अयोध्या भूमि में आकर्षण है। आज नहीं आदि से। यहां शांति और संतुष्टि प्राप्त होती है। साधक, श्रद्धालु भक्त के साथ देवता भी यहां वास करना चाहते हैं। भारतीय अध्यात्म जगत में अयोध्या को ऊर्जा और शांति का केंद्र माना जाता है। श्रद्धालुओं से आर्ष ग्रंथों तक इसकी तुलना स्वर्गलोक से की जाती है। इस ऊर्जा भूमि में ऐसा क्या है? जो मानव मन को शांति प्रदान करता है और आत्मा को ऊर्जा। वह बार-बार अयोध्या की भूमि पर पहुंचना चाहता है। यहां आने वाला हर व्यक्ति अयोध्या की महिमा को साथ लेकर जाता ही नहीं जीने की कोशिश भी करता है। ऐसा आम आदमी से श्रद्धालु तक, जिज्ञासु तक में होता है। अयोध्या की ऐसी चर्चा एक नहीं कई स्थानों पर सामने आती है। मन में उमड़ती-घुमड़ती अयोध्या की महत्ता की यथासंभव जानकारी के लिए भक्तों, चिंतकों, मनीषियों और संत-महात्माओं का सतत् सानिध्य प्राप्त कर गूढ़ रहस्यों तक पहुंचने की कोशिश की गई। इसमें कितना सफल या असफल रहे इसका फैसला आप पर है।
अयोध्या को समझने की कोशिश हुई तो तीन नाम सबसे पहले एक दूसरे में गुथे मिले। मर्यादा पुरुषोत्तम राम, अयोध्या और सरयू। अयोध्या को समझने के लिए अयोध्या के साथ श्रीराम का होना अति आवश्यक है। क्योंकि फिलहाल तो श्रीराम ही अयोध्या हैं और अयोध्या ही श्रीराम हैं। बगैर श्रीराम के अयोध्या एकांगी है और बगैर अयोध्या के मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम भी एकांगी माने जा सकते हैं। अयोध्या के साथ श्रीराम का होना अनिवार्य है क्योंकि लोग श्रीराम से ही अयोध्या की पहचान को समझ पाते हैं। ऐसा संत के साथ विद्वतजन मानते हैं। अयोध्या को समझने के लिए मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम के पीछे वनवासी राम, अयोध्या के राजकुमार श्रीराम से होते हुए सृष्टि के आदि बिंदु तक की यात्रा करनी होगी और फिर क्रमश: वहां से वापस चिंतन और मंथन के साथ मर्यादा पुरुषोत्तम बनने तक श्रीराम को समझने और उनसे नि:सृत होने वाली ऊर्जा को आत्मसात करना होगा।
आदि सृष्टि से श्रीराम के अवतार तक सृष्टि के पालनकर्ता श्रीहरि विष्णु ने कई अवतार ग्रहण किया। इनमें पहला पूर्ण अवतार और दूसरा अंशावतार माना जाता है। इन दोनों में मामूली अंतर होता है। सृष्टि के शुरूआती दौर में श्रीहरि विष्णु ने पूर्ण अवतार के रूप में मत्स्य अवतार, कूर्म अवतार, नृसिंह अवतार आदि धारण किए थे, जबकि श्रीराम और भगवान परशुराम के रूप में उन्होंने अंशावतार ग्रहण किया था। अंशावतर में वह अपने चतुर्भुज रूप का प्रकटीकरण नहीं करते हैं।
भगवान विष्णु के अवतारों के लिए तपस्या को महत्वपूर्ण पहलू माना जाता है। बाबा तुलसी ने श्रीराम चरित मानस के बालकांड में कहा है-
सो अवसर विरंचि जब जाना, चले सकलि सुर साजि विमाना।
गगन विमल संकुल सुर जूथा, गावहिं गुन गंधर्व वरूथा।
स्तुति करें नाग मुनि देवा, बहु विधि लावहिं निज निज सेवा।।
अर्थात भगवान विष्णु के अवतार ग्रहण करने के पूर्व सृष्टि के ऋषि, मुनि, तपस्वी उस स्थान पर पहुंच जाते हैं और नारायण के अवतार लेने के लिए तपस्या करते हैं। ऋषि, मुनियों की इस तपस्या से उस क्षेत्र में सकारात्मक ऊर्जा की सघनता बढ़ जाती है। इस सकारात्मक ऊर्जा के प्रभाव से अवतार का मार्ग प्रशस्त होता है। ऐसा लगभग सभी अवतारों के पूर्व माना जाता है। श्रीराम के अवतार के पूर्व भी अयोध्या के ईर्द-गिर्द, ऋषि, महर्षि, मुनियों, तपस्वियों का आगमन हुआ। इसके बाद ही श्रीहरि विष्णु ने श्रीराम के रूप में अवतार लिया। इसी अवतार के समय को बाबा तुलसी ने व्याख्यायित किया है। आसपास तपस्या करने वाले ऋषि, मुनियों के साथ देवता प्रतिदिन अपने आराध्य के दर्शन के लिए पहुंचते हैं।
लाखों साल पहले हुए श्रीरामावतार के बाद अब तक अयोध्या के ईर्द-गिर्द ऐसे ऊर्जा के कई स्थल विद्यमान हैं। इन स्थलों के जरिए अयोध्या के विस्तृत स्वरूप सामने आने की संभावना है। अयोध्या से प्रवाहित सतत् सकारात्मक ऊर्जा के बढने के साथ अयोध्या को विस्तार मिलने के संकेत हैं। यही संभावना ‘अद्भुत है अयोध्या’ की ओर संकेत करते हैं। अयोध्या और उसकी सांस्कृतिक परिधि के ऊर्जा स्थलों के साथ दूर तक की यात्रा अयोध्या के अद्भुत होने का एहसास कराएगी। इसी उद्देश्य को साथ लेकर इन स्थलों का भ्रमण किया गया।