राफेल मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले से राहुल गांधी को जो नुकसान हुआ है उसकी भरपाई आसानी से नहीं होगी।
हमारा देश रक्षा के मामले और खासकर लड़ाकू विमानों को लेकर बगैर तैयारी के रहना गवारा नहीं कर सकता। सैन्य तैयारी सुनिश्चित करना सरकार का कर्तव्य है..हमने कीमत, प्रतिस्पर्धी कीमत, पहले की कीमत और नए परिवर्तित मूल्य और साजो-सामान का गहराई से अध्ययन किया..दस्तावेजों के आधार पर यह स्पष्ट है कि यह मामला किसी वाणिज्यिक लेनदेन का नहीं है, क्योंकि ऑफसेट के लिए कौन सी कंपनी रहे, इसका चुनाव सरकार नहीं करती..किसी का व्यक्तिगत दृष्टिकोण जांच करने का आधार नहीं हो सकता।’
उक्त अंश राफेल विमान सौदे पर सर्वोच्च न्यायालय में भारत के मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यीय पीठ के फैसले का है जिसे मुख्य न्यायाधीश ने पढ़ कर सुनाया। इसी के साथ उन्होंने राफेल सौदे पर जांच की मांग करने वाली सभी याचिकाएं खारिज कर दीं। क्या इसके बाद भी कुछ कहना बाकी रह जाता है? राजनीति में कई बार गलतियों पर गाल बजाकर पर्दा डालना ज्यादा भोंडा साबित होता है। कांग्रेस यह समझे तो बेहतर कि इससे राजनीतिक तौर पर बड़ा नुकसान होता है, क्योंकि साख को सीधी चोट पहुंचती है।
राफेल सौदे पर देश की सर्वोच्च अदालत द्वारा मोदी सरकार को क्लीन चिट दिए जाने के बाद कांग्रेस का यह कहना बेशर्मी की राजनीति की पराकाष्ठा है कि हमारा आरोप अधिक कीमत को लेकर था और इस पर संयुक्त संसदीय समिति यानी जेपीसी की मांग बनी रहेगी। इस फैसले का नतीजा मात्र यह नहीं है कि मोदी की बेदाग छवि मजबूत हुई, बल्कि यह भी है कि भविष्य में कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी को एक बार फिर अपनी राजनीतिक परिपक्वता सिद्ध करनी पड़ेगी। अब अगर कोई सही लगने वाला आरोप भी कांग्रेस अध्यक्ष की ओर से आएगा तो जनता उस पर सहज भरोसा नहीं करेगी। उन्होंने मोदी के लिए जो फंदा तैयार किया था उसमें खुद ही फंस गए।
राफेल मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले से राहुल गांधी को जो नुकसान हुआ है उसकी भरपाई आसानी से नहीं होगी। उनकी छवि एक ऐसे नेता की बनेगी जो सियासी लाभ के लिए कुछ भी कह सकता है और यहां तक देश की सुरक्षा को प्रभावित करने वाली बातें भी। इसकी भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि राफेल सौदे पर राहुल गांधी के बयानों का फ्रांस सरकार और राफेल बनाने वाली कंपनी दासौ ने बार-बार खंडन किया, लेकिन वह अपने झूठ को दोहराते रहे। एक समय तो ऐसा भी लगा कि उन्हें भारत और फ्रांस के ऐतिहासिक रिश्तों की भी परवाह नहीं है। इसके पहले शायद ही कभी किसी भारतीय नेता ने कूटनीतिक रिश्तों को इस तरह दांव पर लगाया हो।
कांग्रेस को यह ध्यान रखना चाहिए कि सुप्रीम कोर्ट ने अपना फैसला एक नहीं, बल्कि चार याचिकाओं को खारिज करते हुआ दिया है। हर याचिका में मुद्दे अलग-अलग थे, लेकिन दो में स्पष्ट रूप से कीमत को प्रमुख मुद्दा बनाया गया था। इनमें से एक याचिका प्रशांत भूषण, अरुण शौरी, यशवंत सिन्हा की भी थी। इसमें यह भी कहा गया था कि एक खास उद्योग समूह को लाभ पहुंचाने के लिए राफेल की कीमत तीन गुना कर दी गई। जाहिर है कि इस फैसले के बाद इन तीनों की प्रतिष्ठा को भी आघात लगेगा। गैर-राजनीतिक होने का दावा करने वाले प्रशांत भूषण को प्रोफेशनल नैतिकता के नाते सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर यह कहने से तो बचना चाहिए कि फैसला बिल्कुल गलत है। पुनरीक्षण याचिका दायर करना अलग बात है और फैसले को गलत बताना अलग बात। यह ठीक नहीं कि उनकी जनहित याचिकाएं राजनीति प्रेरित नजर आने लगी हैं।
राफेल सौदे पर सुप्रीम कोर्ट ने हर पक्ष का संज्ञान लिया है। यहां तक कि हिंदुस्तान एरोनोटिक्स लिमिटेड को ऑफसेट पार्टनर क्यों नहीं बनाया गया, इस पर भी टिप्पणी की है। कांग्रेस के आरोप का एक ही आधार था कि जो कीमतें पहले तय की गई थीं उससे तीन गुना अधिक दर पर ये विमान खरीदे गए और इसके एवज में दबाव डालकर रिलांयस डिफेंस को ऑफसेट को अनुबंध दिलाया गया। सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि दासौ और रिलायंस डिफेंस में 2012 में भी बातचीत हुई थी। यह एक ऐसा तथ्य है जो पहले ही सामने आ गया था, लेकिन ऐसा लगता है कि राहुल गांधी तथ्यों पर गौर करने को तैयार ही नहीं थे।
राफेल सौदे को लेकर जब कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने सत्तापक्ष के मर्मस्थल यानी सीधे प्रधानमंत्री मोदी पर हमला किया तो राजनीतिक विश्लेषकों को लगा कि अब तक अजेय माने जाने वाले मोदी को करारा आघात लगेगा, क्योंकि ईमानदार नेता की छवि उनकी यूएसपी है। अन्य विपक्षी दलों का साथ न मिलने के बाद भी राहुल गांधी और अन्य कांग्रेसी नेता राफेल सौदे पर आरोपों की अपनी आवाज बुलंद करते गए। इसके बाद कुछ लोग सर्वोच्च अदालत चले गए तो भी कांग्रेस अध्यक्ष तीन राज्यों के चुनाव प्रचार में गली-चौराहों पर चौकीदार चोर है, भ्रष्ट है का राग अलापते रहे। ऐसा लगता है कि वह येन-केन-प्रकारेण राफेल सौदे को बोफोर्स सौदे जैसा रूप देना चाहते थे, लेकिन शायद वह यह भूल गए कि झूठ के पांव नहीं होते। जब वह बार-बार राफेल सौदे को संदिग्ध बता रहे थे तो एकबारगी ऐसा लगा कि कुछ तो होगा इस आवाज की बुलंदी के पीछे, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने राफेल सौदे पर जांच की मांग करने वाली याचिकाएं करते हुए जिस तरह पुख्ता तौर पर कहा कि राफेल की खरीद में कहीं भी कोई गड़बड़ी नहीं उससे राहुल की झूठ की राजनीति की ही पोल खुली। सुप्रीम कोर्ट के ऐसे स्पष्ट निर्णय के बाद कांग्रेस को चाहिए कि वह सिर झुकाकर इस फैसले को स्वीकार करे।
प्रतिस्पर्धी प्रजातंत्र में चुनाव के वक्त नेता कई बार बढ़चढ़ कर बातें बोल जाते हैं, लेकिन उन्हें यह ध्यान रखना चाहिए कि ऐसी बात कहने से बचें जो सफेद झूठ साबित हो और उन्हें बगले झांकने के लिए मजबूर होना पड़े। आज कांग्रेस को यही करना पड़ रहा है। राफेल सौदे पर जीपीसी की मांग दरअसल अपनी खीझ मिटाने की कोशिश है। क्या जेपीसी पर सुप्रीम कोर्ट से अधिक भरोसा किया जा सकता है?
राफेल सौदे पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले से राहुल गांधी को एक ऐसे समय करारा झटका लगा है जब कांग्रेस ने तीन राज्यों में जीत हासिल की है। ऐसा लगता है कि राहुल गांधी ने जिस तरह बिना सोचे-समझे और नतीजे की परवाह किए बगैर राफेल सौदे को संदिग्ध बताने के साथ प्रधानमंत्री को चोर और भ्रष्ट तक कहने से गुरेज नहीं किया वैसे ही उन्होंने इन तीन राज्यों के चुनावों में भी ऐसे वादे कर डाले जिन्हें पूरा करना आसान नहीं होगा। किसी के लिए भी समझना कठिन है कि आखिर कर्ज माफी के वादे को दस दिन में कैसे पूरा किया जा सकता है? आज कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के लिए यह जरूरी है कि वह गलतियों से सीखें और क्षमा मांग कर आगे बढ़ें। उनकी क्षमा याचना को भी जनता सकारात्मक रूप से देखेगी, लेकिन अगर वह जिद पर अड़े रहे तो जो राजनीतिक पूंजी बड़ी मुश्किल से हाल में अर्जित की है वह हाथ से फिसल भी सकती है।
सभार दैनिक जागरण
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)