पूरी दुनिया को लोकतंत्र का पाठ पढ़ाते रहने वाले अमेरिका में इस बार लोकतंत्र का पहिया चुनाव की दलदल में अटक गया है। अमेरिका में राष्ट्रपति के चुनाव की प्रक्रिया थोड़ी जटिल है फिर भी उसके जरिए अब तक सरलतापूर्वक राष्ट्रपति चुने जाते रहे हैं। इस बार का चुनाव राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने अपनी हठधर्मिता से ऐतिहासिक बना दिया है। अब तक चुनाव प्रक्रिया तकनीकी रूप से भले पूरी न हुई हो, पर जितनी मतगणना हो चुकी है, उससे स्पष्ट है कि डोनाल्ड ट्रम्प बहुमत नहीं जुटा सके। उनके प्रतिद्वंद्वी जो बाइडेन को अपेक्षित बहुमत मिल गया है और उन्होंने अपनी विजय घोषित कर दी है। लेकिन डोनाल्ड ट्रम्प अपनी हार स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है। उन्होंने चुनावी प्रक्रिया को लेकर गंभीर आरोप लगाए हैं। उनके अधिकांश आरोपों का कोई स्पष्ट आधार नहीं है, फिर भी वह अपनी यह टेक छोड़ने को तैयार नहीं है कि चुनाव में वास्तव में जीत उनकी हुई है, पर विपक्षी खेमा कुछ भ्रष्ट तरीके अपनाकर यह जीत उनसे छीन लेना चाहता है।
ट्रम्प प्रशासन ने चुनाव में धांधली की जांच के आदेश भी दे दिए हैं। दूसरी ओर डोनाल्ड ट्रम्प ने अपने रक्षामंत्री को बदलकर रक्षा प्रतिष्ठान में जो परिवर्तन किए हैं, उनसे यह आशंका पैदा हो गई है कि वे जनवरी में सत्ता के हस्तांतरण को बाधित करने का प्रयत्न कर सकते हैं। अमेरिका की मजबूत लोकतांत्रिक संस्थाओं को देखते हुए यह सब आशंकाएं अतिरंजित लगती है। इसलिए आम धारणा यही है कि सत्ता हस्तांतरण का समय आने तक स्थितियां सुलझ जाएंगी। डोनाल्ड ट्रम्प चाहे अंत तक अपनी हार स्वीकार करने के लिए तैयार न हों, पर वे व्हाइट हाउस खाली कर देंगे और नए राष्ट्रपति के रूप में जो बाइडेन अपना कार्यकाल शुरू कर सकेंगे।
अपनी आक्रामक नीतियों, अनिश्चित स्वभाव और विचित्र हरकतों के कारण डोनाल्ड ट्रम्प ने अपनी काफी विवादास्पद छवि बना ली थी। अपनी इस छवि का उन्हें काफी नुकसान भी उठाना पड़ा है। अमेरिका में बौद्धिक वर्ग, संचार माध्यम, शहरी मध्य वर्ग और व्यापारिक प्रतिष्ठान उन्हें खलनायक चित्रित करने में लगे हुए थे। यह अधिकांश वर्ग वैसे भी अमेरिका में रिपब्लिकन पार्टी की जगह डेमोक्रेटिक पार्टी के समर्थक माने जाते हैं। लेकिन इस बार उन्होंने डोनाल्ड ट्रम्प को पराजित करवाने के लिए कमर कसी हुई थी।
अमेरिका ने इन सभी मुखर वर्गों ने काफी पहले यह घोषित कर दिया था कि डोनाल्ड ट्रम्प अमेरिकी लोगों का विश्वास खो चुके हैं, इसलिए राष्ट्रपति के चुनाव में वे बुरी तरह हारने वाले हैं। पर अब तक के चुनाव परिणामों से स्पष्ट है कि डोनाल्ड ट्रम्प के बारे में प्रचारित किए गए यह सभी आकलन गलत थे। इस चुनाव में दोनों उम्मीदवारों को सात करोड़ से अधिक अमेरिकियों का समर्थन मिला है। अंतिम गिनती में दोनों के बीच का अंतर मुश्किल से 50 लाख वोटों का रहने वाला है। यह अंतर भी उस योजनाबद्ध प्रचार का ही परिणाम है, जिसे अमेरिका के डोनाल्ड ट्रम्प विरोधी वर्गों ने एक अभियान का स्वरूप दे दिया था। इससे अमेरिकी राजनीति में जो गंभीर प्रश्न डोनाल्ड ट्रम्प ने उठाए थे, वे आंख से ओझल हो गए। लेकिन डोनाल्ड ट्रम्प द्वारा उठाए गए प्रश्न इतने वास्तविक है कि अमेरिका के नए राष्ट्रपति को उनका सामना करना पड़ेगा। इसलिए चुनाव परिणाम आने के बाद अब लगभग सभी समीक्षक एक स्वर से कह रहे हैं कि डोनाल्ड ट्रम्प की विदाई के बाद भी ट्रम्प का प्रभाव बना रहेगा और वह अमेरिकी नीतियों को पुराने ढर्रे पर लौटने नहीं देंगे।
चार वर्ष पहले डोनाल्ड ट्रम्प ने अमेरिकी राजनीति की मुख्य धारा में यह कहते हुए प्रवेश किया था कि अमेरिका कमजोर पड़ रहा है। अमेरिका के कल-कारखाने बाहर चले गए हैं। इससे अमेरिका के श्रमिक वर्ग की दुर्दशा हो गई है। आम अमेरिकियों की खरीदने की क्षमता लगातार घटती चली जा रही है। उनका जीवन कठिन और अनिश्चित होता जा रहा है। इससे अमेरिका की आंतरिक शक्ति छीजने लगी है। अगर यह स्थिति बनी रहती है तो अमेरिका संसार में अपनी अग्रता नहीं बनाए रख सकता। यह वामपंथियों जैसी भाषा थी, पर उसमें अमेरिकी स्थिति की इतनी वास्तविक झलक थी कि अपनी अनगढ़ और अपरिष्कृत राजनैतिक शैली के बावजूद डोनाल्ड ट्रम्प न केवल रिपब्लिकन पार्टी का बल्कि आम अमेरिकियों का ध्यान खींचने में सफल हो गए। 2017 के राष्ट्रपति पद के चुनाव में भी डोनाल्ड ट्रम्प की विजय अप्रत्याशित ही थी। क्योंकि उनकी भाषा अमेरिका के भद्र लोक को अटपटी लग रही थी।
डोनाल्ड ट्रम्प जिन नीतियों की वकालत कर रहे थे, वे अब तक अपनाई जाती रही नीतियों और राजनैतिक शैली से अलग थीं। चुनाव में विजय के बाद राष्ट्रपति पद को स्वीकार करते हुए डोनाल्ड ट्रम्प ने जो भाषण दिया था, वह एक रिपब्लिकन नेता का कम किसी वामपंथी नेता का अधिक लगता था। पर जल्दी ही डोनाल्ड ट्रम्प अपनी रिपब्लिकन पार्टी में अपने नेतृत्व और अपनी नीतियों के प्रति विश्वास जगाने में सफल हो गए। अमेरिकी बौद्धिक वर्ग मंे उनके दृष्टिकोण को गंभीरता से समझने की कोशिश होने लगी और अमेरिकी सत्ता प्रतिष्ठान में उनके समर्थक बढ़ने लगे। लेकिन डोनाल्ड ट्रम्प की कार्यशैली इतनी आक्रामक, आत्मकेंद्रित और अनिश्चितताओं से भरी रही है कि उनकी नेतृत्व क्षमता को लेकर अमेरिका में लगातार एक दुविधा बनी रही है।
डोनाल्ड ट्रम्प ने अमेरिकी राजनीति में मुख्यतः तीन प्रश्न उठाए थे, जिन्हें नजरअंदाज करना संभव नहीं था। उन्होंने कहा था कि अमेरिका के कमजोर पड़ते चले जाने का पहला कारण यह है कि अमेरिका के कल-कारखाने बाहर भेज दिए गए हैं। अमेरिका के इस डि-इंडस्ट्रियलाइजेशन ने अमेरिका की विशाल श्रमिक आबादी का जीवन स्तर गिरा दिया है। इसका असर पूरे अमेरिकी समाज पर पड़ रहा है। अमेरिका की जीवनी शक्ति छीज रही है। इसलिए अमेरिकी कल-कारखानों को फिर देश में वापस लाने की आवश्यकता है। उन्होंने दूसरा प्रश्न यह उठाया कि अमेरिका को दुनिया की चैकीदारी में उलझने की आवश्यकता क्यों है? अमेरिका को दूसरों की लड़ाई में पड़ने से बचना चाहिए। स्थानीय शक्तियों को अपनी समस्याओं से स्वयं निपटने देना चाहिए।
अमेरिका हर वर्ष अपने अकूत साधन इन अनावश्यक संघर्षों में झोंकता रहा है। इसके बदले उसे केवल अपयश मिलता है। इसके साथ ही उन्होंने अनेक स्थानों से अमेरिकी सैनिक वापस बुलाने की घोषणा की। उन्होंने तीसरा सवाल चीन को लेकर खड़ा किया। उन्होंने कहा कि अंतरराष्ट्रीय शक्ति संतुलन का स्वरूप बदल गया है। पहले हमें सोवियत रूस अपनी सबसे बड़ी चुनौती नजर आता था। उसकी विस्तारवादी नीतियों से यूरोप को बचाने के लिए नाटो गठित किया गया था। लेकिन सोवियत संघ के विघटन के बाद अब वह हमारी चुनौती नहीं रहा। नाटो का भी कोई महत्व नहीं रहा। अमेरिका के लिए नई चुनौती चीन है। उसे अमेरिकी कंपनियां ही शक्तिशाली बना रही हैं। वह इन कंपनियों को अपने कानूनों में फंसाकर अमेरिका की उन्नत प्रौद्योगिकी चुरा रहा है और उससे अपनी शक्ति बढ़ाता जा रहा है, अमेरिका द्वारा उसे रोका जाना चाहिए।
अमेरिका में यह सब प्रश्न उठाने वाले डोनाल्ड ट्रम्प पहले व्यक्ति नहीं थे। अमेरिका में अकादमिक स्तर पर यह सभी बातें पहले कही जा रही थीं। विशेषकर 2008 की मंदी के बाद यह सब बातें कही जानी शुरू हो गई थीं। लेकिन अमेरिकी राजनीति जिस ढर्रे पर चल रही थी, उसमें यह सभी सवाल राजनीति के केंद्र में लाना संभव नहीं था। उसके लिए राजनीति के बाहर के एक ऐसे नेता की आवश्कयता थी, जो राजनैतिक शिष्टताओं की परवाह किए बिना इन सवालों को आक्रामक तरीके से उठा सके।
डोनाल्ड ट्रम्प ने केवल इन सवालों को आक्रामक तरीके से उठाया ही नहीं, उसके लिए उतनी ही आक्रामक रणनीति भी अपना ली। उन्होंने सबसे पहले उन प्रश्नों को किनारे किया, जो अब तक अमेरिकी और अंतरराष्ट्रीय राजनीति के केंद्रीय विषय बने हुए थे। उन्होंने सबसे पहले पर्यावरण संबंधी चिंताओं का उपहास करना शुरू किया, उसके बाद डब्ल्यूटीओ जैसी अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं को तिरस्कृत करना शुरू किया। संयुक्त राष्ट्र संघ से हाथ खींचने शुरू किए। इसके बाद उन्होंने चीन से व्यापारिक युद्ध शुरू कर दिया। धीरे-धीरे वे चीन को अपना मुख्य निशाना बनाते गए। उन्होंने यह कहना शुरू किया कि चीन विश्व की सुरक्षा के लिए खतरा बन गया है। वह अमेरिकी प्रौद्योगिकी के बल पर आगे बढ़ता रहा है। अब वह अमेरिका को चुनौती देने की स्थिति में आता जा रहा है। वह अंतरराष्ट्रीय व्यापारिक मार्गों में अवरोध पैदा करने में लगा हुआ है। वह पूर्वी चीनी समुद्र और दक्षिणी चीनी समुद्र में जो कर रहा है, वह इसका प्रमाण है।
चीन से हुए कोरोना के संक्रमण से अमेरिका को चीन के खिलाफ आक्रामक रुख अपनाने का एक और अवसर मिल गया था।
डोनाल्ड ट्रम्प की इस आक्रामक रणनीति ने अमेरिका के सत्ता प्रतिष्ठान में काफी उथल-पुथल पैदा की। इसे ठीक से समझने के लिए अमेरिका के पिछले पचास वर्षों के इतिहास को समझना आवश्यक है। अमेरिका दूसरे महायुद्ध के बाद संसार की सबसे अग्रणी शक्ति बन गया था। दो महायुद्धों के मुनाफों से वह संसार की अग्रणी आर्थिक शक्ति बना था। इन महायुद्धों में उसकी भागीदारी सीमित थी, इसलिए वह उनमें हुए विनाश से बच गया था। इन अनुकूल स्थितियों का लाभ उठाकर वह 1950 और 1970 के बीच आर्थिक समृद्धि और सामरिक शक्ति के शिखर पर पहुंच गया। उसके बाद उसे प्रदूषण फैलाने वाले अपने कल-कारखाने अखरने लगे।
अमेरिका के सत्ता प्रतिष्ठान में यह धारणा बनी कि संसारभर में फैल चुकी बहुराष्ट्रीय अमेरिकी कंपनियों के मुनाफे अमेरिका की समृद्धि सुनिश्चित रखने के लिए काफी है। अमेरिकी कल-कारखानों को सस्ते श्रम वाले चीन जैसे देशों में स्थानांतरित किया जा सकता है। यह रणनीति कुछ समय तक कारगर दिखती रही। फिर यह प्रकट होने लगा कि बहुराष्ट्रीय कंपनियां अपना सारा मुनाफा अमेरिका स्थानांतरित नहीं करतीं। बहुराष्ट्रीय होकर वे अपनी राष्ट्रीय प्रतिबद्धताएं भूलने लगती है। अपने मुनाफों का एक बड़ा हिस्सा तो वे बाहर रखती ही हैं, अपने प्रबंधन में भी वे दुनियाभर से योग्य लोगों को शामिल करती रहती हैं। इसलिए अमेरिका को उनका उतना लाभ नहीं मिलता, जितना सोचा गया था। दूसरी तरफ चीन और दूसरे देशों से आयातित सस्ते माल के आधार पर आम अमेरिकियों के जीवन स्तर को बनाए रखने की गारंटी नहीं की जा सकती। उद्योग तंत्र के सिकुड़ने से आम अमेरिकियों की वास्तविक आमदनी घटी है और उनके लिए जीवनयापन मुश्किल होता जा रहा है।
अमेरिकी कल-कारखानों को चीन स्थानांतरित करने के पीछे राजनैतिक कारण भी थे। अमेरिका सोवियत रूस के एक ताकतवर प्रतिद्वंद्वी के रूप में चीन को खड़ा करना चाहता था। लेकिन अमेरिकी यह भूल गए कि चीन की जनसंख्या अमेरिका से चार गुनी है। इसलिए उसमें अमेरिका से बड़ा बाजार विकसित करने की क्षमता है। यह बाजार अमेरिकी कंपनियों को पर्याप्त मुनाफा दे सकता है। इसी आशा में पिछले चार दशक से अमेरिकी कंपनियां चीन का औद्योगिक विकास करने में लगी रही हैं। इस प्रक्रिया में चीन आर्थिक और सामरिक रूप से मजबूत होकर स्वयं अमेरिका के चुनौती बनता जा रहा है।
अमेरिका में यह सब बातें काफी लोगों को दिख रही थीं। पर उन्हें दो टूक भाषा में कहने और उसके अनुरूप आक्रामक रणनीति बनाने के लिए डोनाल्ड ट्रम्प जैसे अक्खड़ और अनगढ़ स्वभाव वाले व्यक्ति की आवश्यकता थी। डोनाल्ड ट्रम्प ने अमेरिका की इसी ऐतिहासिक आवश्यकता को पूरा किया और वे आम अमेरिकियों के हीरो हो गए। लेकिन डोनाल्ड ट्रम्प की इस उथल-पुथल से उस समूचे व्यापारिक साम्राज्य को चोट पहुंच रही थी, जिसके पिछले पचास वर्ष से चली आ रही व्यवस्था में निहित स्वार्थ पैदा हो गए थे। यह निहित स्वार्थ व्यापारिक साम्राज्य के बाहर भी पैर फैलाए हुए हैं। अपने आपको वामपंथी दिखाने वाला अमेरिका का शहरी भद्र लोक भी इसी व्यापारिक साम्राज्य की छत्रछाया में फलता-फूलता रहा है। इसलिए समूचा प्रतिष्ठान डोनाल्ड ट्रम्प को सत्ता से बेदखल करने में लगा हुआ था।
भारत के वामपंथी डोनाल्ड ट्रम्प और नरेंद्र मोदी के निकट संबंधों का मजाक उड़ाते नहीं थकते। पर भारत के लिए जितना अनुकूल ट्रम्प प्रशासन था, उतना ही अनुकूल बाइडेन प्रशासन भी रहने वाला है। हमें यह याद रखना चाहिए कि अब तक हमेशा अमेरिका ने भारत से निकटता बनाने की कोशिश की है। भारत अपनी रणनीतिक स्वायत्तता बनाए रखने के लिए सदा सतर्क रहा है। इसलिए हमारी चिंता यह नहीं है कि नया अमेरिकी प्रशासन भारत-अमेरिकी संबंधों को क्या दिशा देगा। हमारी चिंता यह है कि हमारे पड़ोस में चीन जिस तरह की चुनौती बनकर उभर रहा है, उससे भारत की सुरक्षा को खतरा पैदा हो रहा है, उससे निपटने में कौन सी अमेरिकी नीतियां हमारे काम आ सकती हैं। डोनाल्ड ट्रम्प जिस आक्रामकता से चीन पर दबाव बना रहे थे, उससे यह गुंजाइश बन रही थी कि अमेरिकी कंपनियां धीरे-धीरे चीन से निकलकर अन्य क्षेत्रों में अपने साधन और ऊर्जा लगाएंगी।
बाइडेन चीन समर्थक नहीं है पर जिस तरह का दबाव डोनाल्ड ट्रम्प पैदा कर रहे थे, वैसा दबाव पैदा करना बाइडेन के स्वभाव में नहीं है। कुल मिलाकर स्थिति यह है कि बाइडेन ट्रम्प की नीतियों को आधे मन से जारी रखने के लिए विवश होंगे। डोनाल्ड ट्रम्प व्हाइट हाउस से निकलकर भी अमेरिकी लोगों पर अपना प्रभाव बनाए रखेंगे और इसका दबाव बाइडेन पर बना रहेगा। डोनाल्ड ट्रम्प को लगता है कि उन्होंने जो परिवर्तनकारी नीतियां शुरू की थीं, उन्हें आगे बढ़ाने के लिए उनका फिर व्हाइट हाउस में पहुंचना आवश्यक है। इस नाते वे चार साल बाद होने वाले अगले चुनाव पर नजर टिकाए रहेंगे। तब वे 78 वर्ष के होंगे फिर भी वे चुनाव में कूदना चाहेंगे। बाइडेन अमेरिकी राजनीति पर उनके प्रभाव को समाप्त नहीं कर पाएंगे। इस अर्थ में डोनाल्ड ट्रम्प के बाद भी डोनाल्ड ट्रम्प की छाया बनी रहने वाली है और अगले चुनाव में फिर उनकी वापसी हो सकती है।