मनुष्य ने जब खेती करना सीखा होगा तभी वह स्थाई जीवन जीना भी सीखा होगा। हल की लकीरों से ही सभ्याताओं ने भी आकार लिया होगा। भारत इसमें हमेशा आगे रहा है। यहां तो कृषि आधारित अर्थव्यवस्था रही है। खेती-किसानी भारतीय अर्थव्यवस्था का आधार थी। इसका इतिहास बहुत पुराना है। खेती का ही एक महत्वपूर्ण अंग पशुपालन रहा। उत्तम भारतीय खेती की गवाही तो हमारे प्राचीन साहित्य, धर्मग्रंथ और पुरातात्विक साक्ष्य भी देते हैं। हमारा अतीत गवाही देता है कि भारत में खेती किसानी प्राचीन काल से उन्नत रही है।
पहले अपने प्राचीन साहित्यों पर नजर डालते हैं। इसमें वैदिक साहित्य हमारी जानकारी को बढ़ाते हैं। वैदिक काल में भी भारत खेती किसानी से पूरी तरह से परिचित था। इस बात का प्रमाण वैदिक साहित्य देते हैं। श्रृगवेद और अथर्ववेद में खेती से संबंधित ऋचाएं मौजूद हैं। इसमें खेती से संबंधित उपकरणों और उसके तरीकों से भी परिचय कराया गया है। ऋग्वेद में क्षेत्रपति, सीता और शुनासीर पर एक श्लोक है जिससे वैदिक काल में खेती किसानी के बारे में हम अवगत हो सकते हैं।
शुनं वाहा: शुनं नर: शुनं कृषतु लांगलम्।
शनुं वरत्रा बध्यंतां शुनमष्ट्रामुदिंगय।।
शुनासीराविमां वाचं जुषेथां यद् दिवि चक्रयु: पय:।
तेने मामुप सिंचतं।
अर्वाची सभुगे भव सीते वंदामहे त्वा।
यथा न: सुभगाससि यथा न: सुफलाससि।।
इन्द्र: सीतां नि गृह् णातु तां पूषानु यच्छत।
सा न: पयस्वती दुहामुत्तरामुत्तरां समाम्।।
शुनं न: फाला वि कृषन्तु भूमिं।।
शुनं कीनाशा अभि यन्तु वाहै:।।
शुनं पर्जन्यो मधुना पयोभि:।
शुनासीरा शुनमस्मासु धत्तम्
एक ऋचा से हल के प्रयोग का भी पता चलता है
एवं वृकेणश्विना वपन्तेषं
दुहंता मनुषाय दस्त्रा।
अभिदस्युं वकुरेणा धमन्तोरू
ज्योतिश्चक्रथुरार्याय।।
अथर्ववेद से पता चलता है कि जौ, धान, दाल और तिल उस काल के प्रमुख अनाज थे।
व्राहीमतं यव मत्त मथो
माषमथों विलम्।
एष वां भागो निहितो रन्नधेयाय
दन्तौ माहिसिष्टं पितरं मातरंच।।
खेती के लिए खाद के बारे में भी अथर्ववेद से पता चलता है।
संजग्माना अबिभ्युषीरस्मिन्
गोष्ठं करिषिणी।
बिभ्रंती सोभ्यं।
मध्वनमीवा उपेतन।।
‘गृह’ एवं ‘श्रौत’ सूत्रों में खेती से जुड़े धार्मिक कर्मकांडों का विस्तार के वर्णन मिलता है। इसमें बारिश के निमित्त विधि विधान की चर्चा है। इसके साथ ही चूहों और पक्षियों से खेत में लगे अन्न की रक्षा कैसे की जाए इसका भी वर्णन है। पाणिनि की ‘अष्टाध्यायी’ में कृषि संबंधी अनेक शब्दों की चर्चा है, जिससे तत्कालीन कृषि व्यवस्था की जानकारी प्राप्त होती है।
ऋग्वैदिक काल से ही भारत में कृषि व्यवस्था के केन्द्र में रहा है। आज भी गांवों में बहुत कुछ बचा है। इस व्यव्स्था को हम देख सकते हैं। अनेक भाषा भाषियों के बीच उनके कृषि पंडितों की कहावतें प्रचलित है। हिंदी भाषाभाषियों के बीच ये ‘घाघ’ और ‘भड्डरी’ के नाम से प्रसिद्ध है। उनके ये अनुभव आघुनिक वैज्ञानिक अनुसंधानों के परिप्रेक्ष्य मे खरे उतरे हैं।
इसके अलावा भी कई साहित्य है जिनके उस दौर में खेती किसानी के बारे में जानकारी मिलती है। ‘वृक्षायुर्वेद’ भी उनमें से एक है। यह संस्कृत साहित्य है। इसमें पेड़ पौधों के विकास एवं पर्यावरण की सुरक्षा से संबंधित विचार है। ‘वृक्षायुर्वेद’ 60 पृष्ठों में 325 श्लोक हैं। इसमें अन्य विषयों के अलावा 170 पौधों की विशेषताएं दी गई है।
बीजों का संरक्षण उनका ट्रीटमेंट, रोपने के लिए गढ्ढा खोदने, भूमि का चुनाव, सींचने की विधियां, खाद एवं पोषण, पौधों को रोगों से सुरक्षा और बाग का विन्यास आदि का वर्णन है। हम कह सकते हैं कि यह ग्रंथ खेती बागवानी के लिए ज्ञान का भंडार है। इसके अलावा भी कई ऐसे साहित्य है जो प्रचीन काल में खेती-किसानी के बारे में हमे अवगत कराते हैं। पराशर नाम के मुनि के भी साहित्य उनमें से एक हैं। पराशर मुनि ने जो ग्रंथ लिखे उनमें ‘कृषि संग्रह’, ‘कृषि पराशर’ और ‘पराशर तंत्र’ नाम से जाने जाते है। लेकिन उनका प्रमुख ग्रंथ ‘कृषि पराशर’ है।
माना जाता है कि पराशर ने यह ग्रंथ 8वीं शती के पूर्व लिखा गया। ‘कृषि पराशर’ में खेती पर ग्रह नक्षत्रों का मेघ पर प्रभाव, वर्षामाप, वर्षा का अनुमान, समय के अनुसार वर्षा का प्रभाव, खेती की देखभाल, बैलों की सुरक्षा, गोपर्व, गोबर की खाद, हल, जुताई, बैलों के चुनाव, कटाई के समय रोपण, अनाज संग्रह आदि पर विस्तार से वर्णन है। इस ग्रंथ में खेती में काम आने वाले यंत्रों के बारे में भी बताया गया है। ग्रंथ में बताया गया है कि पांच हाथ की हरीश, ढाई हाथ का कुढ, डेढ हाथ का फार और कान की तहर जुवा होना चाहिए। इसी ग्रंथ में बताया गया है कि चंद्रमा के संवत्सर का राजा होने पर धरती धान्य से पूर्ण होती है। शनि के राजा होने पर बारिश कम होती है। इस ग्रंथ में पराशर मुनि जलसंरक्षण की भी तरकीब बताते हैं।
महाभारत और रामायण दो ऐसे महाकाव्य हैं, जो भारतीय जन मानस में रचे बसे हैं। ये दोनों ग्रंथ भी उस समय की कृषि व्यवस्था के बारे में हमें समझाने में मदद करते हैं। महाभारत के सभा पर्व में वर्णन आता है कि नारद ने युधिष्ठिर से पूछा ‘क्या तुम्हारे राज्य में किसान संतुष्ट है? क्या तुम्हारे राज्य में समुचित दूरियों पर जल से भरे हुए बड़े-बड़े तालाब बने हुए हैं, जिससे कृषि मात्र वर्षा पर निर्भर न रहे? क्या किसानों का अन्न, बीज नष्ट होने से बचाया जाता है, और क्या तुम उन्हें एक प्रतिशत ब्याज पर अनुग्रह ऋण देते हो? हे तात! क्या तुम्हारे राज्य में खेती, पशुपालन और वाणिज्य के कार्य सज्जन व्यक्तियों के जरिए सुसंपन्न होता है? क्योंकि इन तीन वृत्तियों पर ही जनता का सुख निर्भर है’
कच्चिनसर्वेकर्मांता: परोक्षास्तेविशंकिता:
सर्वेवपुनरुत्सृष्ट: संसृष्टंचात्रकारणम। (पंचम अध्याय, श्लोक 32)
कच्चिनचौरर्लुब्धैर्वाकुमारै: स्त्रिवलेनवा।
त्वयावापीड्यतेराष्ट्रंकच्चिततुष्ट: कृषीवला:।। (पंचम अध्याय, श्लोक 77)
कच्चिदराष्ट्रेतड़ागानी पूर्णनिचवृहन्तिच।
भागशोविनिवृष्टानि न कृषिरदेवमातृका।। (पंचम अध्याय, श्लोक 78)
कच्चिनंभक्तंबीजंच कर्षकस्यावसीदति।
प्रत्येकंचशतम वृद्धस्यददास्याणमनुग्रहम।। (पंचम अध्याय, श्लोक 79)
इसी तरह रामायण में भी कृषि के बारे में विस्तार से चर्चा मिलती है। रामायण के अयोध्या कांड में ‘अन्नमुत्यावच’ और ‘बीजमुष्टि’ शब्द का प्रयोग मिलता है। ‘कृषि गोरक्ष जीविन:’ ‘पंर्जन्यमिव कर्षका:’पदों का भी प्रयोग हुआ है।
अयोध्या कांड में ही देवी सीता तपस्वनी अनुसुइया को अपनी उत्पत्ति एवं विवाह का प्रसंग बताती है। इसमें “तस्य लांगूलहस्तस्य कृषत:” “क्षेत्रमण्डलम्” अथवा “मुट्ठी के औषधि बीजों को बिखेरने का प्रसंग है”
अरण्यकांड में भी कृषि का जिक्र आता है। यहां लक्ष्मण राम से शरद ऋतु का वर्णन कर रहे हैं। जिसमें वह कहते हैं जौ और गेंहू के खेतों से युक्त ये बहुसंख्यक वन भाप से ढके हुए हैं…ये सुनहरे रंग के धान, खजूर के फूल से आकार वाली बालों से जिनमें चावल भरे हैं, कुछ लटक गए हैं।
’’वाष्पाच्छन्नारण्यानि यवगोधूमवन्ति च …………। 16।
खर्जूर पुष्पाकृतिभिः शिरोभिः पूर्णतण्डुलैः
शोभते किंचिदालम्बाः शालयः कनकप्रभाः ……… । 17।
पुरातात्विक साक्ष्य भी भारत की उन्नत खेती को प्रमाणित करते हैं। सिंधु नदी के अवशेष इसमें प्रमुख हैं। सिंधु नदी के अवशेषों से जानकारी मिलती है कि, उस समय के लोग राजस्व अनाज से ही चुकाते थे। मुअनजोदड़ों में मिले कोठारों से यह दावा भी किया जा सकता है कि, अनाज अधिक मात्रा में पैदा होता था। गेंहू और जौ के जो दाने मिले वह ट्रिटकम कंपैक्ट और ट्रिटिकम स्फीरौकोकम जाति के हैं। इन दोनो प्रजाति के गेंहू की खेती आज भी पंजाब में होती है। यहां से मिले जौ हाडियम बलगेयर प्रजाति का है। इस प्रजाति का जौ मिश्र के पिरामिडों में भी मिलते हैं।
उत्खनन में कपास के भी पैदा होने के प्रमाण मिलते हैं। इतिहासकारों के अनुसार सिन्धु घाटी सभ्यता के लोगों की अर्थव्यवस्था कृषि उत्पादन पर ही निर्भर थी। उस समय कृषि उत्पादन पर्याप्त मात्रा में हुआ करता था। प्रकृति की उदारता के कारण कृषि उत्पाद इतना होता था कि उसके भण्डारण की समस्या एक और महत्वपूर्ण खोज का कारण बनी। यह नयी खोज थी, बर्तनों का निर्माण। बरतन मिट्टी से बनाये जा सकते थे। उनका इस्तेमाल न केवल अनाज के भंडारण के लिए, बल्कि खाना पकाने के लिए भी किया जाता था।
पुरातात्विक आधार पर हम कह सकते हैं कि पहले–पहल लगभग 6000 साल पहले मिट्टी को हाथों से ढालकर बर्तनों का निर्माण किया गया। बरतन बनाने के लिए बहुत आगे चलकर चाक का इस्तेमाल किया गया। महत्वपूर्ण बात है, मिट्टी के बरतन को टिकाऊ और मजबूत बनाने के लिए आग में पकाना। आग में तपे मिट्टी के बर्तनों के इस्तेमाल से निसंदेह, अनाज का भंडारण संभव हुआ। साथ ही इसके जरिए एक महत्वपूर्ण काम भोजन बनाने के तरीके में बदलाव का था। आग में पके बर्तनों से कई तरह से खाना पकाया जाने लगा। उससे पहले भोजन को आग पर केवल भून लिया जाता था। इससे मानव के आहार में इतना अधिक सुधार हुआ, जितना कि पहले कभी नहीं हुआ था।
नवपाषाण युग की एक और महत्वपूर्ण खोज थी, टोकरियां बनाने और बुनने की कला। टोकरियां बनाने की शुरुआत भी सबसे पहले पश्चिम एशिया में हुई और संभवतः यह बुनाई के विकास में भी सहायक सिद्ध हुई। क्योंकि दोनों में खास किस्म की नियमिताओं ,और लगभग एक जैसे नमूनों की जरुरत होती है। परंतु जोती गयी फसल की पहली कटाई के बाद जो घटानाएं घटीं उनके क्रम के बारे में सभी विशेशज्ञ सहमत नहीं हैं। अमरीकी पुरातत्ववेत्ता लेविस बिन्फोर्ड के अनुसार बहुत सी ऐसी उपलब्धयां, जिन्हें कृषि की खोज का सहज परिणाम समझा जाता है, वास्तव में दूसरे संदर्भों में पहले से ही प्राप्त की जा चुकी थी। उनका कहना है कि, बर्तनों के निर्माण की शुरुआत जापान में शिकार करने और संग्रह करने वाले उन लोगों से हुई जो समुद्र पर निर्भर होते थे। अन्य प्रमाणों से इस तथ्य का संकेत मिलता है कि कृषि और घरेलू पौधे उगाने की जानकारी, उससे कहीं पहले उस समय से मौजूद थी, जब लोग शिकार और संग्रह को छोड़कर कृषि के लिए एक जगह आबाद हो गये।
क्रम चाहे कोई भी रहा हो, लगभग 3000 साल पहले तक मानव जाति ने वे सब बौद्धिक क्षमताएं प्राप्त कर ली थीं। इसी से आगे चलकर कला, संगीत, साहित्य, विज्ञान और प्रौद्दोगिकी के क्षेत्र में हम आगे बढ़ सके। इन क्षमताओं ने आगे आने वाली सहस्त्राब्दियों में विभिन्न पथ प्रदर्शक खोजों के लिए एक गति निर्धारित कर दी।
पशुओं को घर में पालने का काम कृषि का सहायक काम था। घर में पाले गए पशुओं, जैसे भेड़ों, बकरियों, गायों–बैलों से दूध और मांस मिल जाता था। उनका गोबर एक पोषक खाद के तौर पर इस्तेमाल किया जाता था। भेड़ों और बकरियों के बालों को बुनकर कपड़े तैयार किए जाते थे। बैलों आदि को हल चलने और भार ढ़ोने के काम लाया जाता था।
जिस समय कृषि का विकास हो रहा था, उसी दौर में हमारे पुरखे औजार बनाने के नए–नए कौशल सीख रहे थे। इसीलिए इसे नव पाषाण युग का नाम दिया गया। पत्थर के अधिक उन्नत और परिष्कृत औजारों के निर्माण की शुरुआत हुई। पत्थर की कुल्हाड़ी इन्हीं में से एक थी। इस कुल्हाड़ी का एक किनारा ध्यान से घिसकर धारदार बना दिया जाता था। इस उम्दा औजार के कारण नव पाषाण युगीन मानव को वनभूमि के ऊपर अपने कदम ज़माने का मौका मिला। वनों को साफ करके इन आदि किसानों ने फसलें उगाना शुरू किया। इसी दौर में आग से पेड़ों को जला कर साफ की जाने लगी। उसी साफ जगह पर नुकीली लकड़ियों से अन्न के दानें बोए जाने लगे। भारत में पहाड़ी आदिम जातियां अब भी ऐसा करती हैं।बाद में पत्थर के फावड़े ईजाद किए गए। इन फावड़ों में लकड़ी के हत्थे लगे होते थे।
फसलें बोना ज्यादातर महिलाओं का काम होता था। ये भी माना जा सकता है कि पहली फसल उगाने वाली महिलाएं ही हो। मवेशियों को घर में पालने और हल के का कारण महिलाओं को खेती-बाड़ी के कठोर परिश्रम से छुट्टी मिली। हल आज भी पुरुष ही चलाते हैं। हल के पीछे–पीछे महिलाऐं बीज डालती है।