‘बा’ और ‘बापू’

गिरिराज किशोर जी अब हम सबके बीच नहीं है। गिरिराज किशोर जी ने प्रभाष जोशी की स्मृति में आयोजित कार्यक्रम प्रभाष प्रसंग 2019 में ‘बा’ औरबापू’ विषय पर व्याख्यान दिया था। इस बार प्रभाष प्रसंग 2024 में रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह जी का व्याख्यान होगा। विषय है  ‘लोकतंत्र में संसदीय मर्यादा ‘ ऐसे में हम लोकनीति केन्द्र पर हम ‘बा’ और ‘बापू’ विषय पर गिरिराज किशोर जी के विचार को आपसे साझा कर रहे हैं।    

आज बा और बापू की बात हो रही है। गांधीजी का 150 मनाया जा रहा है। इस संदर्भ में मैने एक दिन धर्माधिकारी और अन्य गांधीजन को पत्र लिखा। मैने लिखा कि ठीक तो यह होगा कि बा और बापू 150 वर्ष इसका नाम रखा जाए। लेकिन धर्माधिकारी जी को छोड़कर किसी ने मेरे विचार का समर्थन नहीं किया। लोगों ने ऐसा कर दिया है कि बा को बापू का पिछलग्गू समझा जाने लगा। लेकिन मुझे लोगों से नही बल्कि विद्वानों और साहित्यकारों से तकलीफ है कि बा और बापू को इस नजरिये से क्यों देखा। क्योंकि ऐसा नही कि हमेशा अपनी मर्जी से कुछ करती थी, या फिर अपनी ही मर्जी से कुछ करती थी, गांधी जी की मर्जी से कुछ नहीं करती थी। कुछ ऐसे भी छण आए जब बा और गांधी जी के बीच मतभेद हुए। जैसे जब यह बात आई की बा को गांधी जी का पूरक मानना चाहिए। 

ये भी सही है कि बा गांधी जी से स्वतंत्र नही हैं, बा ने अपने आपको स्वतंत्र किया है। वो स्वतंत्र नहीं इसमें कोई शक नही है। जब बा की शादी हो गई तो उनके एक मित्र थे जिनकी शिकायत थी कि वो उन्हें ज्यादा महत्व नहीं देती। गांधी जी तब बच्चे थे। उनकी शादी केवल तेरह साल की उम्र में हो गई थी। बा की उम्र तेरह साल छह महीना थी। बा ने एक दिन कहा कि मै अपने पीहर जाना चाहती हूं। बा ने कहाकि अपने बच्चे हरि को उन लोगों से मिलाना चाहती हूं। गांधी जी ने कहाकि तुम जाओ, ये बहुत जरूरी है, तुम्हे इस काम को करना चाहिए। तब ऊंटों की गाड़ी चलती थी। ऊंटों की गाड़ी में बिठाकर एक आदमी के साथ उन्हें भेज दिया। देखिए उस महिला ने इस बात का जिक्र न तो अपने ससुराल में किया और न ही अपने पीहर में। एक साल वो वहां रहीं फिर उनको बुलाया गया। बा और बापू को लेकर लोगों में जो नजरिया है उससे मैं चकित हूं। 

अब तो कुछ लोग कह रहें है कि गांधी जी को मारने वाला व्यक्ति सही था। ये कैसे संभव है। इसका विरोध भी हुआ। प्रधानमंत्री तक ने इसका विरोध किया। लेकिन कहने वाला उन्ही की पार्टी से संसद सदस्य भी है। इससे हमें समझना चाहिए ये जो मान्यताएं है उसे हम बनाते हैं।

अभी कुछ दिन पहले उपन्यास लिखने के दौरान गांधी जी का घर देखने गया। वहां मेरी मुलाकात एक व्यक्ति से हुई। वह व्यक्ति शायद उनका संबंधी था। मैने उनसे पूछा कि कस्तूरबा जी का घर है, तो उसने कहा तुम क्या लगते हो। मैने कहा कि मै उनका कुछ नहीं लगता। उसने कहा कि क्या तुमने उन्हें देखा है, मैने कहा मैने उन्हें नहीं देखा। मैने उस व्यक्ति से कहा कि मैं बापू के बारे में कुछ लिख रहा हूं, उसी सिलसिले में यहां आया हूं, मुझे बा का घर भी देखना है। उस व्यक्ति ने कहाकि एमके गांधी को तो सब जानते हैं लेकिन मेरी बा को कोई नहीं जानता, मेरी कस्तूरबा को कोई नहीं जानता है।   

इस बात की मुझे बहुत तकलीफ हुई। इस तरह की बात को कहना और लोगों को बताना। आखिर हमारे समाज की प्रवृत्तियों को किस तरह नकारा बना दिया गया है। हम क्यों नहीं इस बात को सोचते। खैर मै तो उनसे बिना पूछे ही चला आया। लेकिन यह बात बहुत दूर तक चली गई। उपन्यास लिखने के दौरान ही एक बार मै दक्षिण अफ्रीका गया। उस दक्षिण अफ्रीका दौरे के दौरान भी हमसे पूछा गया विभेद के बारे में। मैने कहा जो विभेद पैदा किया जा रहा है, चाहे वह राजनैतिक हो, व्यावहारिक हो या आदमी का अपना सोचा हुआ हो, इसे असामान्य नहीं कहा जा सकता। उस बारे में हमें सोचना चाहिए। 

हमें यह सोचना चाहिए कि हमें किस रूप में गांधी जी को नए तरीके से प्लान करके खामोश किया जा रहा है। लेकिन ऐसा होगा नहीं। क्योंकि ऐसा होना होता तो हो गया होता। गांधी जी को आप इस पर्दे से हटा नहीं सकते। गांधी जी को आप उनकी मान्यताओं से दूर नहीं कर सकते। गांधी जी ने जब एक समस्या का सामना किया तो कस्तूरबा ने आकर उस समस्या का समाधान किया। गांधी जी ने दक्षिण अफ्रीका में रहते हुए कहाकि अगर हमें उसके विरोध में रहना है तो हमें उसका विरोध करना पड़ेगा। 

गांधी जी ने लिखा भी है कि समाज उन लोगों से नहीं बनता है जो समाज को तोड़ना चाहते हैं या भय से आगे ले जाना चाहते हैं, बल्कि समाज इस बात से बनता है कि वो कितने सहनशील है, समझदार हैं। समन्वय के साथ काम करें। दरअसल प्रभाष जोशी जी ने भी एक तरीके से गांधी के बारे में काम करने के लिए कहा। एक बार मै राजेन्द्र यादव के साथ प्रभाष जी घर गया। मैने उनसे कहाकि मै चाहता हूं कि मै इस पर कुछ काम करूं। यह प्रभाष जोशी जी से पहली मुलाकात थी।

प्रभाष जी ने मुझसे कहा तुम कौन हो, मैने उनको अपना नाम बताया, उन्होंने कहा मै जानता हूं। उन्होंने कहाकि गड़बड़ ये है कि आप इतने दिनों बाद मुझसे आकर मिलें हैं। मैने कहा ये हमारे राजेन्द्र यादव पकड़कर लाए है, नहीं तो शायद अभी भी नहीं आना होता। फिर मैने उनसे अपनी योजना बताई, उनसे चर्चा की। मेरे उस काम में प्रभाष जोशी ने मेरी बहुत सहायता की। जोशी जी पत्रकारिता के समन्वय को चाहते थे। वे अपनी आत्मियता को जनता तक पहुंचाना चाहते थे। वो ऐसे व्यक्ति थे जो कुछ भी हो करने के लिए तैयार रहते थे। वे हमारे बीच नहीं हैं। उनके जमाने में पत्रकारों को, लेखकों को लिखने की छूट थी, आज नहीं है। ये स्वतंत्रता आज खत्म हो गई है। 

प्रभाष जोशी ने उस वक्त मुझसे कहा था कि भारत को भारत के मनीषियों को खोजना चाहिए, उनकी मानसिकता को समझना चाहिए। तब आप उसके खिलाफ भी बोल सकते हैं, उनसे जुड़ भी सकते हैं। जब मै दक्षिण अफ्रीका गया तो वहां पर मैने देखा कि दक्षिण अफ्रीका में गांधी जी को लेकर बहुत सम्मान है। वहां पर उनके नाम पर तीन म्यूजियम हैं, जहां पर उनकी स्क्रिप्ट रखी है। उनका पत्र है, उनके लेख रखे हुए हैं। उस म्युजियम से बहुत मदद मिली। वहां पर एक व्यक्ति के घर में लाइब्रेरी है। एक व्यक्ति मुझे उनके पास ले गए। उन्होंने कहा कि आप वहां काम करें, वो आपकी मदद करेंगे। जब मेरी उनसे मुलाकात हुई तो मैने उनसे कहाकि मै आपकी लाइब्रेरी में काम करना चाहता हूं, और अगर आप मुझे बता सके तो बहुत अच्छा होगा। उन्होने कहाकि आप जरूर काम करिए। उनकी लाइब्रेरी से मुझे बहुत सहायता मिली।

उन्होंने यह भी कहाकि शाम का खाना भी आप मेरे साथ खाया करें, क्योंकी जब आप आठ बजे के बाद जाएंगे तो न होटल खाना मिलेगा और न ही कहीं और। उन्होंने अपने घर में कह दिया था कि जब तक ये घर में रहेंगें तब तक मांसाहारी खाना घर में नहीं बनेगा। कहने का मतलब दुनिया में इस तरह लोग आज भी है जो कहते हैं कि गांधी जी ने अगर उस समय सहारा नहीं दिया होता तो दक्षिण अफ्रीका इस तरह का दक्षिण अफ्रिका नही रहता। नेल्शन मंडेला ने कहा था कि गांधी जी ने दक्षिण अफ्रीका के लिए बहुत किया। 

आजकल हिन्दू मुसलमान पर काफी चर्चा हो रही है। यह चर्चा खाने तक पहुंच जाती है। बादशाह खान कांग्रेस की बैठक में वहां आते थे तो उनके लिए अलग गोश्त बनता था। उनको दिया जाता था रिकार्ड में है। लेकिन यह भी सही है कि वो कहते थे कि भाई तुम्हें तकलीफ है तो मत बनाओ। वो ये भी कहते कि तुम कहते हो खाओ, मै नहीं कहता मुझे दो। दोनो की इस बारे में बाते होती थी। गांधी जी कहते थे तुम  मेरे पीछे खाओ, कुछ भी खाओ मै क्या कर सकता हूं, इसलिए अच्छा है कि अपने बड़े भाई के सामने खा रहे हो। इस तरह का मजाक दोनो में होता रहता है।

इसी तरह मैने एक जगह एक घटना पढ़ी। सुभाष चंद्र बोस आईसीएस करके आए थे। उन्होंने सबसे पहले गांधी आश्रम में जाने की बात कही। बोस गांधी आश्रम गए। आश्रम में चाय तो बनती नहीं थी। एक दिन बा सुभाष चंद्र बोस को रसोई में बुलाकर चाय पिला रही थी। गांधी जी रसोई में पहुंच गए। उन्होंने कहाकि ये क्या कर रही हो, तुम नियम तोड़ रही हो। हमें तब तो सबके लिए कुछ न कुछ बनाना पड़ेगा। मेरे आश्रम में ये नहीं चलेगा। तब बा ने कहाकि मेरे दो सवालों का जवाब दे दीजिए, तो मै समझ लूंगी कि आप ठीक कह रहे हैं। एक तो इस रसोई पर किसका आधिपत्य है, मेरा है। दूसरा सुभाष चंद्र बोस आश्रम के सदस्य नहीं है। एक स्वतंत्र व्यक्ति है, वे हमारे अतिथि हैं। गांधी जी चुप हो गए और चले गए। ये बाते हमें जाननी चाहिए।       

इसी तरह से इसमें अगर कभी आपकी नजर पड़े तो ‘बा कस्तूरबा’ उपन्यास में कई ऐसे मसले तय किए गए, जिसे गाँधी जी ने बिगाड़ दिए। वे बहुत शख्त थे स्ट्रिक्ट थे। लेकिन त्याग त्याग है। गांधी जी इस बात से कभी विमुख नहीं होते थे कि किसी के खाने से और किसी के अपने नियमों के पालन करने से तुम्हारा या उनका धर्म ख़राब होता है या प्रदूषित होता है।

दूसरी तरफ अगर आप कभी देखेंगे तो मोहन दास ने डरबन में घर न लेकर ट्रांसबाल में ख़रीदा, जबकि परिवार को जोहान्सवर्ग में रहता था। परिवर्तन जीवन का स्थाई भाव हो गया था। कस्तूरबा ने तय कर लिया था, गांधी के साथ चुनौती का सामना करने के लिए वो तैयार थी। लेकिन जैसे जैसे समय निकट आया कस्तूरबा का स्वायत्त सुख सिमटने लगा।

भारतीयों के अपमान और उत्पीड़ण का युग समाप्त नहीं हुआ था। जब मोहनदास दूसरी बार भारत लौटे तो उन्हें भारत की दुर्दशा का भान फिर हुआ। उन्होंने उसके खिलाफ आवाज उठाई। गांधी जी की नाराजगी तभी से चली आ रही थी। हरी के साथ एक पारसी छात्र सोराबजी को लंदन पढ़ने के लिए भेज दिया गया था। वहां से लौटकर सोराबजी ने आश्रम वासियों का इलाज शुरू कर दिया था। मोहनदास का सोराबजी पर विश्वास भी था, लेकिन सोराबजी अधिक दिन तक जीवित नहीं रह सका। और उनका स्वर्गवास हो गया। तब सवाल आया की इस समस्या का समाधान कैसे किया जाय। 

8 मई 1911 की घटना है, जब कस्तूरबा सवेरे सो कर उठी तो हरी का बापू के नाम एक पत्र मिला। पत्र में लिखा था, मैं बापू से अपना संबंध जीवन भर के लिए तोड़ रहा हूं। बा को बहुत दुःख हुआ और वो अंदर तक आहात हो गई। कई दिन तक बा बेटे के लौटने का इन्तजार कराती रही। किसी मित्र ने कहा वो भारत जाने वाले जहाज का इंतज़ार  रहा था। बापू के मित्र और टॉल्स्टॉ आश्रम के मालिक क्लेनबैक ने कहा कि वो हरिलाल को समझा बुझा कर ले आएगें। आप चिंता न करें। बापू चुप थे पराकाष्ठा तब हुई जब हरिलाल 15 मई 1911 को थका हारा वापस लौट आया। बापू ने पूछा कहां चले गए थे, मुझसे बिना पूछे। उसने कहा किससे कहता आपने तो हमें अपने दिल से निकाल दिया है। बा से कहकर दुखी करने का कोई मतलब नहीं था। गांधी जी ने कहा तुमसे किसने कहा मैं तुम्हे अपने दिल से निकाल चूका हूं।

मैं चाहूंगा कि आप गांधी को जानने की कोशिस कीजिए। कांग्रेस हो या कोई अन्य राजनीतिक पार्टी, अपने हित के लिए अपनी बातों को तय करना चाहती है, लेकिन तय तभी हो सकता है जब आपके मन में गुंजाइस हो। 

               

        

             

 

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