जाने-माने पत्रकार भानुप्रताप शुक्ल ने अपने जीवन के अंतिम दिनों में एक राज खोला। वह यह कि उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक गुरू जी गोलवलकर से एक दिन पूछ ही लिया कि ‘आपकी आयु तो अब निश्चित हो गयी है तो फिर आपके बाद हिन्दुत्व का कार्य कौन करेगा?’ इस प्रश्न पर वे एक क्षण शांत रहे। फिर बोले कि ‘मैं अदृश्य रह कर यह कार्य करता रहूंगा।’ उनके इस उत्तर से भानुप्रताप शुक्ल की जिज्ञासा शांत नहीं हुई इसलिए पुनः पूछा कि ‘हमें दृश्यमान कौन दिखाई देगा?’ इस पर उन्होंने धीरे से कहा- ‘अशोक सिंघल।’
यह 1972 की बात है। गुरूजी गोलवलकर लखनऊ आए हुए थे। उससे पहले उनके कैंसर का आपरेशन हो गया था। भानुप्रताप शुक्ल उनकी सेवा में थे। तभी यह वार्ता हुई थी। जिसे उन्होंने अपने मन में ही रखा था। जब उन्हें लगा कि वे चंद दिनों के ही मेहमान हैं तब इसे एक दिन उजागर किया। वे अशोक सिंघल के पास पहुंचे। यह बात बताई। जो अज्ञात सी रही है। अशोक सिंघल के निधन के बाद उसे एकल अभियान के प्रणेता श्याम गुप्त ने एक संस्मरण में लिखकर उजागर किया है। अगर वे इसे न लिखते तो यह रहस्य ही बना रहता। ऐसी स्थिति में सिर्फ यही पता होता कि एक समय ऐसा भी आया था जब वे प्रचारक जीवन से अलग होकर वेदों के प्रचार-प्रसार में लगना चाहते थे। इसी आशय का पत्र उन्होंने गुरूजी गोलवलकर को लिखा था। जिसके उत्तर में उन्होंने सलाह दी थी कि ‘आप अपनी अंतः प्रेरणा के अनुकूल कार्य में संलग्न हों।’ अशोक सिंघल ने अनुमति मांगी। उन्हें सरसंघचालक ने अनुमति दे दी।
इसके बावजूद वे संघ कार्य में बने रहे। कैसे? इसकी भी एक कहानी है। उन्हें भाऊराव देवरस ने समझाया। कहा कि ‘तुम्हारे निर्णय पर मुझे आश्चर्य है। अरे भाई, संघ कोई व्यसन है, जो छोड़ा जा सकता है? संघ तो विचार है। विचार कभी छूटता नहीं। उसमें आपका योगदान उतना न हो पाए, यह अलग बात है। पर आप संघ से मुक्त हो जाएंगे, यह संभव ही नहीं है। इसलिए चिंता किस बात की।’ कुछ इसी तरह की सलाह उन्हें पंडित रामचंद्र तिवारी ने दी। जिन्हें अशोक सिंघल अपना गुरू मानते थे। उन्होंने कहा था कि ‘एक लक्ष्य प्राप्ति के लिए दूसरे मार्ग से जाकर क्या अंतर पड़ जाएगा ? ’ ऐसे परामर्श पर उन्हें गहन आत्मचिंतन करना पड़ा। उसका ही परिणाम था कि अशोक सिंघल ने निर्णय किया-संघ कार्य ही उनके लिए श्रेष्ठ है। उसके बाद ‘वे अधिक स्फूर्ति, शक्ति और चेतना के साथ संघ-कार्य में जुट गए थे।’
लेकिन वेद प्रचार के लिए भी सक्रिय रहे। वैदिक यज्ञ में उन्हें अपार शांति मिलती थी। इसे बहुत बार उन्होंने जब तब बातचीत में बताया है। 1964 की घटना है। वे वैदिक यज्ञ में एक पखवाड़े शामिल हुए। जहां उन्हें अनुभव हुआ कि सब कुछ छोड़कर यही कार्य करना चाहिए। उन्हें सहसा जो द्वंद हुआ वह उनकी गहरी संवेदनशीलता का परिचायक है। इस प्रसंग से उनके व्यक्तित्व का एक अचर्चित प्रश्न सामने आता है। इससे यह बात भी निकलती है कि समाज-सेवा के लिए समर्पित हर श्रेष्ठ व्यक्ति के जीवन में कभी-न-कभी ऐसा कोई क्षण आता अवश्य है, जब वह सहज मानवीय मनोद्वेलन में अपने कार्य और लक्ष्य के प्रति कभी-कभी स्वयं ही संदिग्ध हो उठता है। ऐसे समय में सही परामर्श से वह व्यक्ति अपनी नियति से चाहे अन चाहे साक्षात्कार कर लेता है। ऐसा ही एक क्षण अशोक सिंघल के जीवन में आया था। एक तरफ वे द्वंद से गुजर रहे थे तो दूसरी तरफ उसी साल गुरूजी गोलवलकर की पहल पर स्वामी चिन्मयानंद के संदीपनी आश्रम में विश्व हिन्द परिषद की स्थापना का विचार हो रहा था। जिससे वे संयुक्त महासचिव के रूप में बहुत बाद में जुड़े। फिर महासचिव बनाए गए। और अंततः अंतरराष्ट्रीय अध्यक्ष का पद संभाला। इस प्रकार विश्व हिन्दू परिषद में भी वे अपने पांव चलकर शिखर पर अपनी योग्यता और प्रतिभा से पहुंचे।
विश्व हिन्दू परिषद उनकी नियति थी। उस नियति ने जो सुनिश्चित कर रखा था वह ही उस समय हुआ जब वे विश्व हिन्दू परिषद में पहुंचे। इसे श्याम गुप्त ने इन शब्दों में लिखा है- ‘हम सबके लिए वे साक्षात परम पूज्य गुरूजी (माधव सदाशिव गोलवलकर) के अवतार थे। 1973 में गुरूजी का निधन होता है और यही वर्ष है जब अशोकजी यमराज को वापस लौटाकर पुनः जीवन प्राप्त करते हैं। अध्यात्म के शिखर पुरूष के प्रतिनिधि के नाते उन्होंने संत महात्माओं को एक मंच पर लाने का जो अदभुत कार्य करके दिखाया वह हिन्दुत्व के पुनर्जागरण के इतिहास में सदा अविस्मरणीय रहेगा।’
हिन्दू समाज के जागरण का वे उपकरण बन सके। इसके मूल कारण की जब भी खोज की जाएगी तो निष्कर्ष निकलेगा कि मीनाक्षीपुरम की घटना न हुई होती तो वे संघ कार्य में ही रहे होते। वृहत्तर दायित्व का अवसर न आया होता। लेकिन नियति ने उन्हें पुकारा। यह कहना अत्यंत कठिन है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तीसरे सरसंघचालक बाला साहब देवरस उस रहस्य को जानते थे या नहीं। जिसे गुरूजी गोलवलकर ने भानुप्रताप शुक्ल को बताया था। पर यह तो सभी जानते हैं कि मीनाक्षीपुरम की घटना को बाला साहब देवरस ने संघ की वैचारिक दिशा के लिए मील का पत्थर बनाया। पूरे देश से संघ के जिला प्रचारकों का एक सम्मेलन हुआ। जो बेंगलुरू के पास पांच दिनों तक चला। उसमें ही संघ की दलित नीति भी निर्धारित हुई। उसका ही एक परिणाम था कि ‘विराट हिंदू समाज’ नाम का मंच बना। जिसमें हिंदू समाज के हर संप्रदाय के आचार्य सम्मिलित हुए। उसका पहला समागम दिल्ली में हुआ, जिसका संचालन अशोक सिंघल ने किया। तब वे संघ में दिल्ली प्रांत प्रचारक थे। विराट हिंदू समाज के उस समागम में देश भर से 5-6 लाख लोग आए। वह एक नया मोड़ था। धर्मांतरण से उत्पन्न जागरण का देशव्यापी वह प्रकटीकरण था।
उस समागम की सफलता को स्थायित्व प्रदान करने के लिए जरूरी था कि विश्व हिन्दू परिषद में प्रखरता आए। वह था असाधारण चुनौतीपूर्ण कार्य। उसे पूरा करने का बीड़ा अशोक सिंघल के अलावा दूसरा उठा पाने में शायद ही कोई समर्थ रहा होगा। इसलिए उन पर नया दायित्व आया। वह कैसे आया? इसे सरसंघचालक मोहन भागवत ने उस समय प्रसंगवश बताया जब अशोक सिंघल का 90वां जन्मदिन का एक समारोह दिल्ली में हुआ। वह उनका पहला और अंतिम जन्म दिन समारोह था। वहां थोड़ी भूमिका बनाकर सरसंघचालक मोहन भागवत ने बेंगलुरू सम्मेलन को याद किया। वह 1981 में हुआ था। जहां संघ के प्रचारकों के राष्ट्रीय जमावड़े में इस पर विमर्श हुआ कि मीनाक्षीपुरम की घटना से उत्पन्न चुनौती का सामना कैसे करें? इसे चिन्हित करते हुए मोहन भागवत ने थोड़े विनोद में कहा कि वहां जिस तरह हिंदुत्व की भावी दिशा पर अशोक सिंघल बोले थे, उससे हमने यह अनुमान लगा लिया था कि उन्हें विश्व हिंदू परिषद में भेजा जाएगा। कहावत भी है- जो बोले, वह दरवाजा खोले। यही अशोक सिंघल पर अक्षरशः घटित हुआ।
तत्कालीन सरसंघचालक बाला साहब देवरस के इस निर्णय से दो लक्ष्य सिद्ध हुए। पहला यह कि विश्व हिंदू परिषद का कायाकल्प हो गया। उससे पहले वह वानप्रस्थियों का एक आश्रम जैसा था। अशोक सिंघल ने उसे हिन्दुत्व के लड़ाकूओं का बड़ा अखाड़ा बना दिया। ऐसा अखाड़ा नहीं जहां पलहवान कुस्ती लड़ते हैं, बल्कि धर्म की रक्षा के लिए समय-समय पर हिन्दू समाज ने जो अखाड़े बनाए उसी परंपरा को उन्होंने पुनर्जीवित किया। पुराने शब्द को नया अर्थ वे ही दे सकते थे। क्या उनमें ऐसा पुरूषार्थ अचानक प्रकट हुआ? यह कोई भी पूछ सकता है। प्रश्न दो कारणों से पूछे जाते हैं। जिज्ञासावश या संदेह उत्पन्न होने पर। जिस भी कारण से हो, अगर कोई यह जानना चाहता है तो उसे यहां इतना ही बताया जा सकता है कि कानपुर में रहते हुए अशोक सिंघल ने करीब ढाई दशक तक उत्तर प्रदेश के छात्र-युवा आंदोलनों के सूत्रधार की सफल और सार्थक भूमिका निभाई थी। मैं कह सकता हूं कि वह उनकी मूल पूंजी थी जो अयोध्या आंदोलन में काम आई। लेकिन इसे कितने लोग जानते हैं!
दूसरी बात जो हुई वह अकल्पनीय थी। किसी की कल्पना से भी परे थी। वह यह कि विश्व हिंदू परिषद में अशोक सिंघल ने नई जान डाल दी। इसमें ज्याद वक्त नहीं लगा। विराट हिंदू समाज के मंच पर संत-सन्यासी और धर्माचार्यों के जमावड़े से जो उर्जा निकली उसे उन्होंने बहुत वैज्ञानिक तरीके से अयोध्या आंदोलन में रूपांतरित कर दिया। भारतीय इतिहास के ज्ञात-अज्ञात पन्नों में जिन अभियानों और आंदोलनों का वर्णन मिलता है उनसे कहीं अधिक गहरा और व्यापक वह आंदोलन था जिसे अयोध्या आंदोलन कहते हैं। इसने हिंदू समाज को आत्म विस्मृति से निकाला। नई चेतना से भरापूरा बनाया। क्या मजाल है! कोई भी गहन शोधक नहीं मिलेगा जो अशोक सिंघल के बोले-कहे में से किंचित एक शब्द ऐसा नहीं खोज सकेगा जिसमें वे अयोध्या आंदोलन का स्वयं श्रेय लेते हों। तभी तो स्वामी सत्यमित्रानंद जैसे उंचे संत से सहज ही ये शब्द फूट पड़े कि ‘60 वर्ष की उम्र में ही अशोकजी को हमें महात्मा कह देना चाहिए था। भारत में तमाम प्रकार की उपासनाएं हैं, दार्शनिक मार्ग हैं, लेकिन सब मार्गों के संत, महात्माओं, धमार्चार्यों को किसी एक मंच पर देश की, समाज की समस्याओं को हल करने के लिए जोड़ देने वाले व्यक्ति थे, अशोक सिंघल जी!’
अयोध्या की मर्मांतक पीड़ा बहुत पुरानी रही है। सदियों पुरानी। आंदोलन की चिन्गारी पांच सौ साल पहले पैदा हुई थी। समय-समय पर न जाने कितने लोग अयोध्या की पीड़ा के समाहार के लिए सामने आए। जिन्होंने अयोध्या की महिमा-गरिमा की पुनः स्थापना में खुद को खपा दिया। उनसे भिन्न थे अशोक सिंघल। वे पहले व्यक्ति माने जाएंगे जो चिन्गारी को दावानल बनाने में समर्थ हुए। जो असंभव था उसे संभव बनाया। ऐसी बड़ी सफलता से अहंकार आ ही जाता है। अशोक सिंघल संकल्पवान थे पर अहंकार रहित थे। ऐसा व्यक्तित्व दुर्लभ होता है। उन्होंने अयोध्या की पीड़ा को अपने अंतर मन में उतारा। एक अनुभूति से गुजरे। जिसने उन्हें विकल बनाया। फिर क्या था! ऐसा व्यक्ति चुप नहीं बैठता। उठता है और चल पड़ता है। वे चले अकेले। लेकिन कारवां बनाने के लिए नहीं, इतिहास रचने के लिए। अशोक सिंघल ने इतिहास रचा। समाज इतिहास की करवट का साक्षी बना। इसका रहस्य वे लोग जानते हैं जो उनसे मिले हैं। बातचीत की है। एक बातचीत में उन्होंने कहा कि ‘राम जन्मभूमि का मामला क्यों जल्दी सिद्ध हो रहा है? कहीं कोई पराजय नहीं है। शिवाजी के इतिहास को हम पढ़ते हैं, कहीं पराजय उनको मिली ही नहीं। जहां गए, वहीं से विजयी होकर लौटे। कितना महान् आश्चर्य है?’ अयोध्या आंदोलन की गति जैसे ही तीव्र हुई अनेक सवाल उठे। कह सकते हैं कि वे सवाल उठाए गए। उनमें एक यह था कि क्या संत इस देश को चलाएंगे? इस पर अशोक सिंघल जवाबी सवाल पूछते थे। ‘तो मैं उनसे सवाल करता हूं कि तब क्या तुम चलाओगे इस देश को? संत ही तो चला रहे हैं। अरे भाई! जिसको दिखता है, वही तो चलाएगा इस देश को? जिसे दिखता ही नहीं, वह क्या चलाएगा?’
यह उनकी आस्था थी कि ‘संत महात्मा अपनी तपस्या और तपश्चर्या को लगाने के लिए तैयार हो जाएं तो कौन-सा ऐसा काम है जो सिद्ध न होता हो?’ बिल्कुल यही ठीक-ठीक घटित हुआ। कैसे और क्यों? यही जानने-समझने की जरूरत है। इससे ही गहरे रूप से संबद्ध एक प्रश्न और है। वह यह कि अयोध्या आंदोलन में सबसे महत्वपूर्ण घटना कौन सी थी? इसे इस तरह भी पूछ सकते हैं कि अयोध्या आंदोलन की वास्तव में नींव किस घटना से पड़ी? कोई कह सकता है कि ताला खुलने से शुरूआत हुई। यह सच नहीं है। ताला खुलवाने में अशोक सिंघल की प्रत्यक्ष भूमिका तो नहीं थी पर उनके प्रयास से जो परिस्थिति पैदा हुई उसके कारण ही ताला खुला। विश्व हिन्दू परिषद ने उस समय ‘राम जानकी रथ’ निकाला था। वह गांव-गांव पहुंचा। उसका प्रभाव मुख्यमंत्री वीर बहादुर सिंह पर पड़े बिना नहीं रह सकता था। वे सक्रिय हुए। प्रधानमंत्री राजीव गांधी और अरूण नेहरू को समझाया कि ताला खुलवाने के राजनीतिक लाभ क्या-क्या होंगे। इसे अशोक सिंघल इन शब्दों में कहा करते थे- ‘सच बात तो यह थी कि अगर शाहबानो का मसला न होता तो रथ जरूर रूकता। जब रथ गांव-गांव पहुंच गया और संतों ने सरकार को चेतावनियां दीं तो इन्हें यानी उत्तर प्रदेश सरकार को लगा कि पूरा हिन्दू समाज जागृत है। गांव-गांव आ गया। तो फिर सब उलट जाएगा। न जाने क्या हो? वीर बहादुर के मन में प्रेरणा जागी कि यह ताला कैसे खुले? और फिर उसे न्यायालय से खुलवाया।’ वह ताला 1951 से लगा हुआ था।
अयोध्या आंदोलन की वास्तव में नींव इस घटना से नहीं पड़ी। इससे एक वातावरण बना। नींव पड़ी 10 नवंबर, 1989 को। उसी दिन राम जन्मभूमि मंदिर के लिए शिलान्यास हुआ। उसे अशोक सिंघल ने ‘दैवेच्छा’ की संज्ञा दी। उस अवसर पर बाला साहब देवरस ने एक संदेश दिया। जो पत्थर की लकीर बन गई है। संदेश था- ‘यह भारतीय राष्ट्रीयता की विजय है। महात्मा गांधी ने स्वतंत्र भारत को रामराज्य के रूप में देखा था। जब उनके दृष्टीकोण को कोई संकुचित या सांप्रदायिक नहीं कह सकता तो यह राम जन्मभूमि मंदिर निर्माण कार्य भी सांप्रदायिक नहीं है। रामराज्य की स्थापना की यह पहली कड़ी है।’
उस ऐतिहाहसक घटना की इस संदेश में सही परिभाषा है। उसे घटित हुए 30 साल से ज्यादा हो गए हैं। तब लखनऊ और दिल्ली में कांग्रेस की सरकारें थी। कहां वीर बहादुर सिंह, राजीव गांधी और देवराहा बाबा! क्या कोई सूत्र इन्हें सहज ही जोड़ता है? सिर्फ ‘दैवेच्छा’! लाखों संत महात्मा जो अपने आश्रमों, पीठों और मठों में रहा करते थे उन्हें अशोक सिंघल ने अपने विनय भाव से राम जन्मभूमि आंदोलन से जोड़ दिया। वे आंदोलन के समर्पित सेनानी बन गए। करोड़ों देशवासियों की आकांक्षा और रामभक्ति को उन्होंने कसौटी पर कसा। लोगों के समर्पण की शक्ति को जगाया। सत्ता और वह भी कथित रूप से सेकुलर की शरारत को राम के शरणागत किया। राजनीति के मायावी दांव-पेच को अप्रभावी बनाया। चुनाव के चैसर पर राम जन्मभूमि आंदोलन को दांव पर लगाए जाने के खेल को खत्म किया। तभी तो राजीव गांधी ने देवराहा बाबा का निर्देश स्वीकार किया। जाने-माने पत्रकार हेमंत शर्मा ने तब जो बड़ी खबर दी थी उसका यह अंश बहुत प्रासंगिक है-‘राम मंदिर शिलान्यास के बारे में महत्वपूर्ण फैसले अयोध्या या फैजाबाद में नहीं किए जा रहे। ये फैसले लखनऊ या नई दिल्ली में भी नहीं किए गए, बल्कि सब कुछ वृंदावन में देवराहा बाबा के आश्रम में तय हुआ। देवराहा बाबा ने ही विश्व हिन्दू परिषद के नेताओं को निर्देश दिए। पिछले हफ्ते डेढ़ घंटे की बातचीत के दौरान उन्होंने राजीव गांधी को भी निर्देश दिए। इसके बाद भी राजीव के दूत लगातार बाबा के संपर्क में रहे। अयोध्या में वही हुआ, जो इन बैठकों में तय हुआ।’ ‘राम जन्मभूमि मंदिर के प्रबंधक न्यासी अशोक सिंघल ने ‘जनसत्ता’ से बातचीत में माना ‘देवराहा बाबा एक धार्मिक महापुरूष हैं, जो हमारे हर कदम का मार्गनिर्देश करते रहे हैं। बाबा ने छह नवंबर को राजीव गांधी से कहा था कि उन्हें मंदिर निर्माण को विश्व हिन्दू परिषद की मांग का समर्थन करना चाहिए। बाद की घटनाओं से साफ है कि गांधी ने वही किया, जो बाबा ने उनसे कहा।’
इसे एक बड़ा चमत्कार ही कहा जाएगा। दूसरा कोई शब्द नहीं है जो इसे व्यक्त करता हो। पर यह भी सच है कि वह चमत्कार अशोक सिंघल के प्रयासों की पराकाष्ठा का परिणाम था। उन्होंने एक दिन तय किया कि राम जन्मभूमि पर मंदिर के लिए प्रयास करना है। वह एक अभियान का संकल्प था। उसी से पहली धर्म संसद हुई। नई दिल्ली का विज्ञान भवन पहली बार संत महात्माओं के सम्मेलन का साक्षी बना। वह पहली धर्म संसद थी। एक अभिनव प्रयोग था। 1984 में 7-8 अप्रैल को संतों ने जो फैसले किए उसी से राम जन्मभूमि मुक्ति का अभियान प्रारंभ हुआ। पांच साल के अभियान का ही चमत्कार था कि केंद्र की राजीव गांधी सरकार ने मंदिर का शिलान्यास करवाया। उस दौर में अशोक सिंघल की भूमिका संयोजन की थी। वे जहां जरूरी होता था वहीं आगे आते थे। नहीं तो संत और सन्यासी ही उस दौर में नेतृत्व कर रहे थे।
एक बातचीत में अशोक सिंघल ने माना कि राम जन्मभूमि मुक्ति अभियान का ‘दायरा इतना विशाल होगा, इसकी कल्पना नहीं थी। पूरा जनसमुद्र उमड़ आया। जैसे असंख्य लोग साथ में आ गए और ऐसा अनेक प्रसंगों में दिखा भी।’ उस समय घटनाक्रम जिस तेज गति से घटित होता चला गया उसके प्रभाव और परिणाम से सत्ता राजनीति अप्रभावित रह ही नहीं सकती थी। नतीजतन सरकारें बदल गई। वास्तव में वे आंदोलन की आग में भस्म हों गई। संत तब उत्साहित हुए। इसलिए कि वे सरकार को झुकाना चाहते थे। वह झुकी भी। पर जब सरकारें बदल गई तो संतों ने अपनी शक्ति को जाना-समझा। नए प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने केंद्र में शपथ ली। मुलायम सिंह लखनऊ में सत्तारूढ़ हुए। अशोक सिंघल ने भी देखा कि जिस राम जन्मभूमि मंदिर के प्रश्न को वे छोटा सा विषय समझते थे वह तो राष्ट्र की पूरी राजनीति में भूकंप लाने में समर्थ है।
आत्मशुद्धि से आत्मदर्शन सुलभ हो जाता है। यह एक आध्यात्मिक प्रक्रिया है। इससे गुजरना और आध्यात्मिक होना कौन नहीं चाहता है! हर आस्तिक व्यक्ति इसकी आकांक्षा पालता है। लेकिन विरले ही होते हैं जो उस मंजिल पर सहज ही पहुंच जाते हैं। अशोक सिंघल उनमें से एक थे। ऐसा व्यक्ति जब किसी आंदोलन का नेतृत्व संभालता है तब अनेक अकल्पित घटनाएं अपने आप घटित होती जाती है। उनमें कार्य-कारण का संबंध खोजना पहेली को हल करने जैसा हो जाता है। यही उस समय हुआ जब अशोक सिंघल ने अयोध्या आंदोलन का नेतृत्व संभाला। उन दिनों रामायण और महाभारत के सीरियल दूरदर्शन पर धारावाहिक दिखाए गए। उस समय पूरा देश दूरदर्शन के सामने होता था। सड़कों पर आवाजाही रूक जाती थी। वे विरान और सुनसान हो जाती थी। जिस पीढ़ी ने उस दौर को देखा वह उन लमहों को याद कर रोमांचित और आंनदित हो उठता है। अगर कोई राजनीतिक व्यक्ति होता तो इसका श्रेय भी वह स्वयं लेता। अशोक सिंघल भिन्न थे और श्रेष्ठ थे। जब एक बार यह प्रसंग छिड़ा तो वे बोले- ‘यह सब तो अजित कुमार पांजा के कारण हुआ। उनकी पत्नी ने कहा कि ‘रामायण’ बहुत अच्छा सीरियल है उसे दिखाना चाहिए। पांजा ने ही ‘महाभारत’ का प्रसारण करवाया।’ पांजा उन दिनों सूचना प्रसारण मंत्री थे। अयोध्या आंदोलन के रथ उन दिनों उत्तर प्रदेश और बिहार में चल रहे थे। उन धारावाहिकों से युवाओं में रामभक्ति की भावना जगी। उसी का एक परिणाम था, बजरंग दल का गठन।
अयोध्या आंदोलन का नेतृत्व अशोक सिंघल ने बड़े विकट समय में संभाला था। जब देखा कि संयोजन से बात नहीं बनेगी तो स्वयं सामने आए। शिलान्यास के बाद स्वाभाविक था कि आंदोलन मंदिर निर्माण के लिए चले। उसके लिए ही उन दिनों कारसेवा का आयोजन हुआ। वही समय है जब लालकृष्ण आडवाणी ने रथ यात्रा शुरू की। दूसरी तरफ अयोध्या में कारसेवा के नेतृत्व का मोर्चा अशोक सिंघल ने संभाला। अक्टूबर 1990 का वह समय था। मुलायम सिंह की सरकार भयानक दमन पर उतर आई थी। अयोध्या पहुंचने के हर रास्ते पर नाकेबंदी थी। ‘अंधेर नगरी-चौपट राजा’ का दृश्य था। सरकार ऐड़ी चोटी का जोर लगाकर खोज रही थी कि अशोक सिंघल कहां हैं? लखनऊ में बैठे मुलायम सिंह बार-बार अफसरों से पूछ रहे थे कि अशोक सिंघल को अब तक पकड़ा क्यों नहीं गया। वे बौखलाए हुए थे। आखिर 30 अक्टूबर, 1990 का वह दिन आया जब सत्ता को ललकारते हुए अशोक सिंघल प्रकट हुए। वे कारसेवकों के हर स्थान पर गए। पुलिस से मुठभेड़ हुई। वे घायल हुए। अस्पताल में भर्ती थे। पुलिस उन्हें खोज रही थी। वे वहीं थे लेकिन पुलिस उन्हें पहचान नहीं पाई। इससे पहले वे कारसेवा प्रारंभ करने का संकल्प पूरा करा चुके थे। जिसे उत्तर प्रदेश की सरकार रोकने पर अमादा थी। बहुत बाद में अशोक सिंघल ने बताया कि वे अपने गुरू के दिए मंत्र का उस समय जाप कर रहे थे। जिसके प्रभाव में पुलिस की आंखों पर पर्दा पड़ गया था।
अयोध्या आंदोलन के सेनापति अशोक सिंघल जानते थे कि इन सरकारों से लड़ना होगा। वे यह नहीं जानते थे कि भाजपा नेतृत्व की सरकार जब केंद्र में आएगी तो उससे भी उन्हें जूझना पड़ेगा। अटल बिहारी वाजपेयी सरकार से भी उन्हें न्याय की गुहार करनी पड़ी। पिछली सरकारों से वे लड़े थे। वे सरकारें अन्यायी थी। लेकिन उन्हें वाजपेयी सरकार से पूरी उम्मीद थी कि वह न्याय का रास्ता अपनाएंगी। संघर्षों से निखरा अशोक सिंघल का व्यक्तित्व उस समय मानसिक पीड़ा का सामना कर रहा था जब उन्हें यह दिखा कि वाजपेयी सरकार अयोध्या में मंदिर बनवाने में मदद की बजाए रोड़े अटका रही है, अनेक बहानों से। उम्मीद में अशोक सिंघल उन दिनों बयान देते थे कि सरकार भी चलेगी। उनका आशय वाजपेयी सरकार से था। वे अपने बयान में यह जोड़ते थे कि मंदिर भी बनेगा। उनका अनुमान गलत साबित हुआ। यह बात 2002 की है। लेकिन गोधरा कांड ने माहौल बदल दिया। सरकार को अपनी चाल चलने का बहाना मिल गया। विश्व हिन्दू परिषद की सीधी सी मांग थी कि 42 एकड़ जमीन जो उसकी है और विवाद से परे है उसे सरकार सौंप दे। इसके लिए साधु-संत प्रधानमंत्री से मिले। उन्हें ज्ञापन दिया। यह सब हो ही रहा था कि वाजपेयी सरकार ने वही रवैया अपनाया जो पिछली सरकारों में होता रहा। पिछली सरकारों की भांति वाजपेयी सरकार को भी अशोक सिंघल ने अपने मन से उतार दिया।
उनका मोहभंग हो गया। उस अवस्था में वे चुप बैठने वाले नहीं थे। एक विद्रोही तेवर अपनाया। उस समय का इतिहास अवश्य लिखा जाएगा। फिलहाल इतना ही काफी है कि अशोक सिंघल ने जगह-जगह एक ही बयान दिया कि अयोध्या मुद्दे पर अटल बिहारी वाजपेयी अपनी विश्वसनीयता खो चुके हैं। उनके इस कथन से एक विस्फोट सा हो गया। संघ नेतृत्व सक्रिय हुआ। उन्हें रोकने के प्रयास किए गए। वास्तव में अयोध्या आंदोलन को रोकने का वह प्रयास था। ऐसे समय में भी अशोक सिंघल निराश नहीं हुए। शायद ही ऐसा कोई क्षण होगा जब वे हताश-निराश दिखे हों। कारण कि वे पूर्णता के भाव से भरे हुए व्यक्ति थे। उनका आत्मबल उन्हें विपरीत परिस्थितियों में भी हमेशा ऊर्जावान बनाता रहता था। पर वे मर्माहत अवश्य हुए। तब राम की शरण में पहुंचे। अयोध्या पहुंचकर परिषद के राष्ट्रीय संघ (टीम का यह नाम है) की बैठक बुलाई। वहां अशोक सिंघल ने अपने सहयोगियों को पूरी बात बताई। विश्व हिन्दू परिषद के नेताओं ने उन्हें एक बात पर राजी कर लिया कि वे अगले कदम के लिए मोरोपंत पिंगले और दत्तोपंत ठेंगड़ी से बात करें। उनसे बात हुई। दो पंतों ने उन्हें तीसरा पथ दिखाया। वह संघर्ष का पथ था। जिसे जारी रखना ही स्वधर्म है। यही उन्होंने उस बातचीत से गांठ बांधी।
नए पाथेय से प्रेरित अशोक सिंघल ने अगला कदम उठाया। परामर्श का एक सिलसिला चलाया। उन्होंने अयोध्या आंदोलन के सभी संत-महात्मों से बात की। सबने अपना आक्रोश यह कहकर प्रकट किया कि ‘अयोध्या आंदोलन को सत्ता राजनीति के लिए गिरवी रख दिया गया है।’ लेकिन वे आंदोलन में सक्रिय रहेंगे, इसका आश्वासन दिया। संतों के आक्रोश को अशोक सिंघल ने अपने उपर झेला। उन्हें भरोसा दिलाया कि आंदोलन नए सिरे से छेड़ना पड़ेगा। सरकार जायज मांगों को मानने के लिए तैयार नहीं है। इस प्रकार अशोक सिंघल मैदान में फिर से उतरे। हालांकि वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के उस समय के नेतृत्व से खिन्न थे फिर भी संघ के अनुशासन में बने रहे जबकि अयोध्या आंदोलन ने उन्हें विश्वव्यापी नायक के स्थान पर पहुंचा दिया था। अपनी जड़ों से जुड़े रहने की यह कला कोई अशोक सिंघल से सीख सकता है।
बाबरी ढांचे के ध्वंस को वे अलग ढंग से देखते थे। वे कहते थे कि ‘जहां हिन्दू पूजा करते हों, उसे मस्जिद नहीं कहा जा सकता। उस पुराने मंदिर की जर्जर दीवारें ही भव्य मंदिर के निर्माण के लिए गिराई गई थी।’ इसी आधार पर वे मंदिर निर्माण के हर संभव प्रयास में आजीवन जुटे रहे। 2003 में उन्होंने धर्म संसद बुलाई। वह अंतिम धर्म संसद है। उसमें यह निर्णय भी लिया गया कि राम जन्मभूमि पर मंदिर के लिए प्रयास किया जाएगा। उसके लिए भविष्य में धर्म संसद बुलाने की जरूरत नहीं होगी। वे समझ गए थे कि राम जन्मभूमि पर मंदिर बनने की अड़चनों को अदालत ही दूर करेगी। उन्हें यह संदेह था कि अदालत का फैसला उनके जीवनकाल में शायद न आए। 2010 में जब इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला आया तो वे पूरे भरोसे से कहते थे कि सुप्रीम कोर्ट इसे पलट देगा। यही हुआ भी। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले के जो-जो आधार चुने उनमें एक आधार वह भी था जिसे अशोक सिंघल हमेशा कहते थे। वह हिन्दुओं की पूजा की निरंतरता थी।
राम जन्मभूमि पर मंदिर का निर्माण उनका जीवनोद्देश्य था। नरेंद्र मोदी की सरकार के डेढ़ साल बीतने पर उन्होंने मंदिर के मसले को जिस तरह उठाया वह उनके यथार्थवादी विचार और व्यवहार का उत्कृष्ट उदाहरण है। नरेंद्र मोदी की सरकार बनवाने में उनकी अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका थी। फिर भी वे मंदिर के प्रश्न को अधर में नहीं छोड़ना चाहते थे। वे समझ गए थे कि अब मंदिर के रास्ते में कानूनी अड़चन ही है। जिसे सुप्रीम कोर्ट ही दूर करेगा। वे सच साबित हुए। अशोक सिंघल भविष्य में अयोध्या आंदोलन के हनुमान माने जाएंगे। इस प्रकार वे इतिहास पुरूष बन गए हैं।