विज्ञान और एंथ्रोपोलॉजी का नया विज्ञान आकार ले रहा था। अंग्रेजों ने अपनी नीतियों के निर्माण में उन्हें आधार बनाया। 1857 से पहले अंग्रेजी अभिलेखों में दो शब्दों के प्रयोग मिलते हैं-‘हिन्दुस्तान’ और ‘भारतवर्ष’। 1839 में जे.सी. मार्शमैन ने इतिहास की एक पाठ्य-पुस्तक लिखी। उसका शीर्षक है-‘भारतवर्ष का इतिहास’। लेकिन 1858 के बाद धीरे-धीरे ‘भारतवर्ष’ और ‘हिन्दुस्तान’ शब्दों का प्रयोग अंग्रेजों ने बंद कर दिया, उसकी जगह ‘इंडिया’ शब्द का प्रयोग किया जाने लगा। यह एक महत्वपूर्ण परिवर्तन था जिसे हमें ध्यान में रखना चाहिए। उससे पहले अंग्रेज यह मानते थे कि भारत उससे भिन्न एक विशिष्ट राष्ट्र है। 1857 के बाद उनकी स्थापना बदल गई। वे कहने लगे कि भारत एक भूखंड है, राष्ट्र नहीं है। अंग्रेजों की इस स्थापना को आज भी हमारे देश में बौद्धिकों का एक वर्ग तोता की तरह रटता रहता है। यह वर्ग अंग्रेजों को जाने-अनजाने अपना स्वामी मानता है। लेकिन प्रगतिशील होने का भ्रम भी पालता है।

अंग्रेजों ने अपनी धारणा को और पुष्ट करने के लिए जनगणना शुरू की। उसके माध्यम से उन्होंने हमारे लिए एक आईना बनाया। हम अंग्रेजों के बनाए आईने में अपना वह चेहरा देखने लगे जो हमें वे दिखाना चाहते थे। उनकी परिभाषाओं और अवधारणाओं के अनुसार, हमने अपने को समझना शुरू किया। अपनी परिभाषाओं और अवधारणों के लिए उन्होंने अनेक पैमाने बनाए। उसके लिए भरपूर जानकारी एकत्र की। उसी का दस्तावेज बना ‘गजेटियर’। जनगणना की रिपोर्ट बनाई और अंत में भाषाई सर्वेक्षण कराया। उसी सामग्री का आज भी राजनीति में और शासन में प्रयोग किया जा रहा है। यह सब करने का एक उद्देश्य था। वे अपने साम्राज्य को मजबूत और स्थाई बनाना चाहते थे। उनके दृष्टिकोण में दो बातें हैं। पहली बात यह है कि भारत में छोट-छोटे स्वार्थों वाले समूह रहते हैं। कोई सुगठित समाज नहीं रहता। इन समूहों में टकराव है। जहां टकराव है वहां एकता कैसे हो सकती है? एकता तो हमारे रहने के कारण है। यह अंग्रेजों का दावा था।

अंग्रेजों की इस कोशिश में एक साम्राज्यवादी और औपनिवेशिक दृष्टि है। उसके दो पक्ष हैं। एक यह साबित करना कि भारत में कोई सुगठित समाज नहीं रहता है। एक बंटा हुआ समाज रहता है। दूसरा यह कि भारत नाम की कल्पना तो कभी थी ही नहीं। हम यानी अंग्रेज पहली बार भारत को इंडिया बना रहे हैं। इंडिया की अवधारणा दे रहे हैं। कभी हर भारतवासी हिन्दू माना जाता था। वह भौगोलिक और सांस्कृतिक पहचान का पर्याय था। लेकिन जनगणना की नीति से अंग्रेजों ने हिन्दुओं को संकीर्ण धार्मिक पहचान दी। वह ईसाई और मुसलमान के बराबर एक इकाई मान लिया गया।

अंग्रेजों ने जो जनगणना चलाई उसी को ज्यों का त्यों भारत सरकार भी चला रही है। 1871 से 1941 तक अंग्रेजों ने भारत को बांटने के लिए जनगणना नीति का प्रयोग किया। उसका परिणाम यह हुआ है कि जो हिन्दू शब्द पूरे समाज को जोड़ता था, अब वह विभाजक बना दिया गया है। अंग्रेजों ने जो अंतिम सुधार प्रक्रिया शुरू की उसे भी समझने की जरूरत है। जिसके बारे में राम माधव ने चिंता व्यक्त की है। इसके बारे में मैं भी आपसे कुछ बातें कहूंगा। अंग्रेजों ने जो प्रक्रिया शुरू की वह संविधानवाद है। हम संविधानवाद के चक्कर में फंसे हुए हैं। संविधानवाद की चरम परिणति 1935 के अधिनियम में होती है।

हम इस भ्रम में हैं कि कांग्रेस की बाबत गांधी और नेहरू दो हैं। इस भ्रम को इतिहास ने बढ़ाया है। हमारी समझ साफ हो तो इसे दूर कर सकते हैं। तथ्य यह है कि कांग्रेस की दृष्टि से गांधी और नेहरू एक थे और अंत तक वे एकरूप बने रहे। घटनाएं इसकी गवाह हैं। कुछ घटनाओं को बता दूं तो बात साफ हो जाएगी। 1934 का वर्ष था जब गांधी जी कांग्रेस की सदस्यता छोड़ देते हैं। लेकिन 1935 का अधिनियम आते की गांधी जी ही हैं जिन्होंने  कांग्रेस को चुनाव की राजनीति में उतरने के लिए प्रेरित किया। हालांकि वे उससे पहले एक दशक तक चुनाव की राजनीति में कांग्रेस के पड़ने के विरोध में थे। उन्होंने नेहरू के आग्रह पर यह कदम पलटा। दूसरी तरफ जवाहरलाल नेहरू हैं जो कांग्रेस के अधिवेशनों में अध्यक्ष के तौर पर प्रस्ताव रखते रहे कि 1935 का अधिनियम हमारे ऊपर साम्राज्यवाद ने थोपा है। उनकी नजर में तब वह एक घटिया औपनिवेशिक दस्तावेज था। उनके उस सयम के भाषणों में यह सब है। जवाहर लाल नेहरू ने तब देश से वादा किया कि सत्ता में आने पर ‘गवर्नमेंट आॅफ इंडिया एक्ट 1935’ को वे समाप्त कर देंगे। हमें यह पूछना और जांचना चाहिए कि उस वादे का क्या हुआ?आप गांधी और नेहरू को अलग मत मानें इसलिए क्योंकि गांधी ने ही कांग्रेस को कहा कि चुनाव लड़ो। अगर कांग्रेस चुनाव नहीं लड़ती तो कांग्रेस मर जाती।

 

1935 का जो अधिनियम था, वह वास्तव में औपनिवेशिक शासन को किसी भी रूप में स्थाई बनाने की एक संवैधानिक व्यवस्था थी। साम्राज्यवादी ताकत का दावा था कि उस अधिनियम से सुधार की प्रक्रिया बढ़ेगी। भारतीय स्वशासन के लिए तैयार होंगे। वास्तव में वह एक विकृत संविधान था। उसके ही तीन चौथाई हिस्से को आजादी के बाद संविधान सभा ने स्वीकार कर लिया। उसकी विकृतियां देश और समाज के आचार और व्यवहार में उतर कर आ गई हैं। ऐसा भी नहीं है कि संविधान सभा में इसकी चेतावनी न दी गई हो। संविधान के तृतीय पठन के समय जो चर्चा हुई थी उसमें हिस्सा बहुतों ने लिया, लेकिन डॉ. रघुवीर ने जो उस समय कहा वह यहां याद करने की जरूरत है। ‘मेरा प्रश्न यह है कि विदेश के लोग अपने-अपने सरकारी तंत्र किस तरह से चलाते हैंइसे देखने के लिए हमारे संविधान के परामर्शदाता सर बी.एन. राव आयरलैंंड, स्वीट्जरलैंड या अमेरिका जा सकते हैं तो हमारे ही देश में उन्हें एकाध व्यक्ति ऐसा नहीं मिला जो यह कह सके कि इस देश के पास भी देने योग्य कुछ है। इस देश में भी एक राजनीतिक दर्शन था, उसे समग्र देशवासियों ने आत्मसात किया था और उसका सुचारू उपयोग भारत का संविधान निर्माण करने के लिए हो सकता है। मुझे अत्यंत खेद है कि हमने इस वैचारिक पक्ष के संबंध में कुछ भी नहीं सोचा है।’

 

यहां हमें यह याद रखना चाहिए कि  1997 में अटल बिहारी वाजपेयी ने एक व्याख्यान दिया। वह डॉ. राजेंद्र प्रसाद स्मारक व्याख्यान है। जिसे रेडियो ने प्रसारित किया। भाषण की वह पुस्तिका आज भी भारतीय जनता पार्टी के दफ्तर में या भारत सरकार के प्रकाशन विभाग में मिल जाती है। अटल बिहारी वाजपेयी का वह भाषण संविधान पर था। जिसमें उन्होंने कहा कि जब संविधान बना रहे थे तो हम तय नहीं कर पाए कि हमारी शासन प्रणाली कौन सी हो। उस भाषण को आप पढ़िए, जब वाजपेयी जी प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने संविधान की समीक्षा का आयोग बनाया। उस आयोग ने समीक्षा की।

वह समीक्षा कहीं रद्दी की टोकरी में पड़ी हुई है। परंतु आज जरूरत यह है कि  संविधान की समीक्षा संसद ही करे। इस संविधान में जो खोट है उसको निकाल बाहर करें और जो खरा है उसको अपना लें। अगर यह होता है तो मुझे ऐसा लगता है कि हम एक नए युग में प्रवेश करेंगे और अंग्रेजों ने हमें जो दर्पण दिया, हमें जो पहचान दी, उस पहचान से हम मुक्त हो सकेंगे। औपनिवेशिक मानसिकता से मुक्ति का प्रश्न अपनी पहचान से बहुत गहरे रूप में जुड़ा हुआ है। अफसोस यह है कि आजादी से पहले हम इस बारे में सचेत थे। हमारे मनीषी समय-समय पर जो चेतावनी हमें देते थे, उसे हमने ध्यान से सुना और अपने को सुधारा। लेकिन आजादी के बाद आधुनिकता के व्यामोह में हम फंस गए।

यह आधुनिकता और कुछ नहीं है, सिर्फ पुराने शब्दों में साम्राज्यवाद के वैचारिक उपनिवेश का नया शब्द है। सीधे कहें तो ईसाईकरण है। जाने या अनजाने हम इसके इस समय इतने अधिक शिकार हो गए हैं कि अपना बोध ही खो बैठे हैं। सवाल है कि आज भारत की पुनर्खोज कैसे हो? यही हमारे सामने यक्ष प्रश्न है।

 

 

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Name *