प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक नई खोज कराई है। उसका संबंध महात्मा गांधी से है। जिस ऐतिहासिक घटना को भुला दिया गया था, उससे अब देश और दुनिया परिचित हो सकेगी। आजादी की उथल-ंपुथल और भारत विभाजन की त्रासदी में महात्मा गांधी की भूमिका फायर ब्रिगेड की हो गई थी। उस समय चारों तरफ हत्या और हिंसा का नंगा नाच था। उसमें गांधीजी जीवन के संघर्ष का नेतृत्व कर रहे थे। उन से जन-ंजीवन को आधार मिला। हर क्षण वे बड़ी कठिनाइयों में सबको संभाल रहे थे। आजादी के दिन वे दिल्ली में नहीं थे। इसे कौन नहीं जानता कहां थे, इसे शायद ही कोई होगा जो न जानता हो। वे दिल्ली कब आए? जो ‘मुरदों का शहर हो गया था। प्यारे लाल लिखते हैं, ‘9 सितंबर, 1947 को सुबह गांधीजी कलकत्ते से दिल्ली पहुंचे। जिसे उन्होंने फिर नहीं छोड़ा। रेलवे स्टेशन पर सरदार वल्लभ भाई पटेल उनसे मिले। पहली ही बार न तो सरदार के चेहरे पर सदा की मुस्कान थी और न उनका मार्मिक विनोद था। स्टेशन पर गांधीजी को दूसरे कुछ सुपरिचित चेहरे भी दिखाई नहीं दिए। उनके स्वागत के प्रबंध को घनिष्ट मित्रों से भी गुप्त रखा गया था।
दिल्ली मुर्दों का शहर बन गया था। कार में सरदार ने गांधीजी को यह खबर दी।’ पहले राष्ट्रपति डा. राजेंद्र प्रसाद के प्रेस सचिव रहे राजेंद्र लाल हांडा ने ‘दिल्ली जो एक शहर था’ पुस्तक के एक अध्याय को ‘दो सनसनी खेज महीने।’ का नाम दिया है। जिसमें यह बताते हैं, ‘सन 1947 के हंगामों ने तो दिल्ली का माहौल ही बदल डाला।’ वह माहौल हांडा के शब्दों में इस तरह है, ‘आजाद हिन्दुस्तान की राजधानी होने की वजह से उसकी अहमियत और भी ज्यादा हो गई थी। बहुत से देशों के राजदूत और दूसरे प्रतिनिधि यहां रहने लगे थे। राजधानी में इस तरह का फसाद हो, यह बात किसी भी देशभक्त को अच्छी नहीं लगी होगी। मगर परिस्थितियां ऐसी असामान्य और शाश्क्तिशाली थीं कि किसी का बस नहीं चलता था। यह तर्क कि पाकिस्तान भी हमारे भाइयों के साथ इसी तरह का बर्ताव कर रहा है, यहां के ज्यादातर लोगों को जंचती नहीं थी। पाकिस्तान और हिन्दुस्तान में फर्क भी तो जमीन-ंऔर आसमान का था। एक मुल्क की बुनियाद ही सांप्रदायिक थी और दूसरा डंके की चोट पर अपने को धर्मनिरपेक्ष देश कह रहा था। यह फर्क आसान होते हुए भी समझ में आने वाला नहीं था। बदले की भावना और बुराई का बदला बुराई से दो का नारा इंसान के खून में समाया हुआ था।’ उस समय की दिल्ली का जो माहौल था, उसका चित्रण कर हांडा ने सूचना दी है, ‘फसाद शुरू होने के एक हफ्ते बाद ही गांधीजी दिल्ली आ गए।’ इसे प्यारे लाल की तारीख से जोड़कर देखना चाहिए। हांडा ने यह भी लिखा है कि ‘महात्मा गांधी की विचारधारा ने यहां के माहौल को प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों ही रूपों से प्रभावित किया। उनका विरोध भी खूब हुआ। अक्सर रोज शाम की प्रार्थना सभा में मौजूद लोगों में से कोई ना कोई व्यक्ति शंका के रूप में गांधीजी के कार्यक्रम में रूकावट डालता था। हर संभव तरीके से गांधीजी इन शंकाओं को दूर करने की कोशिश करते थे लेकिन सरकारी कोशिशों के बावजूद हवा कुछ सहिष्णुता के प्रतिकूल ही थी।’ राजेंद्र लाल हांडा प्रेस इंफार्मेशन ब्यूरो में थे। उन्होंने जो देखा, वह लिखा। प्यारे लाल और हांडा के लेखन के एक छोटे से अंश की गवाही का संबंध उस खोज से है जिसके परिणामस्वरूप आकाशवाणी भवन में ‘बापू स्टूडियो’ बना है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ‘मन की बात’ से ‘बापू स्टूडियो’ की खोज हुई है। 30 अप्रैल को ‘मन की बात’ की 100वीं कड़ी पर देशभर में जगह-ंजगह बड़े-ंबड़े आयोजन हुए। पूरे देश में समारोह मनाया गया। जब कोई समारोह होता है तो उससे एक सांस्कृतिक चेतना भी पैदा होती है। ‘मन की बात’ में भारत के सृजनशील नवोत्थान की कहानी होती है। वे उदाहरण होते हैं जो कर्मशक्ति जगाते हैं। ‘मन की बात’ सुनने वालों की संख्या हर बार इसीलिए बढती जा रही है क्योंकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी स्वयं नवाचार का नेतृत्व कर रहे हैं। वह रंग ला रहा है। जीवन में रौनक की उम्मीद जगा रहा है। ‘मन की बात’ की रिकार्डिंग के किसी समय उन्होंने आकाशवाणी की टीम से पूछा कि क्या कभी बापू ने रेडियो का माध्यम अपने संदेश के लिए चुना था? यह प्रश्न सरल है। आकाशवाणी की टीम के लिए उतना ही कठिन भी था। इस प्रश्न से खोजबीन शुरू हुई। यह खोजा जा सका कि महात्मा गांधी 12 नवंबर, 1947 को आकाशवाणी आए थे। जहां से उन्होंने कुरूक्षेत्र में रह रहे शरणार्थियों को अपना संदेश दिया था।
जिस दिन ‘मन की बात’ की 100वीं कड़ी के आयोजन हो रहे थे उसी दिन आकाशवाणी में ‘बापू स्टूडियो’ का उद्घाटन हुआ। सूचना प्रसारण मंत्रालय के सचिव अपूर्व चंद्र ने उसे विधिवत संपन्न किया। उस अवसर पर प्रसार भारती के मुख्य कार्यकारी अधिकारी गौरव द्विवेदी, आकाशवाणी की महानिदेशक वसुधा गुप्ता, कार्यक्रम प्रमुख मनोहर सिंह रावत और अन्य अफसर मौजूद थे। ‘बापू स्टूडियो’ देखने लायक है। आकाशवाणी के स्टूडियो ब्लाक में एक छोटा सा कमरा है। उस कमरे में महात्मा गांधी चलकर पहुंचे थे। उनके साथ जो लोग थे, उनकी बापू के साथ तस्वीरें हैं, जिन्हें दिवालों पर बहुत -सजयंग से टांगा गया है। इससे वहां का माहौल बापूमय दिखता है। वह माइक भी है, जिसका उपयोग उस समय प्रसारण के लिए गांधीजी ने किया था। उनके साथ राजकुमारी अमृत कौर भी थीं।
उस माइक से गांधीजी ने जो संदेश दिया था वह इस प्रकार है- ‘मेरे दुःखी भाइयों और बहनों! मैं नहीं जानता कि आज की मेरी बात सिर्फ आप लोग ही सुन रहे हैं या दूसरे भी सुन रहे हैं। रेडियो पर बोलने का यह मेरा महज दूसरा अवसर है। मुझे पहला अवसर कई वर्ष पूर्व मिला था जब मैं गोलमेज सम्मेलन में सम्मिलित होने के लिए लंदन गया था। हालांकि में ब्राडकास्टिंग हाउस से बोल रहा हूं, लेकिन इस तरह की वार्ताओं में मुझे दिलचस्पी नहीं है। दुःखियों के साथ दुःख जताना और उनके दुःखों को दूर करना ही मेरे जीवन का काम रहा है। इसलिए मुझे आशा है कि मेरे इस भाषण को आप इसी नजर से देखेंगे।’ ‘जब मैंने सुना कि कुरूक्षेत्र में दो लाख से ऊपर शरणार्थी आ चुके हैं और उनकी संख्या बढ़ती ही जा रही है, तो मुझे बड़ा दुःख हुआ। यह खबर सुनते ही मेरी इच्छा हुई कि मैं आप लोगों से आकर मिलूं। लेकिन मैं एकदम दिल्ली नहीं छोड़ सकता था, क्योंकि यहां कांग्रेस कार्य समिति की बैठक हो रही थीं और उनमें मेरा हाजिर रहना जरूरी था। सेठ घनष्यामदास बिड़ला ने सुझाया कि मैं आपको रेडियो पर संदेश दूं। इसलिए आपसे आज यह बात कर रहा हूं।’ ‘इतिफाक से महज दो दिन पहले जनरल नत्थू सिंह, जिन्होंने कुरूक्षेत्र शिविर की व्यवस्था की है, मुझसे मिलने आए और उन्होंने मुझे आप लोगों की मुसीबतों के बारे में बताया। केंद्रीय सरकार ने फौज को आपके शिविर की व्यवस्था अपने हाथ में लेने के लिए इसलिए नहीं कहा कि वह आपको किसी तरह दबाना चाहती है बल्कि इसलिए कि फौज के लोग शिविर की व्यवस्था करने के अभ्यस्त होते हैं और ये होशियारी से यह सब करना जानते हैं। जिन्हें कष्ट होता है, वे अपने कष्टों को सबसे ज्यादा जानते हैं। आपका शिविर कोई मामूली नहीं है जहां हर आदमी एक-ंदूसरे को जान सके। आपका शिविर एक शहर है और अपने साथी शरणार्थियों से आपका संबंध सिर्फ दुःख-ंदर्द के जरिए ही है।’
‘मुझे यह जानकर दुःख हुआ कि शिविर के अधिकारियों या अपने पड़ोसियों के साथ आपका वह सहयोग नहीं है जो शिविर के जीवन को सफल बनाने के लिए आवश्यक है। मैं आपके दोषों की तरफ आपका ध्यान खींचकर आपकी सबसे अच्छी सेवा कर सकता हूं। वही मेरे जीवन का मंत्र रहा है क्योंकि उसी में सच्ची दोस्ती समाई हुई है। और मेरी सेवा सिर्फ आपके या हिन्दुस्तान के लिए नहीं है, वह तो सारी दुनिया के लिए है, क्योंकि मैं जाति या धर्म की सीमाओं को नहीं मानता। अगर आप अपने दोषों को दूर कर दें, तो आप अपने आपको ही नहीं, बल्कि सारे हिन्दुस्तान को लाभ पहुंचाएंगे।’ ‘यह जानकार मेरे दिल को चोट पहुंचती है कि आप में से बहुत से आश्रयहीन हैं। यह वास्तव में कठिनाई है-ंखासकर पंजाब की कड़ी ठंड में जो दिनोंदिन बढ़ती ही जा रही है। आपकी सरकार आपको आराम पहुंचाने की भरसक कोशिश कर रही है। बेश क आपके प्रधानमंत्री पर इसका सबसे बड़ा बोझ है।
राजकुमारी अमृत कौर और डा. जीवराज मेहता के अधीन सरकार का स्वास्थ्य-ंविभाग भी आप लोगों की मुसीबतों को हल्का करने के लिए कड़ी मेहनत कर रहा है। इस संकट में दूसरी कोई भी सरकार इससे अच्छा काम नहीं कर सकती थी। आपकी मुसीबतों और विपदाओं की कोई हद नहीं है और सरकार की तो अपनी सीमाएं हैं ही। लेकिन आपको चाहिए कि आप अपने दुःख-ंदर्द का जितनी हिम्मत, धीरज और खुशी से सामना कर सकें – करें।’
‘आज दीवाली है लेकिन आप या दूसरे कोई चिराग नहीं जलाएंगे। हमारी सबसे अच्छी दीवाली मनेगी आप लोगों की सेवा करके, और आप सब उसे अपने शिविर में भाई-भाई रहकर और हर एक को अपना सगा समझ कर मनाएंगे। अगर आप ऐसा करेंगे, तो मुसीबतों पर विजय पा सकेंगे।’ ‘जनरल साहब ने मुझे बताया कि शिविर में आज भी किन-ंकिन बातों की जरूरत है। उन्होंने मुझसे कहा कि अब वहां और शरणार्थी न भेजे जाएं। ऐसा मालूम होता है मानो शरणार्थियों को ठीक तरीके से अलग-ंअलग जगहों में बाटा नहीं जाता। यह समझ में नहीं आता कि वे वहां क्यों आते हैं और स्थानीय अधिकारियों को पहले से बताए बिना विभिन्न जगहों में इस तरह क्यों भर दिए जाते हैं? कल शाम को मैंने प्रार्थना के बाद अपने भाषण में ऐसी हालत पैदा करने के लिए पूर्वी पंजाब की सरकार की आलोचना की थी। मुझे अभी-ंअभी वहां की सरकार के एक मंत्री का पत्र मिला है, जिसमें कहा गया है कि यह उनका दोष नहीं है, इसके लिए केन्द्रीय सरकार जिम्मेदार है।’ ‘अब केंद्र की या प्रांतों की सारी सरकारें जनता की सरकारें हैं। इसलिए एक का दूसरे को इस तरह दोष देना शोभा नहीं देता। सबको मिलकर जनता के भले के लिए काम करना चाहिए। मैं यह सब इसलिए कहता हूं कि आप लोग भी अपनी जिम्मेदारी समझें । आपको शिविर में अनुशसन बनाए रखने में मदद करनी चाहिए।’ ‘दूसरी बात जो मैं आप से कहना चाहता हूं वह यह कि आप अपना राशन बांटकर खाइए। जो-ंकुछ आपको मिले, उसमें संतोष कीजिए। न तो अपने हिस्से से ज्यादा लीजिए और न ज्यादा की मांग कीजिए। सार्वजनिक रसोई चलाने की कला हमें सीखनी चाहिए। इस तरह से भी आप एक-ंदूसरे की सेवा कर सकते हैं।’
‘मुझे इस खतरे की तरफ भी आपका ध्यान खींचना चाहिए कि कहीं आप बैठे-ंबैठे खाने के आदी न बन जाएं। आपको रोटी कमाने के लिए शारीरिक मेहनत करनी चाहिए। मुमकिन है आप यह सोचें कि आपके लिए हर बात का इंतजाम करना सरकार का फर्ज है। सरकार का फर्ज तो है ही, लेकिन इसका मतलब नहीं कि आपका फर्ज खत्म हो जाता है। आपको सिर्फ अपने ही लिए नहीं, बल्कि दूसरों के लिए भी जीना चाहिए। आलस्य हर एक को नीचे गिराता है। यह हमें इस संकट को सफलतापूर्वक पार करने में तो मदद कर ही नहीं सकता।’ ‘गोवा की एक बहन मुझ्से मिलने आई थीं। उनसे मुझे यह जानकर खुशी हुई कि आपके शिविर की बहुत-ंसी औरतें काम करना चाहती है |जो रचनात्मक काम हमें मदद पहुंचाए उसे करने की इच्छा रखना अच्छी बात है। अब आप सबको सरकार पर बोझ बनने से इन्कार कर देना चाहिए। आपको दूध में शक्कर की तरह अपने आस-ंपास के वातावरण में घुलमिल जाना चाहिए और इस तरह आपकी सरकार पर जो बोझ आ पड़ा है, उसे हल्का करने में मदद करनी चाहिए। सारे शिविरों को सचमुच स्वालंबी बनना चाहिए। लेकिन आज आपके सामने वह आदर्श रखना शायद बहुत ऊंची बात होगी। फिर भी मैं आप से यह जरूर कहूंगा कि आपको किसी भी काम को बुरा नहीं समझना चाहिए। सेवा का जो कोई भी काम आपके सामने आए, उसे आप खुशी-ंख़ुशी करें और इस तरह कुरूक्षेत्र को एक आदर्श जगह बनाएं।’ ‘मेरी गरम कपड़ों, रजाइयों और कंबलों के लिए अपील सुनकर लोगों ने उदारता से दान दिया है। सरदार वल्लभ भाई पटेल की अपील का भी उन्होंने अच्छा स्वागत किया है। इन चीजों में भी आपका हिस्सा है। लेकिन अगर आप लोग आपस में झगरेंगे और कुछ लोग अपनी जरूरत से ज्यादा लेंगे, तो आपको ही नुकसान होगा। आज भी आप बड़ी-ंबड़ी मुसीबतें उठा रहे हैं, लेकिन आपके गलत काम से वे और ज्यादा बढ जाएगी।’ ‘मैं उन लोगों में से नहीं हूं जो यह विश्वास करते हैं कि आप, जो पाकिस्तान में अपनी जमीनें और घर-ंबार छोड़कर यहां आ गए हैं, वहां से हमेश के लिए उखाड़ दिए गए हैं। न ही मैं यह विश्वास करता हूं कि उन मुसलमानों के साथ ऐसा होगा जिन्हें हिन्दुस्तान छोड़ने पर मजबूर किया गया है। मैं तब तक चैन नहीं लूंगा और तब तक भरसक कोशीश करता रहूंगा जब तक सब लोग सम्मान और सुरक्षा के साथ लौटकर उन जगहों में बस नहीं जाते जहां से वे आज निकाले गए हैं। जब तक मैं जिन्दा रहूंगा तब तक इस उद्देश्य के लिए काम करता रहूंगा। मरे हुए लोग तो जिंदाये नहीं जा सकते, लेकिन जिंदा लोगों के लिए तो हम काम कर सकते हैं। अगर हम ऐसा नहीं करते, तो हिन्दुस्तान और पाकिस्तान के नाम पर हमेशा के लिए कालिख पुत जाएगी और उससे हम दोनों बर्वाद हो जाएंगे।’ वह दिन दिवाली का था। अपने मन की बात से महात्मा गांधी ने उम्मीद का एक दिया जलाया। उससे आकाशवाणी को भी एक रोशनी मिली। परिणामस्वरूप अगले दिन से ही बिरला भवन की प्रार्थना सभा का रेडियो से प्रसारण होने लगा। तब वह होती थी, महात्मा गांधी के मन की बात।