वह दूत जो अयोध्या की गलियों में अवधूत बन भटकता है

विनोद कुमार

सनातन संस्कार और अपने तमाम प्रतीकों के सहारे लगातार भारत भूमि पर अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करते हुए अपने सफर में सनातन कैसे समृद्ध हो,कैसे संयमी हो,कैसे संकलिप्त हो,कैसे राम की मर्यादा को जन जन तक फैलाया जाय, राम की चेतना को सनातन का कैसे स्वभाव बनाया जाय?उसी उधेड़बुन में उस दौर का समाज ही नही,साधु से लगाये सन्त सन्यासी तक उलझते गए।विकल्प के सारे प्रयास ध्वस्त होते गए।मानो चारो दिशाओं में चीत्कार हो रहा था कि जेहि विधि राखे राम वही विधि रहिये,सियाराम सियाराम कहिये।

प्रकृति, पशु,पक्षी और प्राणी सब आज़िज आकर राम के आभाव में सब के सब पलायन करने लगे।उस सफर में एक ऐसा दौर आया जहां सनातन और सनातन के प्रतीक को खारिज करते हुए सत्ता प्राप्त करने का सूत्र जाने-अनजाने प्रतिपादित होने लगा और उसमे इस्लाम मे आस्था रखने वाले सबसे आगे दिखाई पड़े।कमोवेश यह दौर 600 से 700 साल चला।

मुगलिया सल्तनत का अंत हो रहा था और ब्रितानिया हुकूमत अपने पाव सनातन की सरजमी पर फैला रही थी।
मुग़लिया सल्तनत के इस्लाम से और ब्रितानिया हुक़ूमत के पादरियों के षडयंत्र से सनातन परेशान हो सकता है पर पराजित नही के संकल्प के साथ अपने लहू से लड़ने के लिए प्रेरित किया।

उस संकल्प में सनातन को अयोध्या में न काहू से दोस्ती न काहू से बैर का जप करने वाला सेवक मिला,जो आचरण में सनातन से श्रेष्ठ तो नही पर समकक्ष कहने से गुरेज नही है।कद काठी से विशाल तो नही पर छोटे भी नही,वैचारिकी से ब्रह्म तो नही पर विचार में विचरण वह भी राम का, और राम की मर्यादा के प्रति जो समर्पण भाव है,उसे देखकर सनातन उन्हें अपना दूत समझने लगा।

यह दूत अयोध्या की गलियों में अवधूत बनकर भटकने लगा।उस भटकाव में पहला पड़ाव जबरन राम की जन्मभूमि पर बनी बाबरी मस्ज़िद पर पड़ा।जहां सनातन का अतीत तो था पर वर्तमान इस्लाम मे उलझा था।उस वर्तमान के असत्य को सत्य में बदलने के लिए सनातनी सेवक आगे आता है।जो अयोध्या के राम के सत्य को रामेश्वरम तक खोजते खोजते राम की प्रतिमूर्ति बन जाते है।इधर अयोध्यावासियों को खुशी होती है कि जिस राम को सदियों से भुलाने का कुचक्र रचा जा रहा है।वह तो सेवक के रूप में साक्षात सामने खड़ा है।

सड़के कह रही थी कि वर्तमान का राम वही सेवक की सेवा भाव है,जो अवधूत बनकर गलियों में भटक रहा है।वह सदियों पुरानी सभ्यता की सुरक्षा है।प्रतिभाओं की पहचान है।गूंगो की आवाज़ है।अंधेरों में रोशनी है।वह बंदूक नही विचारों की सन्दूक है।भूखे लोगों के भात है।नङ्गो के वस्त्र है।धूप में छाव है।व्यक्तित्व में हिमालय है।घर मे चौखट ही नही मर्यादा है।वही मर्यादा जो हज्जारो साल पहले राम के रूप में अयोध्या में अवतरित हुई थी।
क्रमशः

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