वेदों के अनुसार जो न जीती जा सके वह अयोध्या। इसके नौ द्वार बताए गए हैं। उस दृष्टि से यह देह भी अयोध्या ही है। जो रोम-रोम में रमता है, सर्वत्र जिसका वास है, जो नित्य विद्यमान हैं, ऐसी सनातन शास्वत, सार्वभौम प्रत्येककाल में स्थिर अथवा समीचीन और नित्य प्रासंगिक सत्ता श्रीराम हैं तो यह देह भी एक प्रकार से अयोध्या ही है। जिससे लड़ा नहीं जा सकता यानी जिससे जीता नहीं ज सकता वह अयोध्या है।
लेकिन 1528 में अयोध्या से लड़ा तो गया। एक दु:साहसी, बर्बर-उन्मादी आक्रांता वहां आया और उसने वहां दुस्साहस किया, उस संस्कृति पर प्रहार किया जो अजेय, अपौरुषेय और सबका कल्याण करने वाली है। वहां प्रहार किया गया और आज तक शासन-प्रशासन, न्यायपालिका और विधि व्यवस्था के साथ युद्ध हो रहा है। उस अयोध्या से जो जीती नहीं जा सकती। किसी को विजय नहीं मिलेगी वहां। वहां की संस्कृति पर प्रहार हुआ, जन्मस्थान पर प्रहार हुआ।
जब हम अयोध्या का विचार करते हैं तो राम का विचार आता है और भारत का विचार करते हैं तो राम का नाम आता है। राम भारत के प्रभात का प्रथम स्वर हैं। भारत का प्रथम स्वर, अभिनंदन का स्वर, प्रणाम का स्वर, भारत की पहली गूंज, प्रतिज्ञा और शपथ का स्वर राम हैं। ऐसा स्वर जिसमें भारत का व्यक्ति मुक्ति की कामना करता है। अथवा वह स्वर जो काशी में महादेव भोर से रात्रि तक अहर्निश दान कर रहे रहे हैं, वह राम मंत्र है। कोई देवाधिदेव महादेव के बारे में पूछे कि वह दिन-रात काशी में कर क्या रहे हैं? तो उनका उत्तर होगा कि राम नाम मंत्र का दान कर रहा हूं!
जब बात अयोध्या की होती है तो वह इक्ष्वाकु वंश परंपरा के प्रतापी सम्राटों की नगरी है। वह अयोध्या जिसके राजा ने स्वयं और अपनी पत्नी तारा और पुत्र रोहित को धर्म की रक्षा के लिए डोम राजा के हाथों बेच दिया। कोई मुझसे पूछे कि अयोध्या क्या है, तो केवल दशरथ ही नहीं उनके जैसे न जाने कितने प्रतापी धर्मात्माओं की नगरी है अयोध्या। शिव की अयोध्या, प्रथम पुरुष मनु के साथ ही रघु, अज जैसे राजाओं की भी नगरी है। भारत की संस्कृति-संस्कार, संवेदनाएं, सभ्यता और भारत को जानना हो तो सच मानिए बिना अयोध्या के भारत को जाना नहीं जा सकता है। अयोध्या के बिना भारत की कल्पना नहीं की जा सकती। शील, सौंदर्य, माधुर्य, ऐश्वर्य, त्याग, मुक्ति और मर्यादा के पर्याय हैं राम।
राम एक संस्कृति हैं। राम का नाम जिह्वा पर आने से मनीषा जाग उठती है। राम के नाम से मंद बुद्धि व्यक्ति के अंदर प्रज्ञा का संचार हो उठता है। मैं अयोध्या पहली बार सात अक्टूबर, 1984 को पहुंचा, उस समय मैं तरुण संन्यासी था। एक कार्यक्रम में मैंने परमहंस रामचंद्र दास को देखा। उसके बाद मेरे मन में इच्छा हुई कि अब कहा जाऊं, हनुमानगढ़ी जाऊं या नंदीग्राम जाऊं या और कहीं जाऊं। मेरे मन में मणिपर्वत जाने की इच्छा थी और मैं सोच रहा था कि क्या जनकपुर से इतनी रत्न, मणि और संपदा आयी होगी कि पर्वत के सामान ढेर लग गया था। लेकिन वहां जाकर देखा तो लोगों ने बताया कि यहां तो धूल के एक कण में भी लोग ऐश्वर्य खोज लेते हैं, अयोध्या के लोग इतना उदार और विशाल हो गए थे कि उन्हें कोई एक कण भी दे तो उसे पर्वत मान लेते हैं।
1985 में 1992 और एक दो बार और अयोध्या गया। दुस्साहसी अभी भी अयोध्या से लड़ रहे हैं उन्हें विजय नहीं मिलेगी, कभी नहीं मिलेगा। अयोध्या ऐसी जगह है कि जब देवता, अप्सरा, शनकादि आदि अपने को असुरक्षित महसूस कर रहे थे, जब निशाचरों ने स्वर्ग पर प्रहार किया तब देवताओं ने सोचा कि कौन ऐसा है जो हमारी रक्षा कर सकता है। तब देवताओं ने अयोध्या का ही ध्यान किया और सोचा कि अयोध्या से कोई आए और मेरी रक्षा करे। तब राजा दशरथ ने अपनी चतुरंगिणी सेना लेकर देवताओं की रक्षा की थी। यह ऐसी अयोध्या है जब देव भी आहत हो, व्याकुल हो गए अथवा जब वे असुरक्षित अनुभव करते थे या सामर्थ्यहीन महसूस करते थे तो अयोध्या की ओर टकटकी लगाकर देखते थे कि अयोध्या हमारा समाधान करेगी।
भारतमाता का वैभव अब सर्वत्र जग रहा है। पूरे विश्व में योग दिवस अपनाकर, आयुर्वेद को स्वीकार कर और कुंभ मेला को सांस्कृतिक धरोहर घोषित कर भारत के गीत गा रहे हैं। इस भारत से विश्व के भाग्य की कपाट कोई नगरी खोलेगी तो वह अयोध्या है। इसी से राष्ट्रोदय होगा, विश्व को नई दृष्टि मिलेगी क्योंकि अयोध्या समाधानमूलक है, व्यवस्थामूलक है और धर्म की रक्षा करती है
(4 जनवरी 2019 को अयोध्या पर्व के उद्घाटन समारोह स्वामी अवधेशानंद गिरि जी का वकतव्य)