अभिशाप से मुक्ति

बनवारी

 

मुस्लिम महिला विवाह अधिकार संरक्षण विधेयक-2019 को राष्ट्रपति की मंजूरी मिलने के बाद यह कानून बन गया है। विधेयक के विरोध में राज्यसभा में पहले जैसी गोलबंदी नहीं की गई और विधेयक को पारित होने दिया गया। आगे इससे भारतीय राजनीति की नई दिशा तय होगी

देश के राजनैतिक मानस में जो परिवर्तन हो रहे हैं, उन्हें अब हमारे राजनैतिक प्रतिष्ठान ने भी स्वीकार करना आरंभ कर दिया है। इस बात का सबसे ताजा प्रमाण है-राज्यसभा से मुस्लिम महिला (विवाह अधिकार संरक्षण) विधेयक-2019 का आसानी से पारित हो जाना। मोदी सरकार अपने पिछले कार्यकाल में दो बार इसे कानून का दर्जा दिलाने का प्रयत्न कर चुकी थी। लेकिन राज्यसभा में उसके और सहयोगी दलों के अल्पमत के कारण तलाक-ए-बिद्दत अर्थात तीन बार बोलकर तलाक देने की प्रथा को आपराधिक बनाने वाले विधेयक को वह पारित नहीं करवा पाई थी। इस प्रथा के कारण भारत में मुस्लिम महिलाएं पुरुष बर्बरता का शिकार हो रही हैं, इससे कोई इनकार नहीं करता।

मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड से लगाकर इस्लाम को मानने और जानने वाले उलेमा और मौलाना भी यह स्वीकार करते हैं कि इस प्रथा ने मुस्लिम महिलाओं को मुसीबत में डाल रखा है। उनमें से अधिकांश अब तक इसे अनैतिक मानते हुए भी शरियत का अंग होने की दुहाई देते रहे हैं। ऐसे लोग अल्प संख्या में हैं, पर इस्लाम को जानने-समझने वाले इन लोगों ने तर्क दिया है कि तलाक-ए-विद्दत इस्लाम की शिक्षाओं के प्रतिकूल है। उसका समर्थन न कुरान की किसी आयत से होता है, न शरियत के किसी दृष्टांत से। तीन तलाक से पीड़ित अनेक मुस्लिम महिलाएं अदालत के दरवाजें खटखटाती रही हैं। सुप्रीम कोर्ट अपने बहुमत से दिए गए विस्तृत निर्णय में यह कह चुका है कि यह प्रथा कुरान आदि से अनुमोदित नहीं है, मानवीय आधार पर बर्बर है, इसलिए उसे अमान्य किया जाता है।

वह केंद्र सरकार से इस संबंध में कानून बनाने की भी हिमायत कर चुका है। उसके बाद ही मोदी सरकार ने यह पहल की। इस विधेयक पर सबकी सहज सहमति बन जानी चाहिए थी। लेकिन कांग्रेस के नेतृत्व में अधिकांश विपक्षी दलों ने इसका विरोध करने का ही फैसला किया। यह बात आरंभ में ही स्पष्ट हो गई थी कि इस विधेयक का विरोध केवल राजनैतिक कारणों से किया जा रहा है। इस विधेयक का विरोध करने वाले लगभग सभी दल यह मानते हैं कि तीन तलाक को आपराधिक बनाया गया, तो इससे मुस्लिम समुदाय नाराज हो जाएगा और विपक्षी दल जो उसे सदा वोट बैंक के रूप में देखते हैं, उसके समर्थन से हाथ धो बैठेंगे। यह एक राजनैतिक अंधविश्वास है, जिसे बनाए रखने में मुस्लिम नेताओं से भी बड़ी भूमिका अपने आपको सेक्यूलर बताने वाले हिन्दू नेताओं की रही है।

केंद्र सरकार की ओर से निरंतर इस तथ्य की ओर ध्यान खींचा जाता रहा कि विश्व में बीस मुस्लिम देश अपने यहां इस प्रथा को प्रतिबंधित कर चुके हैं। अगर यह प्रथा व्यापक मुस्लिम समाज को मान्य होती तो क्या ऐसा किया जा सकता था। शरियत की दुहाई देते रहने वाला पाकिस्तान भी इस प्रथा को प्रतिबंधित कर चुका है। इस्लाम की वहाबी व्याख्या पर चलने वाले कई देश भी उसे प्रतिबंधित कर चुके हैं। फिर उसे भारतीय मुसलमानों की स्वीकृति है, यह तर्क कैसे दिया जा सकता है? ऐसा कभी कोई प्रमाण सामने नहीं आया, जिससे यह सिद्ध किया जा सके कि तीन तलाक के विरोध में कानून बना तो देश के आम मुसलमानों को लगेगा कि उनका ईमान खतरे में पड़ गया है।

लेकिन सेक्युलर हिन्दू और मजहबी मुस्लिम नेता यह रट लगाए रहे हैं कि इस तरह के कानून से इस्लाम खतरे में पड़ जाएगा, मुसलमानों में असुरक्षा पैदा होगी, हिन्दू-मुसलमानों के बीच अविश्वास की खाई चौड़ी हो जाएगी। इस भड़काने वाली नारेबाजी के बावजूद अब तक देश के आम मुसलमान नहीं भड़के। बल्कि यह दिखा है कि मुस्लिम महिलाओं में केंद्र सरकार की इस पहल का सकारात्मक प्रभाव हुआ है। यह हाल के आम चुनाव से भी स्पष्ट है। मुसलमानों में असुरक्षा पैदा करके उन्हें गोलबंद करने और देश की मुख्य धारा से अलग करने की राजनीति ब्रिटिश शासकों ने शुरू की थी। भारतीय समाज को विभाजित करके अपना शासन मजबूत करने की इस ब्रिटिश नीति को जवाहर लाल नेहरू ने आत्मसात कर लिया था। आजादी के बाद जब उन्हें महात्मा गांधी की खड़ी की गई कांग्रेस को नेहरू कांग्रेस में बदलने का मौका मिल गया तो यह ब्रिटिश नीति कांग्रेस की राजनीति का आधार बन गई।

कांग्रेस से छिटक कर अलग हुए नेताओं ने भी इस नीति को एक विचारधारा के रूप में अपनाए रखा। ममता बनर्जी और उनकी पार्टी इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। कांग्रेस के अलावा देश के सभी कम्युनिस्टों ने इसी नीति को अपनी राजनैतिक रणनीति में शामिल कर लिया। समाजवादी नेताओं ने गांधी जी की हिन्दू- मुस्लिम एकता को संकुचित करते हुए मुस्लिम पक्षधरता बना दिया। सेक्युलरिज्म के नाम पर चलाई जाने वाली मुस्लिम पक्षधरता की इस नीति का मुस्लिम नेताओं ने भरपूर फायदा उठाया। यहां भी राजनैतिक धाराएं इस राजनैतिक चतुराई में अपना राजनैतिक हित देखती रही है कि मुसलमान असुरक्षित महसूस करेंगे तो गोलबंद होंगे और उनका झंडा थामे रहेंगे। जब तक देश में कांग्रेस मजबूत थी, उसे धुरी बनाकर इस तरह की राजनीति की जा सकती थी।

आपात स्थिति के दौरान उत्तर भारत के मुसलमानों का कांग्रेस से कुछ मोहभंग हुआ, लेकिन वे कांग्रेस से छिटक कर उसी जैसी विचारधारा वाले दूसरे दलों और नेताओं के पीछे जा खड़े हुए। इन सबने मिलकर मुसलमानों के बीच समाज सुधार वाली शक्तियों को नहीं पनपने दिया। उन पर संकीर्ण दृष्टि वाले मुल्ला मौलवियों का नियंत्रण बना रहे, इसी कोशिश में यह सब दल और नेता लगे रहे। कितनी विचित्र बात है कि जिस कांग्रेस को सुधार के नाम पर हिन्दू समाज के लिए नए कानून बनाने में कभी कोई हिचक नहीं हुई, वह मुस्लिम समाज के भीतर सुधार के कानून बनाने से हमेशा हाथ खींचे रही। राष्ट्रपति के रूप में अत्यंत सम्मानित रहे बाबू राजेंद्र प्रसाद के विरोध के बावजूद हिन्दू कोड बिल पारित किया गया था। बाद में सती प्रथा को प्रतिबंधित किया गया। दहेज जैसी कुप्रथा को रोकने के लिए केवल कानून ही नहीं बना, उसमें नए उपबंध जोड़े गए।

राज्यसभा में हुई बहस का उत्तर देते हुए विधि मंत्री रविशंकर प्रसाद ने उचित ही सती प्रथा को प्रतिबंधित करने और दहेज को आपराधिक बनाने वाली कांग्रेस की पहल पर लाए गए कानूनों का उल्लेख किया। उन्होंने पूछा कि जो कांग्रेस हिन्दू समाज में सुधार लाने के लिए सक्रिय रही वह मुस्लिम समाज में सुधार से क्यों मुंह मोड़े रही। शाहबानो प्रकरण कांग्रेस के राजनैतिक इतिहास पर एक काले धब्बे की तरह है। वही गलती वह तीन तलाक संबंधी कानून का विरोध करते समय कर रही है। इस विधेयक का विरोध करने के लिए जो तर्क दिए गए वे अत्यंत हास्यास्पद हैं। गुलाम नबी आजाद जैसे परिपक्व नेता से यह तर्क सुनना अजीब लगता है कि तीन तलाक को आपराधिक बनाने से मुस्लिम महिलाएं असुरक्षित हो जाएगी, उनके भरण-पोषण की समस्या खड़ी हो जाएगी।

क्या तलाक-ए-बिद्दत की शिकार महिलाओं के सामने यह समस्या और भी विकट रूप में नहीं होती? इस विधेयक का विरोध काफी कुछ नारेबाजी के रूप में हुआ है। महबूबा मुती का यह कथन याद करने योग्य है कि मोदी सरकार मुसलमानों के घर में घुस रही है। राज्यसभा में मतदान के समय अलबत्ता यह स्पष्ट हो गया कि इस विधेयक का विरोध करने वाले विपक्षी नेता केवल एक मुद्रा अपनाए हुए थे और उसके बारे में गंभीर नहीं थे। विपक्षी दल राज्यसभा में मतदान से पहले ही अपने हथियार डाल चुके थे। अगर ऐसा न होता तो राज्यसभा में अल्पमत होने के बावजूद मोदी सरकार यह विधेयक पारित न करवा पाई होती। संसद के भीतर और बाहर इस विधेयक को मुसलमानों के राजनैतिक भविष्य से जोड़कर इस्लाम खतरे में होने का नारा लगाने वाले अधिकांश सांसद वोट के समय नदारद थे। कुल मिलाकर 57 सदस्य वोट के समय उपस्थित नहीं थे।

केंद्र सरकार से सहयोग करने वाली अन्नाद्रमुक और जनता दल (यू) वाकआउट करके विधेयक पारित करवाने में सहायक हुई, जबकि बहस में वे विधेयक के खिलाफ थीं। तेलंगाना राष्ट्र समिति के सांसदों ने भी इसी तरह विधेयक पारित करवाने में मदद दी। इसके अलावा कांग्रेस के चार, सपा के छह, बहुजन समाज पार्टी के चार, शरद पवार की पार्टी, तेलुगूदेशम और पीडीपी के दो-दो तथा डीएमके, सीपीएम और तृणमूल कांग्रेस का एक-एक सांसद सदन से नदारद था। यहां तक कि आजम खां की पत्नी भी वोट देने नहीं आईं। यह स्पष्ट है कि विपक्षी दल इस विधेयक का विरोध करने के बारे में बिल्कुल गंभीर नहीं थे। इसके मोटे तौर पर तीन कारण दिखाई देते हैं। पहला यह कि कांग्रेस के कमजोर पड़ने पर विपक्ष बिखर गया है।

इस विधेयक का विरोध केवल राजनैतिक कारणों से किया जा रहा था। इस विधेयक का विरोध करने वाले लगभग सभी दल यह मानते हैं कि तीन तलाक को आपराधिक बनाया गया, तो इससे मुस्लिम समुदाय नाराज हो जाएगा।

दूसरा यह कि विपक्षी दलों को यह लगने लगा था कि इस विधेयक का विरोध करने से उन्हें आम मुसलमानों की सहानुभूति नहीं मिलने वाली। तीसरा यह कि विधेयक का विरोध उन्हें बहुसंख्यक भारतीयों के बीच खलनायक बना देगा। इन तीनों कारणों से उन्होंने विधेयक के विरुद्ध राज्यसभा में पहले जैसी गोलबंदी नहीं की और विधेयक को पारित होने दिया। यह भारतीय राजनीति की नई दिशा है। आशा है इससे मुसलमानों के बीच समाज सुधार के और भी काम हो पाएंगे।

 

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