शौर्य की साधना का प्रतीक अयोध्या

 

बनवारी

सर्वोच्च न्यायालय में अयोध्या मामले की सुनवाई लंबी खिंचती चली जा रही है। पहले न्यायालय ने यह आशा व्यक्त की थी कि दोनों संप्रदाय के सुधीजन इस मामले को आपसी सहमति से सुलझा लें। लेकिन ये होना आसान नहीं है। मुस्लिम समुदाय जो अयोध्या में राम जन्मभूमि पर मंदिर बनने को विवादग्रस्त बनाए हुए हैं, कोई एकरूप समुदाय नहीं है। मुस्लिम समुदाय के बहुत से गणमान्य व्यक्तियों ने मंदिर के पक्ष में अपनी राय जताई है। लेकिन फिर भी अन्य बहुत से नेता इस विवाद को बनाए रखना चाहते हैं। अभी मुस्लिम समुदाय के सभी नेताओं ने सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय को मानने की घोषणा कर रखी है। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय का फैसला मुस्लिम समुदाय के नेताओं की आशा के अनुरूप नहीं हुआ, तो कहा नहीं जा सकता कि वे वितंडा नहीं खड़ी करेंगे। सर्वोच्च न्यायालय देश के दो बड़े समुदायों के बीच कड़वाहट को न बढ़ाना चाहे, यह समझ में आता है।

राम मंदिर आंदोलन की अग्रणी शक्ति के रूप में बीजेपी केंद्र की सत्ता तक पहुंच चुकी है। उसके लिए यह केवल एक अवसर ही नहीं है, बल्कि उसका यह दायित्व भी है कि वह ऐसा राजनीतिक दबाव बनाए या बनने दे, जिससे इस समस्या का शीघ्र निपटारा हो सके।

लेकिन वह इस विवाद पर विचार को अनंतकाल तक टाले रहे, इससे किसी का भला नहीं होने वाला। अब उसने अगली तारीख पर सुनवाई की प्रक्रिया तय करने का निर्णय किया है। लेकिन हर बार एक या दूसरे तकनीकी मामले पर दूसरे पक्ष के वकील मामले को टलवाने में सफल हो जाते हैं। इस बार ऐसा नहीं होगा, ऐसी आशा की जानी चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय यह निर्णय दे चुका है कि वह इस विवाद को विवादग्रस्त भूमि के वाद के रूप में देख रहा है और उसे केवल यह निर्णय करना है कि उस पर किसके अधिकार को मान्यता दी जाए। इससे यह विवाद सीधा और सीमित हो गया है और उसके बारे में निर्णय उतना पेचीदा नहीं रह गया। उसका निपटारा शीघ्र हो जाना चाहिए। विशाल हिन्दू समुदाय को आशा है कि अब तक सामने आए सब तरह के साक्ष्यों के आधार पर फैसला उसके पक्ष में आएगा। अगर यह आशा पूरी नहीं हुई तो हिन्दू समुदाय को सर्वोच्च न्यायालय का फैसला शायद ही स्वीकार हो। अयोध्या मामले की सुनवाई टलती देखकर एक बार फिर साधु-संत व्यग्र हो गए हैं। उनके सम्मेलनों का सिलसिला शुरू हो गया है। उन्होंने मांग की है कि सरकार एक अध्यादेश लाकर मंदिर बनाने का रास्ता साफ करे। जब मामला सर्वोच्च न्यायालय में हो, तो सरकार ऐसा कोई अध्यादेश ला सकती है, इसमें संदेह है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी मंदिर को लेकर व्यग्रता स्पष्ट कर चुका है। विपक्षी दल इसे अगले वर्ष होने वाले आम चुनाव से जोड़कर देख रहे हैं। उनका आरोप है कि अयोध्या में राम मंदिर की मांग देशभर के हिन्दुओं में एक भावनात्मक उफान पैदा करने के लिए की जा रही है। संघ और बीजेपी के नेता उसका राजनीतिक फायदा उठाना चाहते हैं। लेकिन जब हमने अपने लोकतंत्र को यह स्वरूप दे रखा है कि देश का हर छोटा-बड़ा मामला राजनीतिक स्वरूप ले लेता है, तो अयोध्या जैसे बड़े मामले के राजनीतिकरण को कैसे रोका जा सकता है। बीजेपी को राम मंदिर का मुद्दा महत्वपूर्ण लगता है।

 कांग्रेस की ओर से भी अयोध्या विवाद का राजनीतिक लाभ उठाने की कम कोशिश नहीं हुई। बाबरी मस्जिद को राजनीतिक विवाद बनाने की शुरुआत कांग्रेस के शासन काल में ही हुई थी। 22-23 दिसंबर 1949 को जब मस्जिद में श्रीराम और सीता जी की मूर्तियां प्रकट हुई थी, तो जवाहरलाल नेहरू ने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री गोविंद बल्लभ पंत और गृहमंत्री लाल बहादुर शास्त्री को मूर्तियां हटाने के निर्देश दिए थे। लेकिन फैजाबाद के उपायुक्त केके नैयर ने मूर्तियां हटाने से इनकार कर दिया। क्या यह संभव है कि देश के प्रधानमंत्री और राज्य के मुख्यमंत्री के आदेश का पालन एक उपायुक्त रोक सकता, अगर इस पूरे मामले में कांग्रेस की मिलीभगत न रही होती। यह विवाद अलबत्ता उतना ही पुराना है, जितनी बाबरी मस्जिद। हिन्दुओं ने इस स्थान को फिर से अपने नियंत्रण में लेने की निरंतर कोशिश की। लेकिन अंग्रेजों को लगता था कि इस विवाद को बनाए रखकर वे हिन्दू-मुस्लिम समुदाय को बांटे रख सकते हैं। इसलिए अपने शासन काल में उन्होंने इस समस्या का निपटारा नहीं होने दिया।

कांग्रेस ने भी कमोबेश यही किया। उसने जब-तब अयोध्या विवाद का फायदा उठाने की आधी-अधूरी कोशिश की। लेकिन फिर इस बात से संतोष कर लिया कि विवाद बना रहा तो वह मुसलमानों को अपने पीछे बनाए रख पाएगी। यह संकीर्ण दृष्टि थी और उससे अंतत: कांग्रेस को नुकसान ही हुआ। आज उसके पीछे न हिन्दू हैं, न मुसलमान। वह देश की सबसे बड़ी पार्टी की अपनी स्थिति तो खो ही चुकी है, अब उसे राष्ट्रीय पार्टी कहना भी मुश्किल होता जा रहा है। वह राम मंदिर को लेकर भी दुविधा में ही दिखाई देती है। उसके नामी वकील मुसलमानों का पक्ष लेकर अदालत में खड़े दिखाई देते हैं और वह स्वयं सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय की प्रतीक्षा करती हुई एक तटस्थ मुद्रा अपनाए दिखाई देती है। ऐसी स्थिति में बीजेपी इस पूरे विवाद का लाभ उठाए, तो इसमें आश्चर्य की कौन सी बात है। राम मंदिर आंदोलन की अग्रणी शक्ति के रूप में वह केंद्र की सत्ता तक पहुंच ही चुकी है। उसके लिए यह केवल एक अवसर ही नहीं है, बल्कि उसका यह दायित्व है कि वह ऐसा राजनीतिक दबाव बनाए या बनने दे, जिससे इस समस्या का शीघ्र निपटारा हो सके। इस दबाव का कुछ असर तो दिखने ही लगा है, क्योंकि मुसलमानों के बीच से अब यह स्वर कहीं अधिक मुखर होकर सुनाई दे रहा है कि मुसलमानों को अयोध्या में राम मंदिर बनवाने में रोड़ा नहीं बनना चाहिए। बल्कि उन्हें उनमें सहायक होना चाहिए। इस तरह वे विशाल हिन्दू समाज का दिल जीतने में सफल हो जाएंगे। बीजेपी क्योंकि अभी मंदिर बनवाने के लिए सीधे कोई कदम नहीं उठा सकती। इसलिए वह प्रतीकात्मक कदम उठा रही है।

अयोध्या शौर्य की साधना का प्रतीक रहा है और उसका अर्थ ही है ऐसा राज्य जो नीति में इतना ऊंचा हो कि किसी को उससे युद्ध की इच्छा न हो और पराक्रम में इतना ऊंचा हो कि किसी को उससे लड़ने का साहस न हो।

दीपावली से पहले उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने घोषणा की थी कि उनकी सरकार इस दिशा में कुछ करने जा रही है। लेकिन उनकी घोषणा से न संत-महात्माओं को कोई बहुत संतोष हुआ होगा न बीजेपी के राजनीतिक समर्थकों को। उत्तर प्रदेश सरकार ने फैजाबाद जिले का नाम बदलकर उचित ही अयोध्या कर दिया है। यह भी घोषणा की गई है कि वहां बनने वाले हवाई अड्डे का नाम श्रीराम पर होगा। यह कुछ अविचारित लगता है। भगवान श्रीराम के नाम से अयोध्या में हवाई अड्डा बने, यह कोई बहुत बड़े गौरव की बात नहीं है। हवाई अड्डे का नाम अयोध्या पर ही होना चाहिए। इसी तरह किसी चिकित्सीय संस्थान का नाम महाराज दशरथ के नाम पर हो, यह उनके लिए कोई बड़े गौरव की बात नहीं है।

महाराजा दशरथ शब्दवेधी वाण चलाने के लिए विख्यात थे। उनका शौर्य भी इतना विख्यात था कि जब रावण ने भारत के अधिकांश राजाओं को पराजित कर दिया था, उसे महाराजा दशरथ से युद्ध करने की हिम्मत नहीं हुई थी। अयोध्या में कोई ऐसा बड़ा संस्थान बनना चाहिए, जो रणनीतिक सोचविचार और शोध के लिए अंतरराष्ट्रीय ख्याति पा सके। ऐसे किसी संस्थान का नाम महाराजा दशरथ के नाम पर पड़े तो यह उचित ही होगा और यह उस संस्थान के लिए भी गौरव की बात होगी। हमारे राजनीतिक लोगों ने राम जन्मभूमि के मंदिर के पुनर्निर्माण का मुद्दा तो उठाया, लेकिन उन्होंने अयोध्या के पूरे गौरव का और उसके सभ्यतागत महत्व का ध्यान नहीं रखा। देश में चार प्राचीन नगर हमारे सभ्यतागत प्रतीक माने जाते रहे हैं। काशी ज्ञान की साधना का सदा केंद्र रहा है। इसलिए वह ज्ञान के अधिष्ठाता देवता भगवान शिव की नगरी है। अयोध्या शौर्य की साधना का प्रतीक रहा है और उसका अर्थ ही है ऐसा राज्य जो नीति में इतना ऊंचा हो कि किसी को उससे युद्ध की इच्छा न हो और पराक्रम में इतना ऊंचा हो कि किसी को उससे लड़ने का साहस न हो। भगवान राम के समय की अयोध्या में ये दोनों ही विशेषताएं विशेष रूप से थी। इसलिए रामराज्य हमारे लिए शासन का आदर्श बन गया। याद रखना चाहिए कि गांधी जी के नेतृत्व में हमने स्वतंत्रता की लड़ाई रामराज्य के लिए ही लड़ी थी। इसी तरह मथुरा भौतिक समृद्धि का प्रतीक रहा है और हमारे भौतिक जीवन का मानक भी। वह भगवान कृष्ण की स्मृति धारण किए हुए हैं। चौथा नगर उज्जयनी है, जो याद दिलाता रहता है कि हमारी सभ्यता सदा जय की ओर ले जाने वाली हो। इस रूप में हमें राम मंदिर के साथ-साथ पूरे देश को अयोध्या जैसा बनाना है। वह न केवल अजेय हो, बल्कि नीति में इतना ऊंचा हो कि संसार के सब देश उसका मान कर सकें और उसकी विधियों का अनुकरण कर सकें। अभी देश में ऐसा कोई विमर्श नहीं हो रहा, जो उसे अयोध्या की तरह का देश बनाने की दिशा में सोच-विचार कर रहा हो। इस पर गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए।

 

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